जब भी न्यायिक सुधार की बात उठती है, सरकार हर बार दोहरा देती है कि वह इस दिशा में हर संभव सहयोग देगी। लेकिन जजों की संख्या बढ़ाने सहित न्यायिक ढांचे के विस्तार में कार्यपालिका से जो अपेक्षा की जाती है, उसका व्यवहार वैसा नहीं रहा है। यह बात विभिन्न न्यायाधिकरणों के संदर्भ में भी लागू होती है। देश में इन संस्थाओं की शुरुआत संसद की पहल पर गठित की गई एक समिति की सिफारिशों के आधार पर की गई थी। समय के साथ इनकी संख्या बढ़ती गई है। ये पंचाट कई तरह के हैं। कुछ प्रशासनिक ढांचे का हिस्सा हैं और शिकायतों पर विभागीय कार्रवाई की तरह काम करते हैं। जबकि अधिकतर न्यायाधिकरण न्यायिक या अर्ध-न्यायिक प्रकृति के हैं और कर-विवाद, उपभोक्ता-शिकायतों, कर्मचारियों की पदोन्नति, निलंबन, बर्खास्तगी जैसे प्रशासनिक मामलों से लेकर पर्यावरण संरक्षण तक ढेर सारे मसलों पर सुनवाई करते हैं। सामान्य अदालतों से मोटे तौर पर इनका फर्क यह है कि ये कुछ विशेष कानूनों का पालन न होने की शिकायतें सुनते हैं। अलबत्ता हरित पंचाट ने कानूनों के उल्लंघन की शिकायतें सुनने के अलावा पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं पर अपनी तरफ से भी कई बार हस्तक्षेप किया है।

बहरहाल, तमाम न्यायाधिकरणों की हालत यह है कि उनके रिक्त पद समय से नहीं भरे जाते, जिससे वे अपनी पूरी क्षमता से काम नहीं कर पाते हैं। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही सरकार को खरी-खोटी सुनाई है। बुधवार को अदालत ने सरकार से पूछा कि न्यायाधिकरणों के प्रमुख के तौर पर सेवानिवृत्त जजों की नियुक्ति करने में विलंब क्यों हो रहा है? सरकार इसका कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे सकी। ऐसे अनेक न्यायाधिकरण हैं जिनके प्रमुख का पद खाली होने के एक साल बाद भी नई नियुक्ति नहीं हो पाई है। इसी तरह कई सदस्यों की जगह भी काफी समय तक खाली रहती है। इसका नतीजा यह होता है कि लंबित अपीलों की तादाद बढ़ती जाती है, जिसका खमियाजा अपीलकर्ताओं को भुगतना पड़ता है। दूसरे, नियुक्ति में देरी की वजह से उपयुक्त पात्र की तलाश भी मुश्किल हो जाती है, क्योंकि सेवानिवृत्त जज पूर्ण अवकाश के अभ्यस्त हो जाते हैं या किसी और जिम्मेदारी से बंध जाते हैं। फिर प्रस्ताव मिलता भी है तो वे मना कर देते हैं। विचित्र है कि एक फिल्म को मंजूरी दिलाने के लिए पूरे सेंसर बोर्ड की अनदेखी कर दी गई, और दूसरी तरफ, सरकार को इस बात की कोई फिक्र ही नहीं है कि तमाम न्यायाधिकरणों के खाली पद समय से भरे जाएं।

यही हाल सूचना आयोगों का भी है, जहां सूचनाधिकार से संबंधित अपीलों का अंबार लगता जा रहा है। नियुक्ति में बेजा देरी के अलावा, सर्वोच्च अदालत ने एक और अहम मसले पर सरकार से जवाब तलब किया है, जो कंपनी कानून से संबंधित है। इस नए कानून में संबद्ध न्यायाधिकरण के अध्यक्ष समेत सदस्यों को हटाने का अधिकार सरकार ने खुद को दे दिया है। अदालत ने पूछा है कि न्यायिक प्रकृति की इस संस्था के पदाधिकारियों को, जो अमूमन सेवानिवृत्त जज होते हैं, प्रशासनिक आदेश से कैसे निलंबित या बर्खास्त किया जा सकता है? इस सवाल का भी कोई माकूल जवाब सरकार नहीं दे सकी है। इस मामले में, यानी राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण में संशोधन की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को सर्वोच्च अदालत ने संवैधानिक पीठ के हवाले कर दिया है। पिछले साल संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण के जरिए मोदी सरकार ने भरोसा दिलाया था कि वह संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा का खयाल रखेगी। मगर न्यायाधिकरणों के मामले में उसका रवैया इस आश्वासन के अनुरूप नहीं है।

 

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