सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का यही तो वक्त है सूरज तिरे निकलने का-शहरयार
महिलाओं को राजनीति में बराबर की भागीदारी देने की राह सबको पता है। वह है सामाजिक और राजनीतिक चेतना। किसी लोकतांत्रिक देश के राजनीतिक दलों की तो यह बुनियादी पहचान होनी चाहिए थी। लेकिन, इस बुनियाद के बिना बनी राजीतिक अट्टालिका में तीन दशक से महिलाओं के 33 फीसद आरक्षण के लिए जंग चल रही थी, जिसमें हर राजनीतिक दल भोथरे औजार लेकर उतर रहा था।
अब तक राजनीतिक दलों को किस कानून ने रोका था कि वे 33 फीसद महिलाओं को टिकट न दें? सत्ता पक्ष महिला आरक्षण विधेयक लेकर आया और कोई भी उसके विरोध में नहीं है। सत्ता और विपक्ष से अनुरोध करता बेबाक बोल कि राह पता तो आगे चल, अब भी जनगणना, परिसीमन का इंतजार क्यों?
‘एक बार महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित हो जाने के बाद इन दलों को अपनी तरफ से ओबीसी महिलाओं को चुनावी मैदान में उतारने से कोई नहीं रोकेगा।-’सोनिया गांधी-2010। आज लोकसभा में करीब 14 फीसद और राज्यसभा में करीब दस फीसद महिला सांसद हैं। 1952 में पहली लोकसभा में करीब पांच फीसद महिला सांसद थी। यानी 70 सालों में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है।-मल्लिकार्जुन खरगे, 2023। आजादी से लेकर अब तक संसद के दोनों सदनों को मिलाकर लगभग 7500 सांसदों ने योगदान दिया, जिसमें महिला सांसद करीब 600 के आसपास रहीं।-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, 2023
भारतीय संसद की नई इमारत में पेश होने के साथ ही नारी शक्ति वंदन विधेयक 2023 पास कर दिया गया। लोकसभा में विरोध में सिर्फ दो मत पड़े और राज्यसभा में एक भी मत विरोध में नहीं पड़ा। पिछले एक दशक में देश में राजनीतिक कटुता का जैसा माहौल रहा है, उसे देखते हुए इस स्थिति को अकल्पनीय ही कहा जा सकता है कि संसद में किसी मुद्दे पर सत्ता पक्ष और विपक्ष एक साथ आ सकता है। किंतु-परंतु के साथ सभी साथ आए और इसे वक्त की सबसे बड़ी जरूरत बताया।
ऊपर दिए उद्धरण के अनुसार सोनिया गांधी खुद ही कह चुकी हैं कि एक बार महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित होने के बाद इन दलों को अपनी तरफ से ओबीसी महिलाओं को चुनावी मैदान में उतारने में कोई नहीं रोकेगा। कांग्रेस प्रमुख खरगे मान रहे हैं कि 1952 से लेकर 70 सालों में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है।
प्रधानमंत्री भी बता रहे हैं कि संसद में पुरुषों के अनुपात में महिलाओं की संख्या कितनी कम रही है। पक्ष-विपक्ष सब सहमति से कह रहे हैं कि संसद में महिलाओं के लिए बराबरी की मंजिल अभी बहुत दूर है। इस दूरी के फासले को कम करने के लिए जिस इच्छाशक्ति की जरूरत थी वह मुख्यधारा के राष्ट्रीय राजनीतिक दलों ने तो नहीं दिखाई।
फिलहाल सत्ता पक्ष खुश है कि संसद की नई इमारत में उसने इतिहास रच दिया है। विपक्ष ने इसे ‘पोस्ट डेटेड चेक’ करार देकर ताना मारा है कि महिला आरक्षण लाएंगे, तारीख नहीं बताएंगे। कहा जा रहा है कि जनगणना और परिसीमन की शर्तों को देखते हुए इसे आगामी 2024 और 2029 के चुनाव में लागू करने की संभावना बहुत कम दिख रही है। कयास लगाए जा रहे कि 2034 के चुनाव में ही यह मूर्त रूप में दिख सकता है।
सरकार के एवमस्तु और विपक्ष के किंतु-परंतु के साथ हम पक्ष-विपक्ष दोनों को याद दिलाना चाहते हैं कि संविधान में अभी तक ऐसा कोई कानून नहीं है कि कोई भी पार्टी इतने फीसद महिलाओं को ही टिकट दे सकती है। संविधान जब सबको बराबर के अधिकार की बात करता है तो यह हमारे राजनीतिक दलों के द्वारा बनाए गए हालात की त्रासदी है कि तीन दशक से 33 फीसद महिला आरक्षण का झुनझुना बजाया जा रहा है।
अब हालत यह है कि संसद में कथित ऐतिहासिक कानून पास हो जाने के बाद भी सत्ता पक्ष व कुछ राजनीतिक दलों को छोड़ कर कहीं भी महिलाओं के बीच खासा उत्साह नहीं दिख रहा है। तीन दशक से बजाते-बजाते झुनझुने के अंदर की घंटी घिस गई है और किसी शिशु की तरह महिलाओं ने इसे चौंक कर, चिंहुक कर देखना बंद कर दिया है।
झुनझुने की घंटी घिसने का असली कारण बस एक सवाल है कि आपको अभी तक किसने मना किया था 33 फीसद महिलाओं को टिकट देने से? 2014 के पहले और उसके बाद की सभी सरकारों से सवाल है। आप क्यों किसी आरक्षण कानून का इंतजार कर रहे थे? अभी तक संविधान में तो किसी तरह का नियम नहीं है कि आप ओबीसी मुख्यमंत्री बनाइए, या मंत्रिमंडल में इतने ओबीसी मंत्री रखिए।
बिहार, उत्तर प्रदेश से लेकर दक्षिण के राज्यों तक ओबीसी महिमा-गान सभी कर रहे हैं। जो कांग्रेस 2010 में कह रही थी कि आपको ओबीसी की महिलाओं को सीट देने से कौन रोक रहा है, आज वो कह रही है कि उसके समय में की गई जाति जनगणना को सार्वजनिक किया जाए और वो सत्ता में आई तो ओबीसी को आरक्षण देगी।
कर्नाटक में कांग्रेस की ऐतिहासिक जीत के बाद मुख्यमंत्री चयन में सबसे पहली प्राथमिकता ओबीसी चेहरा ही था। पिछले कई चुनावों में देखा जा चुका है कि सत्ता पक्ष ओबीसी को खुश करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। आज के समय में ओबीसी आरक्षण के खिलाफ बोलना राजनीतिक आत्महत्या करने के समान है। सत्ता पक्ष से लेकर उससे जुड़े संगठनों के मुखिया तक आरक्षण के कसीदे पढ़ कर इसे आने वाले दो सौ साल तक की जरूरत बता रहे हैं।
जाति के आधार पर बात करें तो दक्षिण भारत में ओबीसी का प्रभुत्व कायम हो चुका है। यह हुआ राजनीतिक इच्छाशक्ति से। अगर उत्तर प्रदेश में दो-दो उपमुख्यमंत्री देने पड़े हैं और उसमें जाति देखी गई है जेंडर नहीं तो उसकी वजह यही है कि वोट जातिगत आधार पर मिलने हैं। अभी भी बजट के विश्लेषण में यही लिखा जाता है कि महिलाओं के लिए उपहार-सोना, साड़ी और सौंदर्य उत्पाद सस्ते हुए। महिलाएं बाजार में तो उपभोक्ता के रूप में चिह्नित हैं लेकिन वोट के मैदान में वे अलग से ऐसा वर्ग नहीं हैं जिन पर चुनावी सीटों का दांव लगाया जाए।
ओबीसी महिमा के इस अमृतकाल जैसे माहौल में अगर महिला आरक्षण को लेकर किंतु-परंतु है तो सिर्फ इसलिए कि जेंडर की पहचान अलग से वोट जिताऊ चिह्नित समुदाय के रूप में नहीं है। आरक्षण कानून की बाध्यता के बिना अगर महिलाएं टिकट पाने में पीछे हैं तो सिर्फ इसलिए कि किसी खास जाति के उम्मीदवार को टिकट इस समीकरण पर दिया जाता है कि उस पूरी जाति का वोट उस उम्मीदवार को मिलेगा। हां, किसी महिला को खड़ा कर यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि उस क्षेत्र की सारी महिलाओं का वोट उसे मिलेगा। यहां भी यही तय होगा कि वह महिला किस जाति की है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 40 फीसद महिलाओं को टिकट देने का शिगूफा छोड़ा और पूरे चुनावी अभियान को गुलाबी रंग में समेट दिया। शायद इसलिए कि उत्तर प्रदेश में उसकी हार तय थी। वहां के चुनावी मैदान में वह सिर्फ अपने छवि प्रबंधन भर के लिए ही उतरी थी। वहीं पंजाब से लेकर, हिमाचल, कर्नाटक के विधानसभा चुनावों से लेकर कांग्रेस कार्य समिति तक के चुनाव में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में खड़ी की गई गुलाबी क्रांति को भूल गई।
यहां उसने सोच लिया कि बिना संसद में कानून पास हुए और ओबीसी की गणना हुए महिलाओं को टिकट देना शायद कोई असंवैधानिक काम होगा। जो भाजपा हर जगह चुनावी भगवान की तरह ओबीसी का आह्वान कर रही है, उसके मध्य प्रदेश और राजस्थान के रुझान देख कर तो यही लग रहा कि बिना जनगणना और परिसीमन के 33 फीसद महिलाओं को टिकट दे देने से महिलाएं नाराज हो जाएंगी और वोट नहीं देंगी।
जिन दलों के पास अपने काम का आधार और राजनीतिक चेतना है उन्होंने बिना किसी हो-हल्ले के अपने राज्यों में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाई। ममता बनर्जी ने बंगाल में और नवीन पटनायक ने ओड़ीशा में आनुपातिक रूप से महिलाओं को ज्यादा संख्या में टिकट देकर मिसाल कायम की। इन्होंने संसद में किसी नई इमारत बनने और महिला आरक्षण विधेयक के पास होने जैसे किसी इतिहास बनने का इंतजार नहीं किया और वर्तमान के नए प्रतिमान बने।
ममता बनर्जी और नवीन पटनायक अपने बूते का काम कर चुके हैं। इनकी नजीर के साथ ही सत्ता पक्ष व विपक्ष दोनों से हमारा सवाल यह है कि संसदीय और विधायी सीटों पर 33 फीसद महिलाओं के आंकड़े के लिए जनगणना और परिसीमन का इंतजार क्यों? आपके दल में गणित की मामूली समझ वाले लोग भी गणना करके बता देंगे कि आप यह कैसे कर सकते हैं। सत्ता और विपक्ष दोनों इसे 2024 में लागू कर सकता है। वरना आपको सिर्फ श्रेय लेना है तो क्या किया जा सकता है। अब देखते हैं कि अंजाम-ए-आरक्षण क्या होगा जहां हर शाख पर इसे लागू करवाने का श्रेय बैठा है।