रखवालों की रखवाली कौन करेगा? रोमन कवि जुवेनाल की यह पंक्ति मौजूदा भारतीय परिदृश्य में अपनी अमरता का परचम लहरा रही है। विधायिका बनाम न्यायपालिका के सवाल को लेकर इस समय भारतीय राजनीति के केंद्र में निशिकांत दुबे हैं। दुबे प्रधान न्यायाधीश से लेकर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त तक पर तल्ख टिप्पणियां कर चुके हैं। भाजपा ने दुबे की टिप्पणियों से खुद को अलग कर लिया है। यह तो साफ दिख रहा है कि पार्टी का यह आधिकारिक रुख दुबे को अनधिकृत तरीके से पूरा अख्तियार दे रहा है कि आप बोलते रहें। पिछले दिनों संसद में हर अहम मुद्दे पर राजग की ओर से निशिकांत दुबे मुख्य वक्ता की तरह से पेश हुए। दुबे की खासियत रही है कि उनकी आक्रामकता के बाद ऐसा माहौल बनता है कि विपक्ष के हर औजार की धार कुंद हो जाती है। भाजपा की अगुआई वाली राजग सरकार ने संसद में जब भी साहसिक राजनीतिक कदम उठाया है दुबे की दलीलें विपक्ष पर भारी पड़ जाती हैं। तीन तलाक, अनुच्छेद 370 का खात्मा और वक्फ संशोधन विधेयक। राजग सरकार इन साहसी फैसलों पर आगे बढ़ चुकी है। अब न्यायपालिका की दखलंदाजी के मसले पर जब निशिकांत फिर से अशांत हुए हैं तो साफ दिख रहा कि राजग सरकार के न्यायिक व्यवस्था को लेकर अगले साहस भरे फैसले के लिए वे अघोषित सेनापति नियुक्त कर दिए गए हैं। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के बयान के बाद अशांत निशिकांत के नायकत्व के नए अध्याय पर एक निगाह।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा पिछले दिनों विधेयकों को मंजूरी देने के लिए राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए समय सीमा तय करने के फैसले के बाद सख्त टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं और कहा कि देश में ऐसी स्थिति नहीं हो सकती कि आप राष्ट्रपति को निर्देश दें। सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार किसने दिया है और वह किस आधार पर ऐसा कर सकता है? संविधान का अनुच्छेद 142 सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार देता है कि वह पूर्ण न्याय करने के लिए कोई भी आदेश, निर्देश या फैसला दे सकता है चाहे वो किसी भी मामले में क्यों न हो, लेकिन उपराष्ट्रपति ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट सिर्फ संविधान की व्याख्या कर सकता है।
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने पिछले दिनों दिल्ली के वाइस प्रेसिडेंट एंक्लेव में राज्यसभा के प्रशिक्षुओं को संबोधित करते हुए कहा था कि लोकतंत्र में जनता की चुनी हुई सरकार सबसे अहम होती है। हर संस्था को अपनी सीमा में रह कर काम करना चाहिए। कोई भी संस्थान संविधान से ऊपर नहीं है। उन्होंने विधेयकों पर फैसला लेने से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के निर्देश का हवाला देते हुए कहा था, अदालतें राष्ट्रपति को कैसे आदेश दे सकती हैं। संविधान के अनुच्छेद 142 का मतलब यह नहीं होता कि आप राष्ट्रपति को भी आदेश दे सकते हैं।
राष्ट्रपति संविधान की रक्षा, संरक्षण और उसे बचाने की शपथ लेते हैं
उन्होंने कहा, भारत के राष्ट्रपति का पद काफी ऊंचा है। राष्ट्रपति संविधान की रक्षा, संरक्षण और उसे बचाने की शपथ लेते हैं। यह शपथ केवल राष्ट्रपति और राज्यपाल लेते हैं। हाल ही में एक फैसले में राष्ट्रपति को निर्देश दिया गया। आखिर हम कहां जा रहे हैं। देश में हो क्या रहा है? हमें ऐसे मामलों में बेहद संवेदनशील होने की जरूरत है। धनखड़ ने कहा था, तो हमारे पास ऐसे जज हैं जो अब कानून बनाएंगे, कार्यपालिका का काम करेंगे और एक सुपर संसद की तरह भी काम करेंगे और कोई जिम्मेदारी नहीं लेंगे क्योंकि इस देश का कानून उन पर लागू तो होता नहीं।
दरअसल उपराष्ट्रपति की टिप्पणी का आधार तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला था, जिसमें उसने कहा था कि राज्यपाल को विधानसभा की ओर से भेजे गए विधेयक पर एक निर्धारित समय के अंदर फैसला लेना होगा। इस फैसले में अदालत ने राज्यपालों की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए विधयेक पर स्थिति स्पष्ट की थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपालों की ओर से भेजे गए बिल के मामले में राष्ट्रपति के पास पूर्ण या पाकेट वीटो का अधिकार नहीं है। उनके फैसले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है।
दरअसल तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि का द्रमुक की स्टालिन सरकार से विधेयकों को लेकर काफी टकराव रहा है। तमिलनाडु सरकार कई बार राज्यपाल पर विधेयकों को रोकने का आरोप लगा चुकी है। संविधान के अनुच्छेद 145 (3) के तहत न्यायपालिका के पास सिर्फ संविधान की व्याख्या करने का अधिकार है। इसके लिए पांच या इससे ज्यादा जजों की जरूरत होती है।
उपराष्ट्रपति ने कहा था, जिन जजों ने जिस तरह से राष्ट्रपति को आदेश जारी किया वह ऐसा था जैसे यही देश का कानून हो। वे संविधान की ताकतों को भूल गए हैं। अनुच्छेद 145(3) को देखें तो जजों का वह समूह किसी मामले पर ऐसे फैसले कैसे दे सकता है। खास कर तब जब ऐसे मामलों पर विचार के लिए आठ में से पांच जजों की जरूरत होती है। यह अनुच्छेद सुप्रीम कोर्ट को पूर्ण न्याय करने का अधिकार देता है। इसके तहत सुप्रीम कोर्ट किसी भी मामले में पूर्ण न्याय दिलाने के लिए ऐसा फैसला या निर्देश दे सकता है जो पूरे भारत में लागू होगा।
हालांकि ये आदेश कैसे लागू होगा, इसका फैसला संसद में बनाए कानून के जरिए तय होता है। अगर संसद ने अभी तक कोई नियम नहीं बनाया है तो यह राष्ट्रपति को तय करना होता है कि सुप्रीम कोर्ट का निर्देश या फैसला कैसे लागू होगा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने इसी अधिकार का इस्तेमाल करते हुए 30 जनवरी को हुए चंडीगढ़ महापौर चुनाव के नतीजों को पलट दिया था। सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने कहा था कि संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अदालत अपने अधिकार क्षेत्र में पूर्ण न्याय करने के लिए प्रतिबद्ध है। अदालत को यह भी तय करना होता है कि लोकतंत्र की प्रक्रिया में किसी फर्जीवाड़े की वजह से बाधा न आए।
धनखड़ के बयान से पैदा विवाद अभी शांत भी नहीं हुआ था कि भारतीय जनता पार्टी के सांसद निशिकांत दुबे ने कह दिया कि देश में गृह युद्ध भड़काने के लिए सुप्रीम कोर्ट जिम्मेदार है। दुबे ने यह भी कहा कि, इस देश में जितने गृह युद्ध हो रहे हैं, उसके लिए सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना जिम्मेदार हैं। सुप्रीम कोर्ट पर की गई इस टिप्पणी के बाद झारखंड के गोड्डा से भाजपा सांसद निशिकांत दुबे अकेले पड़ते नजर आ रहे हैं। उनकी पार्टी ने भी उनके बयान से दूरी बना ली है। पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा कि पार्टी दुबे के बयान से सहमत नहीं है। अब दुबे के बयान पर कोर्ट में आपराधिक अवमानना का मुकदमा चलाने की मांग हो रही है, वहीं राजनीतिक गलियारों में इस बयान की कड़ी आलोचना हो रही है।
वक्फ कानून से जुड़े एक मामले में याचिकाकर्ता मोहम्मद जावेद के वकील अनस तनवीर ने भारत के महान्यायवादीआर वेंकटरमणी को पत्र लिखकर निशिकांत दुबे के खिलाफ आपराधिक अवमानना का मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी है। यह मामला 21 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति ए जार्ज मसीह की पीठ के सामने पेश किया गया था। पीठ ने इस पर कहा, महान्यायवादी से अनुमति लीजिए। याचिकाकर्ता का कहना है कि निशिकांत दुबे ने प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना की अवमानना की है। इस पर न्यायमूर्ति गवई ने टिप्पणी की, हमारी अनुमति की जरूरत नहीं है।
निशिकांत दुबे, सुप्रीम कोर्ट में चल रहे वक्फ कानून से जुड़े मामलों पर अदालत की टिप्पणियों से नाखुश हैं। सुप्रीम कोर्ट ने वक्फ कानून के खिलाफ चल रही सुनवाई के दौरान, कानून के कई अहम प्रावधानों पर अगली सुनवाई तक रोक लगा दी थी। दरअसल, केंद्र सरकार ने खुद अदालत से कहा था कि अगली सुनवाई होने तक वह इन प्रावधानों को लागू नहीं करेगी।
इसी मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए निशिकांत दुबे ने कहा था, देश में धार्मिक युद्ध भड़काने के लिए सुप्रीम कोर्ट जिम्मेदार है। सुप्रीम कोर्ट अपनी सीमा से बाहर जा रहा है। अगर हर बात के लिए सुप्रीम कोर्ट जाना है, तो संसद और विधानसभा का कोई मतलब नहीं है। इन्हें बंद कर देना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा, इस देश में जितने भी गृह युद्ध हो रहे हैं, उनके जिम्मेदार केवल प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना हैं। प्रधान न्यायाधीश पर इस तीखी टिप्पणी के बाद, निशिकांत दुबे ने पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी पर भी बयान दिया। निशिकांत दुबे ने ‘एक्स’ पर लिखा था, आप चुनाव आयुक्त नहीं, मुसलिम आयुक्त थे। झारखंड के संथाल परगना में बांग्लादेशी घुसपैठियों को वोटर सबसे ज्यादा आपके कार्यकाल में ही बनाया गया।
निशिकांत दुबे के बयानों से भाजपा ने खुद को अलग कर लिया है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा है कि यह उनका निजी बयान है। नड्डा ने कहा, सांसद निशिकांत दुबे और दिनेश शर्मा का न्यायपालिका एवं देश के प्रधान न्यायाधीश पर दिए गए बयान से भारतीय जनता पार्टी का कोई लेना-देना नहीं है। यह इनका व्यक्तिगत बयान है, लेकिन भाजपा ऐसे बयानों से न तो कोई इत्तेफाक रखती है और न ही कभी भी ऐसे बयानों का समर्थन करती है। भाजपा इस बयान को सिरे से खारिज करती है।
किसने क्या कहा?
राज्यसभा सांसद और जाने-माने वकील कपिल सिब्बल ने इस मामले कहा, आज की तारीख में पूरे देश में अगर किसी एक संस्थान पर भरोसा है तो वह न्यायपालिका है। जब कुछ सरकारें न्यायालय के फैसलों को पसंद नहीं करतीं, तो वे इस पर अपनी सीमा को पार करने का आरोप लगाती हैं। क्या उन्हें (धनखड़) पता है कि संविधान के अनुच्छेद 142 ने सुप्रीम कोर्ट को पूर्ण न्याय का अधिकार दिया है। राष्ट्रपति सिर्फ प्रतीकात्मक प्रमुख होते हैं। वे कैबिनेट के अधिकार और सलाह पर काम करते हैं। राष्ट्रपति के पास अपना कोई निजी अधिकार नहीं होता।
पूर्व अतिरिक्त सालिसिटर जनरल अमन लेखी ने कहा, उपराष्ट्रपति की टिप्पणी गलत है। इसमें बढ़ा-चढ़ा कर बातें कही हैं और ये एक ओर झुकी हुई हैं। संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को ये सब करने से सावधान रहना चाहिए, क्योंकि जब आप कानूनी और भावनात्मक मुद्दों पर बात करते हैं तो सावधानी और संयम दोनों ही होना चाहिए। भावनाओं को भड़काने से आप दिमाग को वैधानिकता से दूर कर देते हैं। इससे पूरे विवाद के बारे में गलत धारणा बन जाती है, जिसके आगे जाकर गलत नतीजे हो सकते हैं। ऐसी टिप्पणियों से बनने वाली धारणा तंत्र को बदनाम करती है।
शक्तियों का पृथक्करण
शक्तियों का पृथक्करण लोकतांत्रिक शासन का एक प्रमुख तत्त्व है जिसका उद्देश्य सरकार की विभिन्न शाखाओं में विधायी, कार्यकारी और न्यायिक जिम्मेदारियों को वितरित करना है। भारतीय संविधान में शक्तियों का पृथक्करण शब्द का स्पष्ट उपयोग नहीं किया गया है, जैसा कि कुछ अन्य देशों के संविधानों में है। इसके बजाय, शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शाखाओं के बीच शक्तियों और कार्यों को वितरित करने के तरीके में निहित है।
विधानमंडल या संसद कानून बनाने के लिए जिम्मेदार हैं। कार्यकारी जिसमें राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद शामिल हैं, को इन कानूनों को लागू करने की जिम्मेदारी है। सर्वोच्च न्यायालय के नेतृत्व में न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या करती है और सुनिश्चित करती है कि वे संविधान के अनुरूप हों।
कानूनी सेवाओं की यह संरचना यह सुनिश्चित करने के लिए की गई है कि प्रत्येक शाखा स्वतंत्र रूप से कार्य करे और किसी एक शाखा को बहुत अधिक शक्ति संचय करने से रोका जाए जो शासन की एक संतुलित प्रणाली सुनिश्चित करती है। एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पुष्टि की कि संविधान सर्वोच्च है और कोई भी प्राधिकारी इसकी अवहेलना नहीं कर सकता है। प्रत्येक शाखा को संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों के भीतर काम करना चाहिए।
शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत
1-शक्तियों का पृथक्करण सरकार के विधायी, कार्यकारी और न्यायिक कार्यों का विभाजन है।
2-चूंकि कानून बनाने, क्रियान्वयन और प्रशासन के लिए तीनों शाखाओं की मंजूरी आवश्यक होती है, इसलिए इससे सरकार द्वारा मनमानी ज्यादतियों की संभावना कम हो जाती है।
3-संवैधानिक सीमांकन सरकार की किसी भी शाखा द्वारा अत्यधिक शक्ति के संकेंद्रण को रोकता है।
जांच और संतुलन के साधन
1-विधानमंडल नियंत्रण
न्यायपालिका पर : महाभियोग और न्यायाधीशों को हटाना। न्यायालय द्वारा अधिकार-विहीन घोषित कानूनों को संशोधित करने और उन्हें पुन: वैध बनाने की शक्ति।
कार्यपालिका पर : अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से। यह सरकार को भंग कर सकता है। प्रश्नकाल और शून्यकाल के माध्यम से कार्यपालिका के कार्यों का आकलन करने की शक्ति। राष्ट्रपति पर महाभियोग।
2-कार्यकारी नियंत्रण
न्यायपालिका पर : प्रधान न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों के पद पर नियुक्तियां करना।
विधानमंडल पर : प्रत्यायोजित विधान के अंतर्गत शक्तियां। इस संविधान के उपबंधों के अधीन अपनी-अपनी प्रक्रिया और कार्य संचालन को विनियमित करने के लिए नियम बनाने का अधिकार।
3-न्यायिक नियंत्रण
कार्यपालिका पर : न्यायिक समीक्षा अर्थात कार्यपालिका के कार्यों की समीक्षा करने की शक्ति, ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि क्या यह संविधान का उल्लंघन करता है।
विधानमंडल पर: केशवानंद भारती मामले 1973 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित मूल संरचना सिद्धांत के अंतर्गत संविधान में संशोधन न किए जा सकने की बात।
संतुलन-असंतुलन
न्यायपालिका नियंत्रण एवं संतुलन के प्रति अनिच्छुक : सर्वोच्च न्यायालय ने 99वें संविधान संशोधन को, जो राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना का प्रावधान करता है, अधिकार-बाह्य माना है। राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अनुचित राजनीतिकरण से प्रणाली की स्वतंत्रता की गारंटी दे सकता है, नियुक्तियों की गुणवत्ता को मजबूत कर सकता है, चयन प्रक्रिया की निष्पक्षता को बढ़ा सकता है, न्यायपालिका की संरचना में विविधता को बढ़ावा दे सकता है, और प्रणाली में जनता के विश्वास को पुन: स्थापित कर सकता है।
न्यायिक सक्रियता : हाल ही में दिए गए कई निर्णयों में सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे निर्णय देने में अति सक्रियता दिखाई है जिन्हें कानून और नियम माना जाता है। यह विधायिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करता है।
कार्यपालिका की ज्यादतियां : भारत में कार्यपालिका पर सत्ता के अत्यधिक केंद्रीकरण, सीआइसी और आरटीआइ जैसी सार्वजनिक संस्थाओं को कमजोर करने और राज्य की कानून, व्यवस्था और सुरक्षा को मजबूत करने के लिए कानून पारित करने, लेकिन साथ ही यूएपीए के जरिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का आरोप है।
आगे बढ़ने का रास्ता, विधायी प्रभाव आकलन (एलआइए) की शुरुआत : जानकार मानते हैं कि विधायी प्रभाव आकलन से पूर्व और पश्चात के लिए एक विस्तृत रूपरेखा की आवश्यकता है, जिसके तहत व्यापक जागरूकता के लिए प्रत्येक विधायी प्रस्ताव का सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय और प्रशासनिक प्रभाव के आधार पर मूल्यांकन किया जाता है। विधायी योजना की देखरेख और समन्वय के लिए संसद की एक नई विधायी समिति गठित की जानी चाहिए। इससे कार्यपालिका द्वारा नागरिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाले किसी भी अतिक्रमण पर रोक लगाई जा सकेगी।
एक अंग द्वारा दूसरे अंग के कामकाज में बार-बार हस्तक्षेप करने से लोगों का दूसरे अंगों की ईमानदारी, गुणवत्ता और दक्षता पर भरोसा कम हो सकता है। यह लोकतंत्र की भावना को भी कमजोर करता है क्योंकि सरकार के अंगों में शक्तियों का अत्यधिक संचय नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत को कमजोर करता है।
अनुच्छेद 142
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने हाल में कहा कि संविधान का अनुच्छेद 142 एक ऐसी परमाणु मिसाइल बन गया है जो लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ न्यायपालिका के पास चौबीसों घंटे मौजूद रहती है। उन्होंने कहा कि देश में ऐसी स्थिति नहीं हो सकती कि आप राष्ट्रपति को निर्देश दें। सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार किसने दिया है और वह किस आधार पर ऐसा कर सकता है। उपराष्ट्रपति के इस बयान के बाद अनुच्छेद 142 चर्चा में आ गया। आखिर क्या है यह अनुच्छेद-
भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत शक्ति एक अंतर्निहित शक्ति है तथा इसका प्रयोग पूर्ण न्याय प्रदान करने के लिए किया जा सकता है। इस अनुच्छेद का उद्देश्य न्यायालय को पूर्वनिर्णय आधारित विधि निर्माण करने तथा ऐसे निर्देश का निष्पादन करने में सक्षम बनाना है, जो पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक होते हैं।
अनुच्छेद 142 उच्चतम न्यायालय के आदेशों के प्रवर्तन, प्रकटीकरण का प्रावधान करता है। अनुच्छेद 142 (1) में यह प्रावधान है कि उच्चतम न्यायालय अधिकारिता का उपयोग करते हुए ऐसी डिक्री पारित कर सकेगा या ऐसा आदेश दे सकेगा, जो उसके समक्ष लंबित किसी वाद या विषय में पूर्ण न्याय करने के लिए आवश्यक हो तथा इस प्रकार पारित कोई डिक्री या आदेश भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र ऐसी रीति से, जो कि संसद से बनी किसी विधि द्वारा या उसके अधीन निर्धारित किया जा सकता है और जब तक इस निमित्त ऐसा उपबंध नहीं किया जाता है, तब तक, ऐसी रीति से जो राष्ट्रपति आदेश से निर्धारित हो, प्रवर्तनीय होगा।
अनुच्छेद 142 (2) में यह प्रावधान है कि संसद द्वारा इस निमित्त बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, उच्चतम न्यायालय को देश के संपूर्ण राज्यक्षेत्र के विषय में किसी व्यक्ति की उपस्थिति तय करने, किसी दस्तावेज को पेश करने या प्रकटीकरण, या अपने किसी अवमान का अन्वेषण या दंड देने के प्रयोजन के लिए कोई भी आदेश करने की समस्त एवं प्रत्येक शक्ति होगी। पिछले कई वर्षों से इस उपबंध का उपयोग मुख्यत: दो उद्देश्यों के लिए किया जाता रहा है:- पहला, किसी मामले में पूर्ण न्याय करना तथा दूसरा, न्यायालय द्वारा विधायी कमियों को दूर करना।
महत्त्वपूर्ण निर्णय
आइसी गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य (1967) : भविष्य के दृष्टिगत विनिर्णय के सिद्धांत का आह्वान करते हुए न्यायालय ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत अंतर्निहित शक्ति व्यापक एवं लचीली है तथा यह न्यायालय को न्यायिक उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए विधिक सिद्धांत का निर्माण करने में सक्षम बनाती है।
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ (1998): उच्चतम न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 142 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय की पूर्ण शक्तियां न्यायालय में अंतर्निहित हैं तथा उन शक्तियों की पूरक हैं जो विभिन्न विधियों द्वारा न्यायालय को प्रदान की गई हैं, हालांकि वे उन विधियों द्वारा सीमित नहीं हैं। ये शक्तियां व्यापक आयाम की हैं तथा पूरक शक्तियों की प्रकृति की हैं।
हाल के निर्णय
हाई कोर्ट बार एसोसिएशन, इलाहाबाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2024) : इस मामले में न्यायालय ने कुछ महत्त्वपूर्ण मानदंड तय किए जो अनुच्छेद 142 के अंतर्गत प्रासंगिक हैं:-
- अनुच्छेद 142 में अधिकारिता पूर्ण न्याय करना है तथा इसका प्रयोग बड़ी संख्या में वादियों द्वारा उनके पक्ष में पारित न्यायिक आदेशों के आधार पर प्राप्त लाभों को अस्वीकृत करने के लिए नहीं किया जा सकता है।
- अनुच्छेद 142 इस न्यायालय को वादियों के मौलिक अधिकारों की अनदेखी करने का अधिकार नहीं देता है।
- न्यायालय इस प्रावधान के अंतर्गत अंतर्निहित शक्ति का प्रयोग करते हुए सदैव प्रक्रियात्मक पहलुओं को सुव्यवस्थित करने के लिए प्रक्रियात्मक निर्देश निर्गत कर सकता है, लेकिन यह न्यायालय उन वादियों के मूल अधिकारों को प्रभावित नहीं कर सकता जो उसके समक्ष मामले में पक्षकार नहीं हैं।
- अनुच्छेद 142 के अंतर्गत इस न्यायालय की शक्ति का प्रयोग प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को विफल करने के लिए नहीं किया जा सकता है, जो हमारे न्यायशास्त्र का एक अभिन्न अंग हैं।
अनुच्छेद 142 उच्चतम न्यायालय को प्रदत्त अंतर्निहित शक्ति है तथा इसका प्रयोग केवल उच्चतम न्यायालय ही करता है। न्यायालय पूर्ण न्याय करने के लिए इस शक्ति का प्रयोग करता है। यह न्यायालय की एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण शक्ति है जो विधानमंडल द्वारा किसी भी चूक की भरपाई करने में न्यायालय की सहायता करती है।