नए की ओर खिंच जाना मनुष्य का सहज स्वभाव होता है। यों मानव मन की बुनावट बहुत जटिल है, मगर इसका एक आम कारण यह है कि व्यक्ति के लिए अपने सामने का कुछ नया सुंदर और आकर्षित करने वाला होता है। अगर कुछ नया आता है तो जीवन में हमेशा कुछ बदलाव लेकर आता है, जिसमें कुछ उम्मीद, रस, सौंदर्य और सृजन होता है। बल्कि सच यह है कि अपने पुराने यानी अब तक अर्जित जीवन के साथ जीते हुए भी नए की कल्पना मात्र ही हमें रोमांच से भर देती है। इसी क्रम में देखें तो अब हर बार नए वर्ष को लेकर समूची दुनिया में पैदा होने वाली उत्सुकता और उत्सव भी दरअसल नए के प्रति घोर आकर्षण का परिणाम है।
देखा जाए तो हमारा संपूर्ण जीवन ही पुरातन में नूतन की तलाश है। हम हर रोज अपने काम, दिनचर्या, क्रियाकलाप में कुछ नया चाहते हैं। लोग नई-नई जगहों की यात्रा करते हैं। नए शौक पालते हैं। कलाकार अपनी हर आने वाली कलात्मक कृति में कुछ नया जोड़ना चाहता है। लेखक कामयाब होने के लिए कुछ नया लिखता है। प्रकाशक कुछ नया छापता है। एक खिलाड़ी नए रेकार्ड बनाता है। रेस्तरां नए-नए व्यंजन बनाने के तरीकों से ग्राहकों को आकर्षित करते हैं। लोग आनंद की नई परिभाषाएं तलाशते हैं। इस तरह नए की महिमा हर समय बरकरार रहती है। यही महिमा इस बार दिखी, हर बार के नववर्ष उत्सव में भी दिखती है।
अब प्रश्न उठता है कि हर दिन वही गतिविधियां करते हुए नए की तलाश कैसे की जाए। असल में हमारा हर दिवस नया दिवस होता है, जिसे बरतने के लिए हमें प्रतिदिन नई ऊर्जा की दरकार होती है। हम अपने रोज के काम करते हुए भी आशा की नई कोंपलों से प्रस्फुटित होते रहते हैं। नया चाव हमसे पुराना काम करवाता है। हमारा जीवन नए और पुराने की सुलभ-संधियों से बना हुआ है। अपने वर्षों पुराने जीवन में हम नित नई यात्रा करते हैं। रोज उसी दुर्गम पहाड़ पर चढ़ते हैं और रोज नए कटु या फिर सुखद अनुभवों से निखरते हैं। हमारी जीवनचर्या एक तरह की होती है, मगर उसमें हर रोज कुछ नया घटित होता रहता है। यह नवीनता ही हमें जीवित रखती है। हमारे भीतर की जिजीविषा को बनाए रखती है। हमें नीरसता से बचाती है। वर्तमान को भूत से अलग करती है।
नई आभा बिखेरती है। नए बिंदुओं से हमारा परिचय करवाती है। दरअसल, यह प्राकृतिक चक्र है, जो बिना किसी दबाव के बस आगे बढ़ती चली जाती है। हम चाहें भी रोकना तो कई बार खुद को नया होने से नहीं रोक पाते। एक समय का अपना नया हमें खुद ही पुराना लगने लगता है। यह क्यों होता है, इस पर विचार करना हमारे दायरे में है। मगर इसे रोकना..?
नवीनता हमेशा हमें काम करने की प्रेरणा देती है। नवीनता एक ऐसी क्रिया है, जिसका प्रभाव कभी कम नहीं होता। नई-नई कितनी भी चीजें आ जाएं, मगर कुछ और नए की संभावना कभी खत्म नहीं होती। इतनी सुख सुविधाएं और तकनीक की तरक्की के बावजूद हर दिन कुछ नया घटित हो रहा है। हर दिन कुछ नया आ रहा है। कुछ ऐसा, जिसकी हमने पहले कल्पना भी नहीं की होती है। कई बार हम इस नई तकनीक में बदलाव से चौंक जाते हैं। मगर फिर सहज होकर उसे अपनाते हैं। उसकी प्रशंसा करते हैं और आखिरकार उसी में ढल जाते हैं। इस तरह नवीनीकरण की यात्रा अनवरत चलती रहती है।
समय-समय पर समस्त सृष्टि नव्यता को अंगीकार करती है। कुछ चीजें घटित होते हुए हमें प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देती हैं, मगर कुछ अप्रत्यक्ष होती हैं। वे भले न दिखें, मगर होती हैं। हम मनुष्यों को भी सृष्टि के इस नियम का पालन करना होता है। लेकिन कई बार कुछ नया सोचने और उसके बाद गुंजाइश बना कर उस पर अमल करने में हमें घबराहट महसूस होती है। हम अप्रत्याशित होने के भय से भयभीत हो जाते हैं। जो नया हमारे लिए बेहतरी का सबब हो सकता है, उसे भी अपनाने में हमारे हाथ पांव फूल जाते हैं। दरअसल, हम नई चीजों के प्रति तो तुरंत आकर्षित हो जाते हैं, लेकिन नए विचार, सोच, बर्ताव, जगह, दिनचर्या आदि को अपनाने में हिचकिचाते हैं।
नई चेतना को धारण करना और वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसकी उपयोगिता को समझना हमारे लिए काफी मुश्किल हो जाता है। किसी चीज को लेकर अभ्यस्त और आदती हो जाना भी एक तरह की जड़ता को पैदा करता है, जिसमें नए को लेकर एक परोक्ष भय काम करता रहता है। इसका कारण यह है कि हमें विचारों और स्थानों से इतना मोह हो जाता है कि उन्हें खींचकर बाहर निकालना हमें कष्ट पहुंचाता है। लेकिन नूतन को अंगीकार करने के लिए पुरातन को त्यागना ही पड़ता है। यही प्रकृति का शाश्वत नियम है।
नया गतिशील होने का सूचक है और गतिशीलता हमारी प्रगति का। इसलिए जीवन के उत्सव को बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि नए का वरण किया जाए। तो वक्त के मुताबिक, नएपन के अर्थों को समझने, उसके भावों को अंगीकार करने के संकल्प के साथ नए का स्वागत करने की जरूरत है, जिसमें दूरदर्शी सार्थकता हो।