श्यौराजसिंह बेचैन
कालू’? यह नाम उस छोटू को नया-नया मिला था, क्योंकि अब वह उतना भी छोटा नहीं रह गया कि वह उसके कद पर फिट बैठता हो। पर अब वह जिस्मानी तौर पर काला दिखता है। यों लोग उसे कालू कहने लगे हैं, वरना उसकी कोई पहचान तो है ही नहीं। कोई नहीं जानता छोटू के माता-पिता कौन थे? कहां थे? घर-गांव कहां था? उसे तो लगता है मानो वह इस रेड लाइट लिए ही पैदा हुआ है और शायद यहीं पर मर जाएगा। वह तो केवल उन लोगों के लिए ही दुनिया में आया है, जिनके लिए काम करता है। उसे तो यह भी याद नहीं कि इस रेड लाइट के भिखारियों में उसे कौन लाया? कोई लाया भी था या खुद ही आ गया था? वह नशा नहीं करता, पर होश भी कहां था उसे उस वक्त। बताने वालों ने बताया था कि उसे तो पैदा होते ही कूड़े के ढेर पर फेंक दिया गया था। पर इस राज को तो उसकी जननी मां के अलावा कोई और नहीं जानता था। यहां वह सुबह से शाम तक मांगता-खाता है। उसे उसके मांगे हुए में से भी दसवां हिस्सा मिल पाता है। बाकी उसका मालिक हजम कर जाता है। दूर से वाहन आता देख वह उसके पीछे-पीछे दौड़ता है, वाहन जिधर मुड़ता है कालू भी उधर ही मुड़ जाता है। बाबूजी, साहब जी, मालिक जी, माई-बाप बोलता पेट की ओर हाथ से इशारा करता है। दिन भर की भाग दौड़ से जो मिलता है, थैली में जमा करता रहता है। एनजीओ वाले आते हैं, इंटरनेशनल प्राइज पाने वाले भी उससे मिल कर चले जाते हैं। उसका फोटो खींच ले जाते हैं। बचपन बचाने वाले उसको मुक्ति का आश्वसन दे जाते हैं। उस मुक्ति का, जिसका मतलब तक वह नहीं जानता था। जब गुलामी का अहसास ही नहीं, तो मुक्ति का भी कोई मतलब नहीं। वह अपनी यथास्थिति में खुश था। इससे इतर भी उसकी कोई जिंदगी हो सकती थी या हो भी सकती है, इसकी उसे कल्पना तक नहीं थी।
मनुप्रिय गुप्ता का एनजीओ कालू जैसों के लिए ही बना था। वे समय-समय पर उतरन कपड़े, बचा हुआ खाना वहां बांट जाते थे। उतरा हुआ कपड़ा और बचा हुआ खाना देना गुप्ता जी के अनुसार उन्हें किसी धर्मग्रंथ में मिला था। वे जानते थे कि किस को यह व्यवस्था की जाती है। उन्हें इस काम के लिए बड़े-बड़े सम्मानों से नवाजा जा चुका था। पर कालू के मददगार तो शायद भगवान भी नहीं थे। उसके दिन गुजर रहे थे। वह सपना देखा करता था कि एक दिन वही लोग उसे वापस लेने आ गए, जो कभी उसे यहां छोड़ कर गए थे। पर सपना तो सपना था। हकीकत में तो उसे दो वक्त पेट भरने के लिए हर गाड़ी के पीछे भागना पड़ता था। जो भी गाड़ी लाल बत्ती पर रुकती थी, उसकी उम्मीद की गाड़ी चल पड़ती थी। एक तो वह सांवला था। दूसरे, उसे हर दिन तेज धूप में खड़ा रहने के कारण। कई दिनों तक स्नान करने का अवसर नहीं मिलता था। पानी तो पीने तक को दुर्लभ था। नगरपालिका के नल से वह पार्क में जाकर एक-दो बोतल भर लिया करता था। मुंह अंधेरे रेलवे ट्रैक पर शौच को जाया करता था।
कालू थोड़ा-बहुत जान भी ले, तो भी कौन उसे मूलभूत सुविधाएं देने वाला था? धूल -धूप में नहाए रहने के कारण कालू और अधिक काला हो गया था। उसे तो सार्वजनिक नलके से पानी लेकर देह का मैल छुटाने की भी इजाजत नहीं थी। उसका मन करता था कि एनजीओ वाले गुप्ता जी, जो उसे पहनने को उतरन और खाने को ‘जूठन’ देकर जाते हैं, उनसे कहे कि उसे कोई किताब दिला दें, अक्षर तो वह पहचान लेता है। थोड़ा कोई उसे मतलब समझाने वाला मिल जाए, तो वह जो लालबत्ती पर लोकप्रिय साहित्य बिकता है, उसका लाभ उठा सकेगा। इस तरह उम्र के साथ-साथ कालू की समझ और सोच भी बढ़ रही थी। पर इस बार भी उसे किताब नहीं मिली। चमकती शर्ट और साफ-सी पैंट से उसका मन बहला दिया गया। पहन कर तो उसे मुगालता हुआ कि अब तो उसे कोई भिखारी भी नहीं समझेगा। उसका धंधा चौपट हो जाएगा। मालिक उसे बेरहमी से लतियाएगा। उस दिन उसने अपनी हम उम्र भिखारिन ‘लछमी’ जिसे वह प्रेम करता था, से कहा कि क्यों न हम तुम यहां से कहीं भाग चलें, कौन-सी हमारे पैरों में बेड़ियां पड़ी हैं। मैं गुप्ता जी के दिए कपड़ों में से तेरे लिए भी अच्छी-सी फिराक और पाजामी ढूंढ़ दूंगा तब तुझे भी कोई भिखारिन नहीं समझेगा।पर उसके इस पहनावे से उसके ठेकेदार का माथा ठनकने लगा। भिखारी, भिखारी जैसा नहीं दिखेगा तो उसे भीख कौन देगा? इसलिए कालू क्या पहने, कैसा पहने, क्या खाए, कब खाए, यह सब उसका मालिक ही तय करता था। एक दिन लालबत्ती पर स्कूली बच्चों से भरी गाड़ियां रुकीं। बच्चों के हाथों में चाचा नेहरू की तस्वीर थी। कालू का मन किया कि वह भी इन्हीं बच्चों में शामिल हो जाए। पर क्या करता? चाचा ने तो भिखारी बच्चों को कुछ कहा ही नहीं था। हां, वे गरीबी हटाने का जिम्मा विरासत की सियासत को सौंप जरूर गए थे, पर वह तो चुनाव जीतने का धंधा बन गया था।
कालू के साथ एक दिन और बुरा हो गया। लालबत्ती पर एक गाड़ी आकर रुकी। रंगीन चश्मा चढ़ाए मैडम को देखा उसने। खिड़की के अंदर हाथ डाल कर भीख मांगी। तभी मैडम का फोन बजा, वह बातें करनें लगीं और उसी वक्त बत्ती खुली, गाड़ी आगे बढ़ गई। उसमें कालू का हाथ फंस गया और वह गाड़ी के साथ ही दूर तक घिसटता चला गया। ट्रैफिक वाले मोटर साइकिल वालों से बिना रसीद उगाही करने में व्यस्त थे, इसलिए उनका तो उस ओर ध्यान ही नहीं था। मैडम उसे सड़क पर रोता छोड़ नौ दो ग्यारह हो गई। कालू के घुटने-कोहनियां सब घायल हो गए थे। किसी ने उसकी दवा की परवाह नहीं की। निजी अस्पताल में तो पांव रखने तक की तो उसकी औकात भी नहीं थी। ठेकेदार को लगा कि कालू खड़ा नहीं हो पाएगा, तो मांग कर कैसे लाएगा? इस वजह से वह उसके पास गया। पहले तो बुरी तरह डांटा और कहा इलाज का खर्चा क्या तेरा बाप देगा? जा मांग, पहले तुझे घायल होने का नाटक करना पड़ता था अब तू असल में घायल है। जा, ज्यादा मांग कर ला। खून के धब्बे भी पोंछने की जरूरत नहीं है। दया पाने के लिए दया करने लायक दिखना भी चाहिए।
ठेकेदार उसे चौराहे पर छोड़ कर चला गया। उसे अकेला देख रास्ते के उस पार मांग रही लछमी ने एक सनसनी खबर उससे साझा की कि ‘कालू मैंने सुना है कि भिखारी जब जबान होने लगता है तब ठेकेदार उसे मुंबई ले जाता है और वहां उसकी आंखें फुड़वा कर अंधा करा कर लाता है, जिससे कि वह हमेशा के लिए मांगता-खिलाता रहे या गाना गाता रहे।’ सुन कर कालू को कंपकपी आ गई। वह भीतर तक हिल गया।
उस दिन कालू ने देखा, कुछ लोग आए और सड़क पर से घायल कुत्तों को पकड़ कर ले गए। वे एनिमल प्रोटेक्टर एनजीओ के लोग थे। कालू हैरत से देखता रहा उनकी ओर। क्यों ले जा रहे हैं ये लोग? क्या करेंगे इनका? कुत्तों को पकड़-पकड़ कर ले जाना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। क्योंकि वे रात के समय के उसके वफादार साथी थे। अगले दिन देखा कि कुछ बीमार बंदरों को जाल में फंसा कर ले गए। तीन चार दिन देखा कि ट्रक से घिसट गई गाय को नगर पालिका वाले ले गए। गधे-खच्चरों की खबर लेने वाले भी आए। कालू को सुखद आश्चर्य तो तब हुआ जब उसने देखा कि उसका सबसे करीबी दोस्त उसका हमरंग कुत्ता भला चंगा होकर उसके पास आ गया है। उसी तरह गैया मैया भी इलाज करा कर लौट आई। बंदर और गधा सहित सब के सब स्वस्थ होकर आ गए। एनजीओ और नगर पालिका के लोग कब उन्हें छोड़ कर चले गए, उसे पता ही नहीं चला। पर कालू के जख्म अब भी हरे थे। उसे अभी दर्द से निजात नहीं मिली थी। इस पर भी ठेकेदार ने उसे एक गर्भवती भिखारिन के साथ खड़ा कर दिया था। कालू उसके पेट का आकार प्रकार देख कर दुखी होता था। वह धूप में हांफती हुई रास्ते के किनारे उसके पास बैठती तो वह गौर से उसका पेट देखता रहता था। उसे डर लगता था कि कहीं यह पेट फट न जाए। वह रोज कहता- ‘री! चाची तू इस बोझ से कब हल्की होगी? देख वे इलाज कराने वाले किसी दिन आएंगे। जैसे कुत्ते, बंदर, गैया को लेने वे एक दिन मुझे अपने साथ लेकर जाएंगे। तू तैयार रहना, मैं तुझे भी अपने साथ ले चलूंगा।’ ‘जरूर मैं तैयार रहूंगी। जिसने दूध पिलाते-पिलाते छत पर सो गई महिला का स्तन काट लिया था, वे उस शरारती बंदर तक का इलाज करा कर छोड़ गए, तो हमारी मदद क्यों नहीं करेंगे।’ वह बोली।
कालू को लगने लगा कि उसके जख्मों का इलाज और चाची की सुरक्षित डिलेवरी कराने वाले एक न एक दिन जरूर आएंगे। इसी उम्मीद में उसे जब भी लगता कि ये एनजीओ के लोग हैं या नगरपालिका कर्मचारी आए हैं, तो वह लपक कर उनकी ओर जाता था। वह अपने जख्मों से कपड़ा हटाता, महिला को समझाता- ‘चाची पेट खोल कर दिखा देना, कहना कि फटा जा रहा है। चाची, लोगों के दिल पत्थर जैसे सख्त होते हैं जब तक देखते नहीं, पसीजते नहीं हैं।’
इंतजार की इंतहा हो गई। कोई नहीं आया। कालू ने रोड साइड बैठे मोची से जानना चाहा। मोची बोला- ‘तेरा वोट है क्या?’
‘क्यों वोट का क्या करना है?’ कालू ने पूछा।
मोची ने बताया- ‘दवा-दारू उसी को दिया जाता है, जिसका वोट सरकार बनाता है।’
‘तो फिर बंदर, कुत्ता और गधा कब किसको वोट देने जाता है? यहां तो सरकारी लोग आते हैं और सरकारों के ये काम नहीं हैं भाई, सरकारों को तो बड़े-बड़े काम करने होते हैं।’
अरसे बाद एनजीओ और नगरपालिका के लोग एक बार फिर नजर आए। उन्होंने बंदर, पशु उठाए। कालू गर्भवती स्त्री का हाथ पकड़ कर चिल्लाता आगे बढ़ा- बाबू जी हम भी, बाबू जी हम भी। उन्होंने मुड़ कर देखा तक नहीं और वे बिना उनकी सुने चले गए। ०