बदलते मौसमी चक्कर का जो परिदृश्य इन दिनों देखने को मिल रहा है, वह भयावह और भयभीत करने वाला है। असल में यह एक प्राकृतिक चेतावनी है कि अगर अब भी हमने अपनी इस धरती को बचाने के लिए कुछ नहीं सोचा तो फिर जल, जीवन, जंगल और पहाड़ तथा मानवीय सभ्यता लंबे समय तक सुरक्षित नहीं रह पाएगी। आज समूचे विश्व को पर्यावरणीय समस्याओं ने अपनी चपेट में ले लिया है और पर्यावरण के नाम पर जिन रासायनिक गैसों का कुप्रबंधन और कबाड़ से भरे हुए हमारे घर से लेकर मैदान और दूषित पानी वाली हमारी पवित्र नदियां, धरती से दोहन किया जाने वाला पानी, हमारे देश में ही नहीं, पूरी दुनिया में ‘डार्क जोन’ की डरावनी तस्वीर को दिखा रहा है। अब लगने लगा है कि आने वाले दिनों में अगर हमने धरती और हवा को लेकर अपनी चेतना को नहीं जगाया तो वह दिन दूर नहीं, जब हम पानी और हवा के लिए तरस जाएंगे।
इन दिनों परमाणु विस्फोटकों से भरी हुई धरती और विज्ञान की नई तकनीकी और गैस उत्सर्जन के नए मुकाम क्या दिखा रहे हैं? हमारे यहां स्थिति और भी भयावह है, जहां जागरूकता और जमीन हकीकत चौंकाने वाली है। तमाम सभ्यताओं में पानी, हवा, पहाड़, वातावरण की शुद्धता का जितना खयाल रखा गया है, उतना ही जीव-जंतुओं के संरक्षण की कथाओं से हमारी विरासत के पन्ने भरे हुए हैं। मगर पिछली एक शताब्दी में, विशेष कर पिछले दो दशकों में जिस तरह से ई-कचरे से लेकर गंदगी के अंबार और कचरे के कबाड़ से हमारी धरती को दूषित किया गया है, यह एक बड़ी समस्या है।
जिस तरह से हमने समुद्र, नदियां, जल और घर-परिवार, अपने सामुदायिक और सार्वजनिक स्थान को प्रबंधन के कारण कचरा स्थानों में कर रखे हैं। जिस तरह से हमने अपने जल, जंगल, जीवन और अन्य संसाधनों का दोहन किया है, उससे लगता है कि हम जंगल को खत्म करने पर तुले हुए हैं। गौरतलब है कि दुनिया के मध्य-पूर्व में दुबई जैसे शहरों में अब बरसात की वजह से बाढ़ आने लगी है और हमारे यहां सूखा रेगिस्तान बढ़ता जा रहा है।
दरअसल, उत्तर भारत का दोआब का इलाका जिस तरह से रेगिस्तान में बदल रहा है, वह इंसान और जमीन के लिए जिस तरह की विविधताओं की खोजबीन और विनाश का कारण मनुष्य के लापरवाह होने के कारण बना है, वह देखने लायक है। पूरे देश में जिस तरह का विकास का माडल चल रहा है, वह आवश्यक हो सकता है और उसकी जरूरत भी है, पर उसके साथ हमारे कंक्रीट के जंगल हमारे पहाड़ों में खुदाई और संसाधनों का दोहन कर इतिहास के पन्नों को नष्ट किया जा रहा है।
क्या हम कभी जागरूक हो पाएंगे? पर्यावरण की समस्याओं के बारे में संयुक्त राष्ट्र की चेतावनियों का असर कितना होता है? इधर दक्षिण अफ्रीका जैसा देश ‘डार्क जोन’ में चला गया है। अफ्रीकी देशों से लेकर दक्षिण एशियाई देशों तक में पानी की ‘राशनिंग’ शुरू हो रही है। भारत में भी वह दिन दूर नहीं है, जब पानी की ‘राशनिंग’ शुरू हो जाएगी। उत्तर भारत जैसे हरे-भरे और सब्ज इलाके में पानी का संकट खड़ा हो रहा है। हमारे पहाड़ जिस तरह से वृक्षों की अवैध कटाई और गलत प्रबंधन की सच्चाई और यथार्थ के कारण अग्नि के भेंट चढ़ रहे हैं, वह भी एक चेतावनी है कि हम अपनी धरोहर को किस तरह से बचाएंगे।
हर साल पराली पर हल्ला होता है, रेल बंद होती है, धरने होते हैं, पर जमीनी हकीकत क्या है। हमने कीटनाशकों और आधुनिक खादों से जिस तरह अपनी धरती को नष्ट किया है, वह हमें क्या दिखाता है? ऐसा लगता है कि हम दुनिया के उन राष्ट्रों में शामिल हो गए हैं जो अपने जीने की संभावनाओं की अवहेलना कर रहे हैं।
इन दिनों हमारे गांव सूने हो रहे हैं। पर्यावरणीय समस्याएं और उस तरह के संकट बढ़ रहे हैं, वहीं गांवों-कस्बों में खत्म होते पेड़, कम होते जंगल क्या कह रहे हैं। गंगोत्री से लेकर हिमालय तक हिमनद खत्म हो रहे हैं। नदियों में कटाव हो रहा है, पर किसी को किसी की कोई परवाह नहीं। अगर यह ऐसे ही चला रहा तो फिर धरती की गर्मी, सूर्य की धूप और तापमान कहीं भी पहुंचा दे सकती है। पानी के स्रोत और आक्सीजन देने वाली ताजा हवा के स्रोत और सांस लेने वाले पेड़-पौधे धीरे-धीरे खत्म हो जाएं तो फिर जीवन का क्या होगा, क्या कभी हमने सोचा है?
कहने को हम हर वर्ष पर्यावरण दिवस मना लेंगे, मगर इसके बाद हमें इस बारे में सोचने के लिए वक्त नहीं मिलेग। फिलहाल हम सब इस स्थिति में हैं, जब इस पर सोच सकते हैं। जीवन बार-बार नहीं मिलता। यह संस्कृति, यह धरती, यह विरासत हम सबकी है और इसे बचा कर रखना हम सबका दायित्व है। अब भी नहीं संभले तो फिर परमाणु कचरे से लेकर रासायनिक अपशिष्ट आदि सामग्री समुद्र से लेकर धरती के सारे जीवन को खत्म कर देगी। फिर आदमी की नस्ल कहां बचेगी? पर्यावरण बचाने का संदेश यही है कि हम जीने के लिए अपने वातावरण की स्वच्छता और खुशबू को जिंदा रखें। इसी में जिंदगी की लय और सौंदर्य है, जिसे आदमी जीना चाहता है और अपने भविष्य के लिए, आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखना चाहता है। कहते हैं कि पेड़ों की छांव में ही जन्नत होती है और मां जैसी घनी छांव में एक अपनापन होता है। यह धरती स्वर्ग हो सकती है, अगर हम पर्यावरणीय मुद्दों को अपने देवता की तरह बना लें!