जिंदगी में ऐसे अनेक मोड़ आते हैं, जब हम सामान्य अवस्था में नहीं रह पाते, असहज हो जाते हैं। यह स्थिति प्रतिकूल या फिर अनुकूल, दोनों ही अवस्थाओं में हमारी मानसिकता पर गहरा प्रभाव डालती है। इसके अतिरिक्त इसका शारीरिक प्रभाव भी पड़े बिना नहीं रहता। यही नहीं, प्रसन्नता या अवसाद का अतिरेक हमारे सामान्य विवेक को भी हर लेता है। आमतौर पर ऐसी स्थिति अपेक्षा के विपरीत कुछ हो जाने या घट जाने पर निर्मित हुआ करती है। यों भी अपेक्षा को दुख के कारण के रूप में निरूपित किया गया है। यह कोई जरूरी नहीं है कि सब कुछ हमारी अपनी धारणा के अनुरूप ही हो।

हर किसी का वैचारिक स्तर एक समान नहीं होता। और तो और, सोचने और समझने की दृष्टि भी सबकी अपनी अलग-अलग हो सकती है। इसके चलते न तो कोई व्यक्ति सर्वमान्य हो पाता है और न ही कोई विचार। वास्तव में व्यक्तिगत और वैचारिक स्तर पर जनसाधारण की समान मानसिकता का विस्तार कहीं से कहीं तक संभव नहीं होता। ऐसी स्थिति में अगर अपने आपको सामने वाले के स्थान पर रखकर देखा जाए, तो बहुत स्वाभाविक है कि हम किसी न किसी एक सही निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं। अनावश्यक रूप से अहं की लड़ाई के चलते हम अपनी मानसिक और शारीरिक क्षमता का लाभ नहीं ले पाते।

दुनिया भर के तमाम विवादों का मूल कारण किसी एक पक्ष की एकतरफा सोच ही होती है, जिसके चलते समाधान के अभाव में न्यायपालिका का दरवाजा खटखटाया जाता है। लगातार तमाम तरह के बढ़ते विवादों के चलते न्याय की अपेक्षा करने वालों की कतार इतनी लंबी हो गई है कि अंतिम न्याय पाने की कोशिश में जिंदगी का एक बड़ा भाग जाया हो जाता है। कभी-कभी तो व्यवस्थित रूप से जोड़-घटाव करने के बाद भी हासिल कुछ नहीं बचता। या कभी बचता भी है, तो लगभग न के बराबर। बात सिर्फ आर्थिक ही नहीं है, बल्कि लंबी प्रतीक्षा और मानसिक संताप का भी अगर आर्थिक दृष्टि से मूल्यांकन करें, तो चौंकाने वाले परिणाम हमारे सामने होंगे।

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हालांकि जमाने में सब कुछ निर्विवाद नहीं हो सकता। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि उभय पक्ष अपनी-अपनी जगह लगभग सही हो। ऐसी स्थिति में जब समाधान की कोई सूरत ही नजर नहीं आती हो, तब न्यायपालिका का सहारा लिया जाए, लेकिन व्यवहार में देखा गया है कि कभी-कभी किसी मामले को लंबे समय तक टालने की दृष्टि से भी न्यायपालिका का सहारा लिया जाने लगा है। यही कारण है कि देश भर की तमाम अदालतों में मुकदमों की भरमार नजर आती है। ऐसी स्थिति में जिनके लिए वास्तव में न्याय अपेक्षित होता है, उन्हें भी लंबी कतार में लगने को बाध्य होना पड़ता है और यही वजह है कि न्याय पाने की प्रक्रिया समय और धन साध्य हो जाती है।

ऐसे में सबके लिए यह अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि हम सुलह का रास्ता अख्तियार करने की दिशा में गंभीरता का परिचय दें। यों भी, न्यायपालिका की मध्यस्थता मे अनेक तरह के मामलों का लोक अदालत द्वारा पटाक्षेप करने का प्रयास किया जाता रहा है, जिसमें दोनों पक्ष के अभिभाषक वर्ग की अत्यंत सराहनीय भूमिका निकल कर आती रही है। समय की मांग के अनुरूप यह सिलसिला अनवरत रूप से चलते रहना चाहिए। इससे कुल मिलाकर देश में उपलब्ध शारीरिक और मानसिक श्रम शक्ति का और भी समुचित दोहन होने का मार्ग प्रशस्त हो सकेगा, क्योंकि देश की ऊर्जा और चेतना का एक बड़ा भाग न्याय की अपेक्षा में खोया-खोया नजर आता है।

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दरअसल, त्वरित न्याय के लिए देश में ऐसा वातावरण बनाया जाना जरूरी है कि अव्वल तो विवाद हो ही नहीं, और हो तो भी सीमित मात्रा में। इसके लिए हर एक आदमी को एकतरफा सोच की स्थिति से उबरना होगा। इस दिशा में सामाजिक प्रभाव और दबाव भी कारगर हो सकता है। इसके अतिरिक्त, न्यायपालिका और अभिभाषक वर्ग की भूमिका भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण होगी। हालांकि न्यायपालिका और अभिभाषक वर्ग का हर संभव प्रयास त्वरित न्याय की दिशा में ही होता है, लेकिन मुकदमों की बहुतायत के चलते इसका प्रत्यक्ष परिणाम कहीं दिखाई नहीं देता। इसका नतीजा होता है कि तारीख पर तारीख और तारीख पर तारीख ही मिलती चली जाती है। इसके चलते विलंबित न्याय, अन्याय के प्रतिरूप में ही दिखाई देने लगता है।

बहरहाल, मुद्दे की बात यह कि इन तमाम स्थितियों को मद्देनजर रखते हुए अगर एकतरफा विचार के बजाय निष्पक्ष और तटस्थ दृष्टि से किसी मामले का आकलन किया जाए, तो सहज रूप से अदालत से परे मामले का समाधान संभव हो सकता है। इस दिशा में सामाजिक नेतृत्व अपने समाज में ऐसा वातावरण निर्मित कर सकता है कि विभिन्न समाजों के बीच एक संतुलन का वातावरण निर्मित हो सके।

जाहिर है कि जब इस प्रक्रिया का विस्तार होने लगेगा, सारा का सारा सामाजिक परिवेश ही शांति का पुजारी बन जाएगा। अन्यथा हालात ऐसे ही रहे, तो दिनोंदिन बढ़ती मुकदमों की संख्या न्याय को और भी अधिक समय और धन साध्य बनाकर रख देगी। इस वजह से सामाजिक सद्भाव पर तो विपरीत असर पड़ेगा ही, कानून और व्यवस्था के समक्ष भी गंभीर चुनौती उपस्थित हो सकती है। यों भी अधिकतर धन संपत्ति और अपराध के मामले विचाराधीन रहा करते हैं। ऐसे में धन संपत्ति के मामले में आपराधिक वर्ग के हस्तक्षेप को पूरी तरह से नहीं रोका जा सकेगा। यह स्थिति आम नागरिकों के सामान्य जनजीवन पर भारी भी पड़ सकती है। इसलिए यह जरूरी है कि हर कोई अपनी एकतरफा सोच-विचार का परित्याग करके चले।