एक बार रेतीले धोरों में हवा ने बहना शुरू किया। धोरों ने हवा का स्वागत किया। हवा की कल्पना रेत पर उभरने लगी। हवा और रेत गले मिलते रहे। कुछ जुगलबंदी होती रही। देखते ही देखते रेत का आंचल जीवंत होने लगा। उसकी सतह पर कुछ आकृतियां बनने लगीं। अपने अपने ऊंट लेकर आते-जाते ग्रामीण उन रेतीले नमूनों को देखकर हर्ष से भर उठे। रेत ने अपने एक अलग ही रूप में उनको खुशी और हंसी दे दी थी। यह कुदरत की रचनात्मकता है। इसे रेत और हवा, दोनों ने ही अपनी सामंजस्यपूर्ण उमंग के परिणामस्वरूप पाया था। आनंद में आकंठ डूबी हुई रेत का कण कण आते-जाते लोगों की तारीफ को सुन रहा था।
आज के तकनीकी युग में हर किसी को प्रकृति के अनुपम सान्निध्य में रहकर सृजनात्मक और रचनात्मक होने की ललक है। ललित कलाओं की छाया में रहकर लोग किसी न किसी तरह रचनात्मक होना चाहते हैं। मशीनी युग ने ऐसी उदासी रची है कि रचनात्मक होना अब एक अनिवार्यता की तरह लगने लगा है। एक चिड़िया को चहचहाते और घोंसला बुनते हुए आज से पहले कितनी ही पीढ़ियों ने देखा था। मगर आज इसे देखने के लिए बाकायदा एक योजना बनाई जाती है। समूह में लोग एकत्रित होते हैं और इन सब अनोखी रचनात्मक क्रियाओं को देखकर उसका रसास्वादन कर आनंद से भर जाते हैं। इन दिनों जीवन शैली के कारण अचानक पैदा होने वाली उदासी, घबराहट, बेचैनी, अवसाद, नकारात्मक भावनाओं आदि को मिटाने में यह उपाय बहुत कारगर हो रहा है।
शहर से गांव जाने को लेकर लोगों में उत्सुकता
आजकल ऐसी खबरों से भी हम हर रोज रूबरू हो रहे हैं कि कुछ लोग गांव जाने लगे हैं। कुछ दिन वहां माटी और घास के बीच अपना भोजन खुद पकाते हैं। कुछ नया सीखते हैं और खुशी से फिर तरोताजा होकर और ऊर्जा से भर कर लौटते हैं। कुछ लोगों ने विश्व भर में ऐसे शानदार समूह बना लिए हैं जो अपने हर अवकाश और बचत का उपयोग केवल पंछियों से संबंधित कामों में लगा रहे हैं। चाहे वह परिंदे खुद तैयार कर वितरित करना हो, चाहे पंछियों के लिए झाड़ीदार वनस्पति उगाने और विकसित करने का काम हो या फिर मोबाइल टावर के विरोध में जन जागृति हो। क्लब में जाकर वक्त गुजारना, पार्टी, शोर-शराबा, कृत्रिम चकाचौंध, जलसे आदि से वे लोग मुंह मोड़ चुके हैं। उनके मुताबिक, इससे कुदरती प्रेम ठप हो रहा था। आखिरकार बेचैनी ही बढ़ रही थी। मगर अब उनका मानना है कि उन सबको कुदरती सृजनात्मकता के लिए ही समर्पित रहना है। कहा जा सकता है कि उन लोगों ने अपने खोखले वजूद को टटोलने के बाद खुद को निखारना और जीना सीख लिया है।
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ऐसा जुनून और चाव इसलिए पैदा हो रहा है कि तकनीक की भरमार ने इस प्राकृतिक सृजनात्मकता के लिए लगाव पैदा कर दिया है। इसीलिए आज मशीनीपन से दूर होने के लिए लोग सृजनात्मक होने की सतत कोशिश में लगे हुए हैं।
कई लोग बगीचे में जाकर घंटों बागबान को देखते रहते हैं कि वह कैसे बीज रोपता है, फूलों को प्यार देता है, यह देखना-समझना और उस पर विस्मित होना प्रकृति में गहरे उतरना है। इस दौरान तितली, भंवरे, मधुमक्खी, गिलहरियां और उनका व्यवहार समझ में आने लगता है। ऐसा सुख उनको भरपूर सुख-सुविधा, मोटरगाड़ी, वातानुकूलन मशीन, भारी भरकम गैजेट भी नहीं दे पा रहे हैं।
मनुष्य के भीतर होता है रचनात्मक
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि रचनात्मक होना हमारे भीतर हमेशा ही रहता है, बस उसके सामने का दरवाजा जो होता है, वह बंद रहता है। इसलिए उसके मुखर होने की संभावना कम होती जाती है। जो मनुष्य यह समझ जाता है कि भौतिक सुख सुविधाओं में खोकर उसने सुख की असली चाबी कहीं और ही सौंप दी थी, तब यही स्थिति बिल्कुल बदल जाती है। हर सांस के पास है सृजनात्मकता का अथाह सूत्र। मगर मशीनों के जाल में फंसकर पता ही नहीं चलता कि सांस ने क्या संकेत दिया है। कौन-सा इशारा किया है। बेकार और फिजूल की बाहरी चीजों में फंसा हुआ आदमी मन की आंखें और मन के कान खोल नहीं पाता है। आसमान के गहरे काले बादल तक झकझोर कर बता रहे होते हैं कि समंदर ने एकाग्र होकर यह अमृत हमको दिया है, जिसे वसुंधरा को सौंपने के लिए हम मौसम के साथ मेल बना रहे हैं। बादल को न हवाई जहाज, न कोई मोबाइल टावर, न कोई गगनचुंबी इमारत ललचा पाती है। इन सब कृत्रिम चीजों से बेपरवाह वह धरती से गुंथ जाने को बेताब रहता है। यह उसकी मौलिक रचनात्मकता है। इस रचनात्मकता से धरती पर जीवन का सृजन होता है। यह अगर सूत्र की तरह समझ लिया जाए तो बहुत काम का साबित होता है।
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इसमें कोई दो राय नहीं कि इस जीवन को बहुत तामझाम नहीं चाहिए। एक हरे-भरे पौधे का सामीप्य, एक छोटी-सी बेल खिड़की से नजर आती हुई… बादलों का छा जाना और बरसात लेकर आना..! यानी कुदरत का एक छोटा-सा कण भी संतोष और सुख ही छलकाता है। यहीं से मन में दबी-छिपी रचनात्मकता प्रखर होकर सामने आती है।
अगर हम तरीके से किसी भी महापुरुष की जीवनी को खंगाल कर देखेंगे तो यही पाएंगे कि जब-जब वह अपने संघर्ष के साथ उलझ रहे थे, तब हर असमंजस, हर दुविधा से बाहर आने में सृजनात्मकता ही दवा और चिकित्सक बनी। रचनात्मक होकर जीना सीख लेने में कुदरत ने ही सच्ची मदद की थी। हममें से हरेक के पास अद्भुत कल्पना है। कंठ में सुर हैं। हाथों में कुदरत को संवारने और निखारने का हुनर है। हम सब रचनात्मकता से दोस्ती कर लें तो हमारा यह संसार युद्ध से भी बच सकता है।