Centenary Year Of Delhi University: दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति योगेश सिंह (Yogesh Singh) ने कहा कि बीसवीं सदी की नारेबाजी वाली सक्रियता से इक्कीसवीं सदी के विश्वविद्यालय को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है। इन दिनों खाली पदों को भरने के लिए महीने में 15 से बीस दिन साक्षात्कार हो रहे हैं। पूरी बातचीत का संचालन कार्यकारी संपादक मुकेश भारद्वाज ने किया।

सुशील राघव : दिल्ली विश्वविद्यालय का शताब्दी वर्ष शुरू हुआ तो आपको इसकी कमान मिली। आपको आए एक साल हो गया है। सौ साल पूरे कर चुके दिल्ली विश्वविद्यालय का आकलन किस तरह करेंगे और शताब्दी वर्ष के लिए क्या खास योजनाएं शुरू हुईं?

योगेश सिंह : मेरा सौभाग्य है कि सौ साल पूरे होने के समय में दिल्ली विश्वविद्यालय को संभालने की जिम्मेदारी मुझे मिली। शताब्दि उपलब्धि को यहां समेटना नामुमकिन है, लेकिन अहम बात है कि इस शहर के हर घर और मन में डीयू है। राष्ट्रीय परिदृश्य की भी बात करें तो कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के हर शहर और कस्बे में आपको यहां के पढ़े हुए विद्यार्थी मिल जाएंगे। इन सबने अपने-अपने तरीके से इस देश को बनाने में अपना योगदान दिया है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना जिस काम के लिए की गई उसे इसने बहुत अच्छे से पूरा किया। जब ये सौ साल का हुआ तो हमने सोचा कि उन लोगों को फिर से जोड़ा जाए जो सौ सालों में इससे जुड़े और किसी वजह से पाठ्यक्रम पूरा नहीं कर पाए। हमने उन्हें निमंत्रण दिया कि जिस वजह से भी पढ़ाई छूटी हो, आइए और उसे पूरी कीजिए। आज आपको उस पाठ्यक्रम की आवश्यकता नहीं होगी, लेकिन आपके मन में एक अच्छा भाव जरूर आएगा। उम्मीदों से कहीं बढ़ कर लोगों ने इस योजना को पसंद किया। इसके लिए दस हजार से ज्यादा पंजीकरण हुए। यह देखना सुखद था कि अपने-अपने क्षेत्रों में प्रतिष्ठित कई लोग परीक्षा देने पहुंचे। यह अभी खत्म नहीं हुआ है। अच्छा लगेगा तो आगे भी चला सकते हैं। दूसरा, दिल्ली-एनसीआर के लोगों के लिए हमने सोचा कि ऐसा पाठ्यक्रम शुरू किया जाए कि लोग अपनी योग्यता का विस्तार कर सकें। किसी को साइबर कानून का कोर्स करना है तो वह पंजीकरण करा सकता है। इसके तहत एक व्यक्ति दो पाठ्यक्रम में पंजीकरण करवा सकता है। हम उन्हें प्रमाणपत्र देंगे जो उनके व्यावसायिक और जीवन के अन्य क्षेत्र को और बेहतर बना सकता है। इसे मार्च में शुरू करेंगे क्योंकि इस बार सत्र की शुरुआत देर से हुई है।

प्रियरंजन : नियुक्तियों को लेकर आपने क्या कदम उठाए हैं?
योगेश सिंह : ’
जी, मैं इसी तीसरे बिंदु पर आ रहा था। दिल्ली विश्विद्यालय एक पुराना संस्थान है। इतने पुराने संस्थान की अच्छाइयों के साथ कुछ कमजोरी भी हो जाती है। दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षकों के चार से पांच हजार पद रिक्त हैं। असल में ये पूरी तरह से खाली भी नहीं हैं। कोई तदर्थ सेवाओं के तहत लंबे समय से इन पर काम कर रहा है। आपको जान कर अच्छा लगेगा कि पिछले दिनों पांच हजार से ज्यादा लोगों की प्रोन्नति हुई है। पिछले समय में आठ सौ से ज्यादा शिक्षकों की नियुक्तियां हुई हैं। किसी को हम लंबे समय तक तदर्थ सेवा पर रखते हैं तो यह उस व्यक्ति और संस्थान के लिए भी अच्छा नहीं है। आपको यह जानकर खुशी होगी कि आजकल बहुत सारे कालेजों से लेकर विश्वविद्यालय तक में एक महीने में 15 से 20 दिन साक्षात्कार की प्रक्रिया चल रही है।

पंकज रोहिला : दिल्ली विश्वविद्यालय में आनलाइन शिक्षण-प्रशिक्षण की कितनी अहमियत देखते हैं आप?
योगेश सिंह :
मेरे हिसाब से आनलाइन शिक्षा का अपना प्रभाव वर्ग है। हम एक संपूर्ण विश्वविद्यालय हैं। हमारा लक्ष्य तो जीवंत कक्षा में शिक्षण-प्रशिक्षण की प्रक्रिया रहेगा। सहायक माध्यम के रूप में हम इसे बढ़ावा देंगे, लेकिन यह कक्षा के अंदर की शिक्षा को बेदखल नहीं करेगा। दिल्ली विश्वविद्यालय का दूरस्थ शिक्षा केंद्र है। हमारी कोशिश रहती है कि वहां आनलाइन शिक्षा के जरिए विद्यार्थियों को ज्यादा से ज्यादा मदद पहुंचा पाएं।

Jansatta baradari.

मृणाल वल्लरी : साझा विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा (सीयूईटी) के दौरान अनियमितता से परीक्षार्थियों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ा था। स्नातक पाठ्यचर्या ढांचा (यूजीसीएफ) को 2022 में लागू कर दिया गया, जिसमें बदलाव करने पड़ सकते हैं। इतने अहम बदलावों को इतनी हड़बड़ी में लाना इतने बड़े संस्थान की साख के साथ समझौता करना नहीं है?
योगेश सिंह : कोई भी व्यवस्था अपने जन्म से सर्वश्रेष्ठ नहीं हो जाती है। दिल्ली विश्वविद्यालय ने दुनिया की सबसे बड़ी परीक्षा आयोजित की। इसके पहले इतने सारे विद्यार्थी, इतनी सारी भाषाओं में परीक्षा के लिए नहीं बैठे थे। इतने बड़े स्तर पर परीक्षा हुई और थोड़ी-बहुत कमी रही। परीक्षा कंप्यूटर आधारित थी, इसलिए भी थोड़ी दिक्कत हुई। धीरे-धीरे सब दुरुस्त हो जाएगा। कोई भी संस्था इतना बड़ा कदम उठाएगी तो उस प्रक्रिया को बनने और स्थापित होने में दो-चार साल तो लगते ही हैं। लेकिन इसके फायदे क्या थे? पहला फायदा यह कि बोर्ड परीक्षाओं में विविधता बहुत ज्यादा थी। कुछ राज्य बोर्ड बहुत ज्यादा अंक तो कुछ राज्य बोर्ड बहुत कम अंक देते थे। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार राज्य बोर्ड के विद्यार्थी आ ही नहीं पाते थे क्योंकि उन्हें बहुत कम अंक मिलते हैं। इन राज्यों से जो बच्चे आते भी थे वे सीबीएसई के स्कूलों के जरिए आते थे। इसलिए राज्य बोर्ड के बच्चों का दाखिला यहां पर नहीं हो पा रहा था। मेरे मन में आया कि राज्य बोर्ड के कारण वहां के विद्यार्थियों को बहुत नुकसान हो रहा है। सारे विद्यार्थियों को एक जैसा मंच मिलना चाहिए। मैं ‘सीयूईटी’ को लेकर दृढ़निश्चयी हुआ। दूसरी चीज क्या है कि एक बार अंक आ गए तो भविष्य उससे बंध गया। ‘सीयूईटी’ का फायदा है कि अगले साल फिर दे सकते हैं। जिंदगी तीन घंटे की परीक्षा से तय हो यह अच्छी व्यवस्था नहीं है। सीयूईटी दो बार हो, जिसके लिए हम प्रयास कर रहे हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी इसे दो बार करवाने के पक्ष में है। एक बार बोर्ड परीक्षा के पहले और एक बार बोर्ड परीक्षा के बाद।

महेश केजरीवाल : पढ़ाई के साथ रोजगार का तालमेल बिठाने की क्या योजना है?
योगेश सिंह : पिछले साल नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत हमने जो स्नातक स्तरीय ढांचा तैयार किया है, उसके चार आधार हैं। एक तो जिस पाठ्यक्रम में आपने दाखिला लिया है। अगर आपने वाणिज्य में दाखिला लिया है और आपकी रुचि मनोविज्ञान या पत्रकारिता में भी है, तो आप मुख्य के साथ यह सहायक पाठ्यक्रम भी कर सकते हैं। आपको बहुविधागत होने की सुविधा मिलती है। यह धीरे-धीरे लागू होगा। दो आधार हुआ बहुविधागत का। तीसरा आधार है कौशल का कि हर सत्र में आपको एक पाठ्यक्रम कौशल विकास को लेकर लेना होगा। उसमें आप प्रशिक्षण भी ले सकते हैं जो आपके पाठ्यक्रम में साथ-साथ चलेगा। चौथा आधार है मूल्य संवर्द्धन का, मतलब आपको एक बेहतर नागरिक और इंसान बनाने का ढांचा। अब खेल हमारी जिंदगी से बाहर होता जा रहा है। सबको खिलाड़ी नहीं बनना है, लेकिन खेलने से तन और मन दोनों अच्छा रहता है। हमने खेल-कूद को लेकर भी चार पाठ्यक्रम डाले हैं। संवाद, लेखन कौशल है। तो इस तरह से चार-पांच आधार हर सत्र में इकट्ठे चलेंगे। अलग से नौकरी के लिए कोई पाठ्यक्रम चलाने के बजाए सभी पाठ्यक्रमों के प्रावधान डाले गए हैं। नौकरी व साक्षात्कार के लिए उद्योगों व संबंधित संस्थाओं को आमंत्रित करने की प्रक्रिया को मजबूत कर रहे हैं।

सूर्यनाथ सिंह : पाठ्यक्रम बना देना एक बात है, लेकिन एक अच्छा विभाग तैयार करना अलग। अकादमिक विभाग विश्विद्यालय की संपत्ति होता है। इसका अभाव तमाम विश्वविद्यालयों के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय में दिखाई देता है। दूसरी बात, ज्यादातर विभागों के सदस्य राजनीति की तरफ चले जाते हैं, जिसका असर विद्यार्थियों से लेकर अनुसंधान तक पर पड़ता है। आप इस चुनौती को किस तरह से देखते हैं?
योगेश सिंह : आज किसी भी विश्वविद्यालय के शिक्षक ये नहीं कह सकते कि हमें कम तनख्वाह मिलती है। हमारे देश की जितनी ताकत है उससे ज्यादा तनख्वाह देता है अपने शिक्षकों को। दो लाख से तीन लाख रुपए तक की तनख्वाह समाज में किसे मिल रही है? देश यह समझता है कि इनकी जिम्मेदारी ज्यादा है तो यह उचित है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि देश की ताकत नहीं है इतनी तनख्वाह देने की फिर भी इसे जिम्मेदारी मानता है। लेकिन, शिक्षकों को भी सोचना है कि हमारा आचरण उसके अनुरूप है कि नहीं है। बीसवीं सदी की जो राजनीतिक सक्रियता थी, इक्कीसवीं सदी में उसे कितना लेकर जाना है? इससे देश की सारी कपड़ा मिलें बंद हुईं, विनिर्माण के क्षेत्र बंद हुए हैं। शिक्षा में राजनीतिक सक्रियता को नए रूप में आना चाहिए। ये बीसवीं सदी वाली, नारेबाजी वाली सक्रियता बहुत उपयोगी नहीं है। मैं ऐसा नहीं कह रहा कि शिक्षकों के संगठन नहीं होने चाहिए। लेकिन, अगर आप नारेबाजी करते हैं तो आपके विद्यार्थियों पर क्या प्रभाव पड़ता है?

दीपक रस्तोगी : भारत में विश्व की सबसे बड़ी शिक्षा व्यवस्था है। लेकिन विश्वस्तरीय शिक्षा की बात करें तो हमें दुनिया के दूसरे देशों की ओर देखना होता है। ऐसी स्थिति क्यों?
योगेश सिंह : अभी की व्यवस्था में काम का दोहराव ज्यादा है। इसमें हमारी शिक्षा प्रणाली में हमने सूचना की साझेदारी में बहुत काम किया है। विद्यार्थियों को बेहतर ढंग से पढ़ाया गया है लेकिन विश्वविद्यालय में बहुत नया नहीं हो पाया है। हमारे अनुसंधान भी बुनियादी विस्तार, और पुनर्व्याख्या तक सीमित रह जाते हैं। मौलिक शोध ज्यादा नहीं हुए हैं। इसकी चिंता सबको है और इसे लेकर लोगों की समझ बदलने भी लगी है। सरकार भी अनुसंधान और नवाचार को बढ़ावा देने के लिए तैयार है। मुझे लगता है कि हमारी दिशा सही जा रही है जिसमें हम समय के साथ गति पकड़ेंगे।

मुकेश भारद्वाज : क्या एक दिन ऐसा आएगा कि विश्वविद्यालय के कुलपति अपने बच्चों को यहां पढ़ाएंगे, विदेशी संस्थानों में नहीं भेजेंगे?
योगेश सिंह :
जवाब में यही कहा जा सकता है कि वैश्विक परिदृश्य में हम खुद को लेकर जिम्मेदार हो रहे हैं। अब गुणवत्ता हमारा आंतरिक मामला नहीं है। रैंकिंग व्यवस्था के बाद अब तो राजनीतिक व्यवस्था भी सवाल कर बैठती है कि गुणवत्ता की परीक्षा में कम अंक कैसे मिले। देश की भी हमसे उम्मीद बढ़ गई है।

प्रियरंजन : दिल्ली सरकार के कालेजों के साथ तालमेल में दिक्कत की क्या वजह है?
योगेश सिंह :
हमारी जितनी भूमिका है उसे बेहतर तरीके से निभा रहे। दिल्ली सरकार से संवाद कायम रखते हैं। कुछ तकनीकी कारणों से मामला बढ़ गया था। अब जिन्हें बिल बनाना होता है वो अपना नियंत्रण चाहेंगे ही। पिछले दिनों हुई प्रोन्नतियों के बाद बजट बहुत बढ़ गया। बकाए बने बहुत सारे और कुछ बकाए तो पचास लाख तक के थे।

सुशील राघव : इस बार दाखिले में पांच हजार सीटें खाली रहने की वजह?
योगेश सिंह :
इनमें से ज्यादातर उन पाठ्यक्रमों की सीटें हैं जो बहुत ज्यादा लोकप्रिय नहीं हैं।

मुकेश भारद्वाज : विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की भूमिका में राजनीतिक दखल पर क्या कहना है?
योगेश सिंह :
एक व्यवस्था है, जिससे लोगों को आना होता है। किसी का भी चुनाव करते वक्त उसकी पूरी अकादमिक प्रक्रिया को खंगालना चाहिए, सिर्फ विचार नहीं देखना चाहिए।