हमारे सामाजिक जीवन में बातचीत या संवाद एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। अंग्रेजी में जिसे हम ‘नेगोसिएशन’ कहते हैं, उसका आज के दौर में अच्छा- खासा बोलबाला है। दरअसल, बातचीत एक कला है, ये सब जानते हैं, लेकिन यह आज नौकरी से लेकर घर-परिवार, देश-विदेश, उद्योग-व्यवसाय आदि के क्षेत्र में सभी की वस्तुस्थिति के निर्धारण का आयाम बन चुकी है। खासतौर पर दो लोगों के बीच आपसी संबंधों में निरंतरता के लिए संवाद या बातचीत एक सबसे अहम कारक होता है।

जैसे ही संवाद खत्म या कम हुआ, रिश्तों में गरमाहट कम होने लगती है। और संवाद के ही अभाव में कई बार संबंध खत्म होने की भूमिका भी छिपी होती है। जबकि सिर्फ इसी के एक सिरे को पकड़ कर रिश्तों की कमजोर होती डोर को भी फिर से जीवन दिया जा सकता है। मगर यह भी सच है कि एक अंतर्मुखी व्यक्ति के लिए बातचीत आसान मसला नहीं है। सवाल है कि एक व्यक्ति अंतर्मुखी बनता कैसे है! बातचीत को श्रेष्ठ बनाने के उद्देश्य से बालपन से ही स्कूलों में कविता पाठ, वाद-विवाद, लेखन, पाठ जैसी प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती रही हैं। व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में तो इसके लिए विशेष कक्षाएं भी लगाई जाती हैं।

संकोच को किनारे रखकर करना चाहिए संवाद

यानी बिना किसी लाग-लपेट के यह कहना अनुचित नहीं है कि हम सभी को अपने-अपने स्तर पर इस कला को विकसित करना चाहिए। इसमें सबसे जरूरी है, अपने संकोच को किनारे रखना, क्योंकि इसके बिना न तो संवाद की राह तैयार होगी और न ही इसके जरिए जीवन का विस्तार होगा। आज भी ग्रामीण इलाकों में ऐसी महिलाएं जरूर मिल जाती हैं जो अन्य महिलाओं के बीच आपसी मसलों को बातचीत से सुलझाना जानती है। हालांकि उन्होंने किसी प्रबंधन संस्थान से न तो कोई डिग्री ली होती है और न ही कहीं से कोई प्रशिक्षण लिया होता है, लेकिन उनका आत्मविश्वास, बोलने की कला और दिमाग की स्थिरता उन्हें मसलों को सुलझाने तक लेकर जाती है।

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बड़े-बड़े प्रबंधन संस्थानों ने ऐसी व्यवस्था की है और इसी के तहत चलते हैं कि जो बच्चे उनके यहां पढ़ें, वे इतने पारंगत हो जाएं कि किसी भी तरह की समस्या, समझौता या अन्य किसी व्यावसायिक उद्देश्य को पाने के लिए बातचीत की कला में माहिर हो जाएं। बातचीत की कला में सबसे जरूरी चीज यह है कि शुरूआत कैसे हो? यह शुरूआत हमारे सामाजिक जीवन से ही जुड़ी होती है। बच्चों को समझने से अलग किसी कोने में खड़ा या फिर आसपास के माहौल से कटा हुआ रखना ही पहली गलती होती है। सच यह है कि वे जितना समाज से जुड़ेंगे, उनकी इस कला को उतना ही निखार मिलेगा।

अलग-अलग विचारधाराओं के बीच होना चाहिए संवाद

समाज हमें अलग-अलग विचारधारा, लोगों और ज्ञान से अवगत कराता है। बातचीत को उत्कृष्ट बनाने में समाज का महत्त्वपूर्ण योगदान है। दूसरी चीज है- पारिवारिक रिश्ते। अकेलापन व्यक्ति को और अंतर्मुखी बनाता है। इसलिए अकेलेपन को दूर करने के हर उपाय करना चाहिए और परिवार के नजदीक रहना चाहिए। माता-पिता को चाहिए कि वे कई बार नाहक की हद तक अपने व्यस्त जीवन से कुछ पल निकालकर बच्चों को दें, ताकि उनकी भी चिंताओं और कुंठाओं का निराकरण हो। सच यह है कि माता-पिता अनपढ़ ही क्यों न हो, उनके साथ का वार्तालाप और जीवन के उनके अनुभव को बातचीत की कला में शामिल करना बड़ा अद्भुत अनुभव होता है। यह ऐसा तीर है जो कभी भी खाली नहीं जाता।

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इसके अलावा, चाहे लड़का हो या लड़की, मित्रता हमें एक-दूसरे के करीब लेकर आती है। मगर इसके साथ ही मित्र के गुण और अवगुण दोनों को भी साथ लाती है। सामाजिक दायरा बढ़ाना अच्छी बात है, लेकिन ऐसे मित्र बनाने की जरूरत है, जो हमारे गुणों को बढ़ाने का काम करें, न कि घटाने का। जब हम किसी से मित्रता करते हैं तो हमें रोज एक नया अध्याय सीखने को मिलता है। मित्रता में गुणों को सीखना चाहिए। साथ ही मित्र के साथ संवाद का कौशल बढ़ाने की कोशिश लगातार करना चाहिए, क्योंकि एक मित्र से ही हम खुलकर अपने भीतर उमड़-घुमड़ रही बातें बिल्कुल सहजता से कर सकते हैं। अर्थ यह है कि मित्रता बातचीत के कौशल को बढ़ाने का एक महत्त्वपूर्ण साधन है।

पाठ्यक्रमों को ठीक करने की जरूरत

एक और बात है कि स्कूली शिक्षा ही नहीं, बल्कि कालेज और विश्वविद्यालय के स्तर पर भी लगातार अध्यापकों के सहयोग से पाठ्यक्रमों को इस तरह से निर्धारित किए जाने की जरूरत है कि विद्यार्थियों को बातचीत का अवसर मिलता रहे। याद रखने की जरूरत है कि जीवन में वही सफल होते हैं जो बातचीत के माध्यम से काम निकालना जानते हैं। एक देसी कहावत याद आती है कि बोलने वाले के ही बेर बिकते हैं। मगर सच यह है कि बोलना काफी नहीं होता है, क्योंकि इस जगह कितना बोलना है और कैसे अपनी बात को रखना है, इसका सामंजस्य बिठाना अपने आप में एक दुष्कर कार्य है। यों यह इतना भी कठिन नहीं है कि हम इसे सीख न पाएं।

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अगर हम अपने सामाजिक दायरे को सीमित न रखें, और कुछ नहीं तो अपने कार्यस्थल, शैक्षणिक स्थल और मित्र समुदाय में ही वार्तालाप करें, संवाद की डोर को मजबूत करने की कोशिश निरंतर करें, तो यह काफी हद तक हमें प्रशिक्षित कर सकता है। आज के इस भाग-दौड़ के जीवन में अगर कोई हमसे थोड़ी-सी भी बातचीत कर ले, तो यह काफी है। तात्पर्य यह है कि अपने-आप को संवाद की कला में पारंगत बनाकर अपने जीवन को नई रंगत दिया जाना चाहिए।