संसद के मानसून सत्र के पहले ही दिन जगदीप धनखड़ के उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफे के कारण सदन में पक्ष और विपक्ष का समीकरण बदलता दिखा। जो विपक्ष कुछ महीने पहले धनखड़ के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ला चुका था, अब वह विश्वास नहीं कर पा रहा कि धनखड़ ने स्वास्थ्य कारणों से इस्तीफा दिया है। साथ ही उनके इस्तीफे को लेकर सत्ता पक्ष की गहरी खामोशी और विदाई समारोह तक नहीं होना इस मामले को और रहस्यमय बना चुका है। आरोप है कि राज्यसभा में न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा पर महाभियोग मामले में धनखड़ का एक कदम आगे होना विपक्ष के पक्ष में चला गया। साथ ही सत्ता पक्ष न्यायमूर्ति शेखर यादव के मामले में भी धनखड़ की सक्रियता से खुश नहीं था। देश के दूसरे सर्वोच्च पद के त्यागपत्र और उससे जुड़े घटनाक्रम की पड़ताल करता सरोकार।

जगदीप धनखड़ के अचानक उपराष्ट्रपति पद से इस्तीफे से संसद में राजनीतिक समीकरण बदल गए हैं। धनखड़ के इसकदम के पीछे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के दिल्ली स्थित परिसर में कथित रूप से नकदी पाए जाने के मामले में उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने के लिए दो हस्ताक्षर संग्रह अभियानों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।

धनखड़ ने जब अपने इस्तीफे को सार्वजनिक किया था, तब स्वास्थ्य कारणों की बात कही थी। लेकिन समझा जाता है कि न्यायमूर्ति वर्मा मामले में धनखड़ की विपक्ष द्वारा की गई पहल को समर्थन देने से सरकार नाराज हो गई थी। पहला प्रयास विपक्ष द्वारा किया गया। यह दो सप्ताह पहले शुरू हुआ था, लेकिन रविवार को इसमें तेजी आई, ताकि न्यायमूर्ति वर्मा को हटाने के लिए कम से कम 50 हस्ताक्षर एकत्र किए जा सकें। यह संख्या राज्यसभा में प्रस्ताव लाने के लिए न्यूनतम रूप से आवश्यक है।

सरकार ने इसे विपक्ष द्वारा लोकसभा में इस संबंध में अपने ही प्रस्ताव को कमजोर करने की कोशिश के रूप में देखा, जिसके लिए उसे विपक्ष सहित 145 हस्ताक्षर प्राप्त हुए थे। लोकसभा के लिए न्यूनतम 100 हस्ताक्षर आवश्यक हैं। संयोग से, मानसून सत्र की शुरुआत में ही सरकार ने स्पष्ट कर दिया था कि वह न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाएगी। मोदी सरकार को उम्मीद थी कि न्यायमूर्ति वर्मा को हटाना सर्वसम्मति से होगा और इसे पक्षपातपूर्ण नहीं माना जाएगा। (किसी न्यायाधीश को हटाने का प्रस्ताव किसी भी सदन में लाया जा सकता है।)

विपक्ष के एक सांसद का कहना है कि वे राजग सदस्यों को राज्यसभा की अपनी पहल से दूर रखने पर अड़े हुए थे ताकि सत्तारूढ़ गठबंधन इस मुद्दे पर भ्रष्टाचार विरोधी मुद्दे को न उठा ले। सांसद ने कहा, हम नहीं चाहते थे कि सरकार इस मुद्दे पर नैतिक रूप से उच्च स्थान हासिल करे। विपक्ष के नेता ने बताया कि दूसरा कारण यह है कि वे न्यायमूर्ति वर्मा के साथ न्यायमूर्ति शेखर यादव का भी मुद्दा उठाना चाहते हैं, जिन्हें विहिप के एक कार्यक्रम में विवादास्पद टिप्पणी के लिए हटाने की मांग की गई है।

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सोमवार की सुबह मानसून सत्र शुरू हुआ। विपक्ष अभी भी न्यायमूर्ति वर्मा को हटाने के लिए नोटिस देने हेतु पर्याप्त हस्ताक्षर जुटाने की कोशिश कर रहा था। दोपहर करीब एक बजे धनखड़ ने राज्यसभा में होने वाली चर्चा का समय और स्वरूप तय करने के लिए कार्य मंत्रणा समिति (बीएसी) की बैठक की। यह बेनतीजा रही और विपक्ष ने सरकार के सुझावों पर फैसला लेने के लिए और समय मांगा। इसके बाद धनखड़ ने कहा कि बीएसी की एक और बैठक शाम 4:30 बजे होगी।

अपराह्न तीन बजे तक विपक्ष ने न्यायमूर्ति वर्मा को हटाने के लिए धनखड़ को नोटिस सौंप दिया। दोपहर 3:12 बजे, कांग्रेस नेता और राज्यसभा सांसद जयराम रमेश ने ‘एक्स’ पर पोस्ट में कहा- आज विभिन्न विपक्षी दलों के 63 राज्यसभा सांसदों ने न्यायाधीश जांच अधिनियम, 1968 के तहत न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा को हटाने के लिए राज्यसभा के सभापति को प्रस्ताव का नोटिस सौंपा। न्यायमूर्ति शेखर यादव को हटाने के लिए इसी तरह का प्रस्ताव 13 दिसंबर, 2024 को राज्यसभा के सभापति को सौंपा गया था। सूत्रों के अनुसार, सरकार धनखड़ द्वारा प्रस्ताव स्वीकार करने से बहुत खुश नहीं थी, क्योंकि उन्होंने राज्यसभा में अपनी ही पहल को पीछे छोड़ दिया था। इसके बाद कथित तौर पर जल्दबाजी में राजग सांसदों के हस्ताक्षर जुटाने की कवायद शुरू हो गई। इस कदम के उद्देश्य को लेकर असमंजस की स्थिति थी। कई भाजपा सांसदों ने मीडिया में बताया कि ये हस्ताक्षर न्यायमूर्ति वर्मा पर महाभियोग चलाने के लिए लिए गए थे।

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हालांकि, राजग के उनके दो समकक्षों ने इस बात पर जोर दिया कि उन्होंने कोरे कागजों पर हस्ताक्षर किए थे, जिससे पता चलता है कि इरादा स्पष्ट नहीं था। तीन कैबिनेट सदस्यों ने बताया कि ये हस्ताक्षर जस्टिस वर्मा के खिलाफ नोटिस के लिए थे। एक मंत्री ने आगे कहा कि कार्यवाही केवल लोकसभा में ही होगी। लेकिन सभापति (धनखड़) ने इस मामले को राज्यसभा में भी उठाया है, इसलिए दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारी मामले की जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन करेंगे।

विपक्ष द्वारा नोटिस सौंपे जाने के तुरंत बाद, धनखड़ राज्यसभा आए और सोमवार शाम लगभग 4:05 बजे घोषणा की कि उन्हें नोटिस मिल गया है। उपराष्ट्रपति ने कहा, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 271 (1) (बी) के साथ अनुच्छेद 218 और अनुच्छेद 124, उप-अनुच्छेद 4, और न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 की धारा 3 (1बी) के तहत इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा को हटाने के लिए एक वैधानिक समिति गठित करने के लिए प्रस्ताव का नोटिस प्रस्तुत किया गया है। जानकार मानते हैं कि धनखड़ का यह कदम अप्रत्याशित था।

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सरकारी सूत्रों ने कहा, उन्होंने इस मामले पर हमारे नोटिस का भी इंतजार नहीं किया। धनखड़ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति यादव को हटाने के विपक्ष के नोटिस का भी जिक्र किया। न्यायमूर्ति यादव का नाम लिए बिना, धनखड़ ने कहा कि विपक्ष द्वारा प्रस्तुत नोटिस में हस्ताक्षरों को लेकर दिसंबर में शुरू हुई भ्रम की स्थिति ही इस प्रक्रिया में देरी का कारण थी। यह बात सरकार को भी रास नहीं आई, जो जस्टिस यादव मामले में नरम रुख अपनाने की कोशिश कर रही है।

लगभग आधा घंटे बाद, धनखड़ ने बीएसी की बैठक शुरू की। इसकी घोषणा उन्होंने पहले ही कर दी थी। लेकिन विपक्षी नेताओं के आने के बावजूद, सरकार की ओर से कोई भी नहीं आया-न तो सदन के नेता जेपी नड्डा, न ही संसदीय कार्य मंत्री किरेन रिजीजू और न ही संसदीय कार्य राज्य मंत्री अर्जुन राम मेघवाल। मंगलवार को संसद भवन में पत्रकारों से बात करते हुए नड्डा ने कहा कि रिजीजू और उन्होंने धनखड़ को पहले ही सूचित कर दिया था कि वे बैठक में शामिल नहीं हो पाएंगे क्योंकि उनका एक अन्य कार्यक्रम है। सरकार के एक सूत्र ने कहा, जब हमने सभापति को बताया कि मंत्रिगण उपस्थित नहीं हो सकेंगे, तो उन्होंने कहा कि वे कुछ समय प्रतीक्षा करेंगे और फिर बैठक जारी रखेंगे।

नड्डा ने सोमवार को राज्यसभा में अपनी टिप्पणी, ‘आपका कहा कुछ भी रिकार्ड में नहीं जाएगा, केवल मैं जो कहूंगा वह रिकार्ड में जाएगा’ के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि ये टिप्पणियां बाधा पहुंचा रहे विपक्षी सांसदों के लिए थीं, न कि आसन के लिए। धनखड़ के इस्तीफे के बाद कांग्रेस ने उपराष्ट्रपति के इस अपमान को उनके अचानक इस्तीफे के पीछे के कारणों में से एक बताया था। मंगलवार को, कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने ‘एक्स’ पर एक पोस्ट में अनुमान लगाया कि दोपहर एक बजे से शाम 4:30 बजे के बीच कुछ बहुत गंभीर हुआ, जिसने नड्डा और रिजीजू को जानबूझकर बीएसी को छोड़ने के लिए प्रेरित किया और कहा कि धनखड़ ने इस पर नाराजगी जताई थी।

बीएसी की बैठक में सरकारी प्रतिनिधियों के न आने के छह घंटे बाद, सोमवार रात 9:25 बजे, धनखड़ ने उपराष्ट्रपति के ‘एक्स हैंडल’ पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को संबोधित अपना त्यागपत्र पोस्ट किया, जिसमें कहा गया कि वे चिकित्सा कारणों से पद छोड़ रहे हैं। यह जानकारी भी आई कि इस्तीफे वाले दिन धनखड़ रात नौ बजे राष्ट्रपति भवन पहुंचे थे। वहां उन्होंने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को इस्तीफा सौंपा था। इसके आधा घंटा बाद अपना इस्तीफा ‘एक्स’ पर सार्वजनिक कर दिया था।

भाजपा या सरकार की ओर से पहली आधिकारिक प्रतिक्रिया मंगलवार दोपहर 12:13 बजे आई, जब प्रधानमंत्री मोदी ने ‘एक्स’ पर पोस्ट किया- जगदीप धनखड़ को भारत के उपराष्ट्रपति सहित विभिन्न पदों पर देश की सेवा करने के कई अवसर मिले हैं। उनके अच्छे स्वास्थ्य की कामना करता हूं। मंगलवार को ही गृह मंत्रालय ने धनखड़ के इस्तीफे को अधिसूचित किया। गृह सचिव द्वारा हस्ताक्षरित एक अधिसूचना में इस्तीफे के पत्र को सार्वजनिक किया गया।

धनखड़ के खिलाफ आया था अविश्वास प्रस्ताव

जगदीप धनखड़ के सदन चलाने के तरीके पर विपक्ष उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया था। लेकिन राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश ने 19 दिसंबर, 2024 को धनखड़ के खिलाफ विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को खारिज कर दिया। उन्होंने अपने फैसले में कहा कि यह नोटिस उपराष्ट्रपति की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने के लिए एक अनुचित कार्य था। अस्वीकृति के कारणों में नोटिस में धनखड़ के नाम की गलत वर्तनी शामिल थी।

उपसभापति ने कहा कि यह मामला उनके पास आया क्योंकि सभापति ने 60 सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित विपक्ष के नोटिस पर विचार करने से खुद को अलग कर लिया। उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 67 (बी) के तहत अविश्वास नोटिस किसी विशिष्ट प्राधिकारी को संबोधित नहीं किया गया था, बल्कि मुख्य विपक्षी दल, कांग्रेस द्वारा प्रचारित किया गया था। लागू अनुच्छेद 67 (बी) उपराष्ट्रपति को हटाने पर विचार करने वाले किसी भी प्रस्ताव के लिए कम से कम 14 दिन पहले नोटिस देना अनिवार्य करता है।

इस प्रकार 10 दिसंबर, 2024 का नोटिस 24 दिसंबर, 2024 के बाद ही ऐसे प्रस्ताव की अनुमति दे सकता है। उन्होंने कहा, यह देखते हुए कि शीतकालीन सत्र 20 दिसंबर तक निर्धारित था। इस स्थिति से पूरी तरह वाकिफ होने के बावजूद कि इस सत्र के दौरान प्रस्ताव नहीं लाया जा सकता, यह केवल दूसरे सर्वोच्च संवैधानिक पद और उपराष्ट्रपति के खिलाफ एक कहानी स्थापित करने के लिए शुरू किया गया था।

कार्यकाल के बीच में इस्तीफा

उपराष्ट्रपति पद से जगदीप धनखड़ के सोमवार देर रात दिए गए इस्तीफे से देश के दूसरे सबसे बड़े संवैधानिक पद पर एक दुर्लभ मध्यावधि रिक्ति पैदा हो गई है। धनखड़ भारत के इतिहास में अपना कार्यकाल पूरा होने से पहले इस्तीफा देने वाले केवल तीसरे उपराष्ट्रपति हैं। इससे पहले वीवी गिरि और आर वेंकटरमन ने राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के लिए पद छोड़ दिया था और उनके बाद क्रमश: गोपाल स्वरूप पाठक और शंकर दयाल शर्मा उपराष्ट्रपति बने थे।

उपराष्ट्रपति के कर्त्तव्यों का निर्वहन कौन करता है

संविधान में कार्यवाहक उपराष्ट्रपति का प्रावधान नहीं है। चूंकि उपराष्ट्रपति राज्यसभा का पदेन सभापति भी होता है, इसलिए उपसभापति (वर्तमान में हरिवंश) उनकी अनुपस्थिति में सदन की अध्यक्षता करेंगे।

चुनाव कब होंगे

राष्ट्रपति पद के लिए, संविधान के अनुसार रिक्त पद को छह महीने के भीतर भरना आवश्यक है, लेकिन उपराष्ट्रपति पद के लिए ऐसी कोई निश्चित समयसीमा नहीं है। केवल यह आवश्यक है कि पद रिक्त होने के बाद यथाशीघ्र चुनाव कराए जाएं। यह चुनाव राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव अधिनियम, 1952 के तहत कराया जाता है। परंपरा के अनुसार, संसद के किसी भी सदन के महासचिव को बारी-बारी से निर्वाचन अधिकारी नियुक्त किया जाता है। चुनाव आयोग ने एलान किया कि उसने चुनाव कराने की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी है। पीसी मोदी को निर्वाचन अधिकारी नियुक्त किया गया है।

नए उपराष्ट्रपति कितने समय तक पद पर रहेंगे

निर्वाचित उम्मीदवार पदभार ग्रहण करने की तिथि से पूरे पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा करेगा, न कि केवल धनखड़ के कार्यकाल का शेष भाग।

उपराष्ट्रपति का चुनाव कैसे होता है

उपराष्ट्रपति का चुनाव संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) के सदस्यों, जिनमें मनोनीत सदस्य भी शामिल हैं, से बने एक निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाता है। राष्ट्रपति चुनाव के विपरीत, इसमें राज्य विधानमंडल भाग नहीं लेते हैं।

नई दिल्ली स्थित संसद भवन में आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार गोपनीय मतदान होता है। प्रत्येक सांसद उम्मीदवारों को वरीयता क्रम में रखकर वोट डालता है। सभी मतों का मूल्य समान होता है। निर्वाचित घोषित होने के लिए, किसी उम्मीदवार को आवश्यक न्यूनतम मतों की संख्या प्राप्त करनी होगी। इसे कोटा कहा जाता है। इसकी गणना कुल वैध मतों की संख्या को दो से भाग देकर और एक जोड़कर की जाती है (यदि कोई भिन्न हो, तो उसे छोड़ दिया जाता है)।

यदि पहले दौर में कोई भी उम्मीदवार कोटा पार नहीं करता है, तो सबसे कम प्रथम वरीयता वाले मतों वाले उम्मीदवार को बाहर कर दिया जाता है, और उनके मत द्वितीय वरीयता के आधार पर शेष उम्मीदवारों को हस्तांतरित कर दिए जाते हैं। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक कि एक उम्मीदवार कोटा पार नहीं कर लेता।

उम्मीदवारों के लिए पात्रता मानदंड

उपराष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति को भारत का नागरिक होना चाहिए। कम से कम 35 वर्ष का होना चाहिए। राज्यसभा के लिए निर्वाचित होने के योग्य होना चाहिए। किसी भी संसदीय क्षेत्र में मतदाता के रूप में पंजीकृत होना चाहिए। उन्हें राष्ट्रपति, राज्यपाल या मंत्री जैसे पदों को छोड़कर, केंद्र या राज्य सरकारों के अधीन किसी भी लाभ के पद पर नहीं होना चाहिए।

न्यायाधीशों पर महाभियोग प्रक्रिया

इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने की संसद में तैयारी है। यह प्रस्ताव एक न्यायिक पैनल द्वारा मार्च 2025 में आग लगने के दौरान वर्मा के आवास से मिले जले हुए नोटों के मामले में आरोप लगाने के बाद आया है। पूर्व प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना ने उन्हें उनके पद से हटाने की सिफारिश की, लेकिन न्यायाधीश वर्मा ने त्यागपत्र देने से इनकार कर दिया और इसके बजाय भारत के सर्वोच्च न्यायालय में इन निष्कर्षों को चुनौती दी।

न्यायाधीशों के लिए महाभियोग की प्रक्रिया क्या है

न्यायिक महाभियोग

संविधान में न्यायाधीशों के लिए महाभियोग शब्द का सीधे तौर पर उपयोग नहीं किया गया है, लेकिन यह सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को सिद्ध दुराचार या अक्षमता के आधार पर पद से हटाने की औपचारिक प्रक्रिया के लिए सामान्य रूप से प्रयुक्त शब्द है। इस प्रक्रिया का उद्देश्य न्यायिक निष्पक्षता की रक्षा करना है। साथ ही राजनीतिक हस्तक्षेप से इसे मुक्त रखना भी है।

संवैधानिक और कानूनी प्रावधान

भारत के संविधान का अनुच्छेद 124 (4) और न्यायाधीश (जांच) अधिनियम 1968, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को पद से हटाने की प्रक्रिया के लिए ढांचा प्रदान करते हैं। अनुच्छेद 218 इन प्रावधानों को उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर भी लागू करता है। न्यायाधीशों को केवल सिद्ध दुराचार (गंभीर नैतिक या पेशेवर कदाचार) और अक्षमता (शारीरिक या मानसिक कारणों से कर्त्तव्यों का निर्वहन करने में असमर्थता) के आधार पर ही हटाया जा सकता है।

महाभियोग प्रक्रिया

प्रस्ताव की शुरुआत : महाभियोग प्रस्ताव लोकसभा या राज्यसभा में पेश किया जा सकता है। इसके लिए लोकसभा में कम से कम 100 सांसदों या राज्यसभा में 50 सांसदों का समर्थन होना अनिवार्य है। यह प्रस्ताव तभी आगे बढ़ सकता है जब इसे लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति द्वारा स्वीकार किया जाए।

जांच समिति

न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 के तहत तीन सदस्यीय समिति गठित की जाती है। इसमें सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश (या भारत के प्रधान न्यायाधीश), उच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश और प्रख्यात न्यायविद् शामिल होते हैं। यह समिति एक तथ्यान्वेषी निकाय के रूप में कार्य करती है और आरोपों की अर्ध न्यायिक जांच करती है।

समिति की रपट और संसदीय बहस

समिति अपनी जांच रपट उस सदन को सौंपती है, जिसने महाभियोग प्रस्ताव की शुरुआत की थी। यदि न्यायाधीश दोषी पाया जाता है, तो मामले पर दोनों सदनों में बहस होती है। न्यायाधीश को पद से हटाने के लिए संसद के दोनों सदनों में एक ही सत्र के दौरान विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। इसका अर्थ है कि प्रस्ताव को न केवल पूर्ण बहुमत (कुल सदस्यता का 50% से अधिक) से पारित किया जाना चाहिए, बल्कि उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों में से कम से कम दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन भी आवश्यक होता है।

राष्ट्रपति की स्वीकृति

संविधान के अनुसार, संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित प्रस्ताव के आधार पर किसी न्यायाधीश को केवल राष्ट्रपति के आदेश द्वारा ही पद से हटाया जा सकता है।

उल्लेखनीय महाभियोग प्रयास

न्यायमूर्ति वी रामास्वामी (1993)
सर्वोच्च न्यायालय के पहले न्यायाधीश जिनके खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही शुरू हुई। एक समिति ने उन्हें धन के दुरुपयोग का दोषी पाया, लेकिन लोकसभा में मत विभाजन के दौरान कई सदस्यों के मतदान से अनुपस्थित रहने के कारण प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। न्यायाधीश रामास्वामी के खिलाफ महाभियोग की एक लंबी प्रक्रिया चली। इनका नाम तब से ही विवादों में घिरा हुआ था, जब इन्हें मद्रास हाई कोर्ट का जज बनाया गया था।

न्यायमूर्ति पीडी दिनाकरन (2010)
दिनाकरन के खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही चली। वे कर्नाटक हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे। उन पर भ्रष्टाचार और जमीन पर कब्जा करने के आरोप थे। दिसंबर 2009 में राज्यसभा के 75 सांसदों ने उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लाने के लिए दस्तखत किए। एक महीने बाद उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति हामिद अंसारी ने तीन सदस्यों की एक समिति का गठन किया। न्यायाधीश दिनाकरन ने इस समिति का विरोध किया। उन्होंने तीन में से एक सदस्य के खिलाफ पक्षपात के आरोप भी लगाए। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में उस सदस्य को हटाने का आदेश दिया। हालांकि, इस समिति की जांच पूरी होने से पहले ही जुलाई 2011 में न्यायाधीश दिनाकरन ने इस्तीफा दे दिया। इससे महाभियोग की प्रक्रिया रद्द हो गई।

न्यायमूर्ति सौमित्र सेन (2011)
सौमित्र सेन पर धन के गबन का आरोप था। राज्यसभा ने महाभियोग प्रस्ताव पारित कर दिया था, लेकिन लोकसभा में पहुंचने से पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। उन पर आरोप था कि जब वे वकील थे तब कुछ मामलों में उन्होंने 50 लाख रुपए से ज्यादा की हेराफेरी की थी। साल 2006 में कलकत्ता हाई कोर्ट ने उन्हें ये पैसे वापस लौटाने को कहा।

साल 2007 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने उनके खिलाफ एक अंदरूनी जांच बिठाई। इसमें उन्हें दोषी पाया गया। वर्ष 2010 में राज्यसभा की समिति ने उन्हें दोषी पाया। 18 अगस्त 2011 को 189 सांसदों ने उनके खिलाफ महाभियोग के पक्ष में मतदान किया। अब बारी थी इस प्रस्ताव के लोकसभा में जाने की। हालांकि, इसके पहले ही जस्टिस सौमित्र सेन ने इस्तीफा दे दिया। इससे यह महाभियोग प्रस्ताव वहीं खत्म हो गया।