भूमिका द्विवेदी अश्क
‘‘आप मेरे बाप की उम्र के हैं, आपने ऐसा घटिया सोचा भी कैसे… आप इस तरह कैसे ले आए यहां मुझे… आपने तो फोन पर कहा था कि मेरी स्क्रिप्ट के बारे में कोई चर्चा करनी थी आपको। मैंने तो स्क्रिप्ट की कापी भी आपके दफ्तर में जमा कर दी थी। और आपने यह क्या किया। यह तो सरासर बदतमीजी है, बिना मुझसे पूछे-ताछे, यह रूम बुक करा लिया आपने। हम लोग तो किसी भी पब्लिक-प्लेस पर बैठ कर आराम से बातें कर सकते थे… होटल में आने की जरूरत भी क्या थी। आप मुझे यहां धोखे से लाए हैं… यह ठीक नहीं किया आपने…। चलिए, वापस चलिए… मुझे यहां होटल के इस बंद कमरे में कोई बात नहीं करनी आपसे।…’’
‘‘अरे, तुम तो बेकार में भड़क रही हो… तुम क्या समझती हो, फिल्म के लिए स्क्रिप्ट फाइनल कर लेना कोई बच्चों का खेल है, कि बस लिखा तुमने और बन गई फिल्म तड़ से… अरे ऐसी कहानी क्या, इससे लाख दर्जे बेहतर कहानियां और स्क्रिप्टें लिए रोजाना कितनी ही लड़कियां आगे-पीछे घूमती रहतीं हैं मेरे। तुम तो खुशनसीब हो जो मैं एक चांस दे रहा हूं तुम्हें… बीस दिन के अंदर तुम्हारी लिखी स्क्रिप्ट बाजार में होगी, एक क्या, कई सारी फिल्में बन रही होंगी उस पर, हर जगह सम्मान किया जा रहा होगा तुम्हारा…। बस्स, जरा खुश कर दो हमें…।’’
‘‘- लेकिन… लेकिन आपने तो विज्ञापन में छापा था कि आपको एक गंभीर प्लाट की ऐसी कहानी की तलाश है, जो कम से कम बारह रील की हो… यथार्थ हो, असल जिंदगी से ताल्लुक रखने वाली एक दमदार कहानी हो… फिर आप इस तरह की वाहियात बातें क्यों कर रहे हैं मुझसे… मेरी कहानी में दम है, आप उसे एक बार पढ़ के तो देखिए।…’’
‘‘अजीब लड़की हो तुम…। तुमको सीधी तरह बात समझ नहीं आती क्या… बड़ा प्रोडक्शन है मेरा, जानता हूं मैं, और क्या ये फोकट में खड़ा हुआ है… मेरे खून-पसीने की कमाई से खड़ा हुआ है… फिर हर मर्द की कुछ जरूरतें होती हैं, जवान लड़की हो तुम…। इतनी-सी बात नहीं धंसती तुम्हारी अक्ल में…।’’ ‘‘अरे कमाल हो गया… आप तो हद दर्जे की बेशर्मी पर आमादा हुए जा रहे हैं। माशाअल्लाह आपकी मर्दाना जरूरत पूरी करने के लिए दो दो बीवियां मौजूद हैं आपके दर पर…’’
‘‘बीवियां अपने सिर पर मढ़ने के लिए होतीं हैं, कोई जरूरत पूरी करने के लिए नहीं होती हैं… वो तो समाज में दिखाने के लिए टांगना पड़ता है खोपड़ी पर…। उसे तो मां-बाप ने बोझ की तरह सर पर उड़ेल दिया है मेरे। उस वक्त जरूरत थी उसकी, और उसके पैसे की भी… लेकिन अब, अब नहीं रही। अब बहुत बासी हो गई है वो… उसकी याद मत दिलाओ…’’ आलीशान सोफे पर बैठे हुए, उसने बगल में रखी शानदार टेबल के कीमती ऐशट्रे में अपनी गोरी और कई नगीनों से जड़ी उंगली में फंसी सिगरेट का धुंआ गिराते हुए कहा। ‘‘उस बासी औरत से छुटकारा पाने के लिए ही तो आपने दूसरी शादी की थी बजाज साहब, वह भी किसी लाचार बंगालिन से। यह बात तो पूरी दुनिया जानती है। क्या तिस पर भी पेट नहीं भरा आपका?’’ नव्या ने दलील दी।
‘‘उसका तो नाम मत लो मेरे सामने… उस स्साली ने तो जमके चूना लगाया है मुझे। आज भी मेरे इस साम्राज्य के फिफ्टी परसेंट की मालकिन बनी बैठी है वो कमीनी… उस कमबख्त औरत ने बुरी तरह ब्लैकमेल किया है मुझे।…’’ ‘‘चलिए, छोड़िए उसे भी…। लेकिन आपके आफिस में भी तो कई सारी हैं, जिनके साथ रास रचाते रहते हैं आप… फिर ये होटल का कमरा किस वास्ते?’’
‘‘वो मामूली कामगर लड़कियां हैं… उन्हें लिटाने के लिए तो आफिस की पुरानी मेज ही काफी है… यह पांच सितारा होटल उनके लिए नहीं है, यह तो तुम्हारे लिए है…। और यह इस होटल का बेहतरीन कमरा भी सिर्फ तुम्हारे लिए… यह सिर्फ तुम्हारे लिए बुक कराया है मैंने… जरा देखो यहां, अठ्ठाइसवीं फ्लोर के इस कमरे से पूरा समंदर कितना हसीन दिखता है… वो देखो, दूर-दूर तक समंदर की लहरें कितनी खूबसूरती से उछल-कूद मचा रही हैं।… तुम क्यों बेवकूफी कर रही हो… क्या ऊपर वाले ने अक्ल नहीं दी तुम्हें…। बिना अक्ल के लिखती कैसे होगी भला… प्रधान कह रहा था, बेहद शानदार स्क्रिप्ट लिखी है तुमने, यह पढ़ना-पढ़ाना मेरे बस की बात नहीं समझीं…।
यह सब काम प्रधान ही करता है मेरा।… सुनो अब यह सब बेकार का रायता मत फैलाओ यहां… इस सुहानी रात को और इस शानदार जगह को हाथ से मत जाने दो… बातों में क्यों अपना और मेरा टाइम जाया कर रही हो।…’’ बजाज प्रेम से लगातार नव्या को फुसलाने की कोशिश करता जा रहा है। नव्या है कि दलील पर दलील दिए जा रही है। ‘‘आप मेरे पीछे क्यूं पड़ गए हैं बजाज साहब?’’ उसने अपनी कलाई बजाज से छुड़ा कर मिमियाते हुए कहा।
‘‘तुम्हें भी तो मैं पसंद हूं, शरमाओ मत… भूल गई तुम, तुमने ही उस दिन अवार्ड-फंक्शन में कहा था, कि यह मेरी नीलम की अंगूठी तुम्हें बहोत प्यारी लगती है… बोलो, बोलो…। भूल गईं… खूबसूरत लड़कियां भूलती भी बहुत जल्दी हैं…।’’ बजाज ने अपनी कीमती नीलम से सजी अंगूठी दिखाकर, लालच देते हुए नव्या को याद दिलाया।
‘‘भूली मैं नहीं, भूले आप हैं बजाज साहब… मैंने कहा था, आपकी इस अंगूठी को देखकर मुझे मेरे पिता की याद आती है। आप याद कीजिए, मैंने उस दिन अवार्ड-फंक्शन में यह भी आपको याद दिलाया था, कि मेरे पिता की मृत्यु बरसों पहले हो चुकी, जब मैं बहुत छोटी थी। पिताजी नीलम की अंगूठी पहना करते थे। आपकी अंगूठी देखकर मुझे उन्हीं की याद हो आयी थी।… देखिए अब आप मेरी बात मानिए, हम लोग निकलते हैं।… दूर जाना है मुझे, नालासोपारा तक तो बस भी नहीं जाती कोई।…’’
‘‘अरे ऐसे कैसे देर हो रही है मेरी जान… तुम समझती क्यों नहीं…। यह अंगूठी तो आज की रात ही मैं तुम्हें तोहफे में दे दूंगा, अगर यह तुम्हें इतनी ही प्यारी है… लेकिन अभी रात तो गुजरने दो…। अभी तो करीब से तुम्हें देखा भी नहीं मैंने… अभी तो तुम्हारे जलवे देखने हैं मुझे… और तुम चिंता मत करो, नालासोपारा क्या, कल्याण या फिर पुणे और गोवा तक भी पंहुच जाओगी तुम, इसलिए इत्मीनान रखो… यह बीएमडब्ल्यू तुम जैसी खूबसूरत लड़कियों की सेवा के लिए ही तो रखी है मैंने। चलो, अब जिद छोड़ो और यहां आकर बैठ जाओ।’’… बजाज आराम से सागौन के शानदार पलंग पर पसरे हुए नव्या को न्योते पर न्योता दे रहे थे।
आज दर्शक दीर्घा में कानाफूसी बड़ी देर तक चलती रही। लोगबाग समझ नहीं पा रहे थे, कि ऐसा क्या कमाल का लिख रही है यह लड़की, जिसे चौथी बार फिल्म फेयर अवार्ड दिया जा रहा है। जब पहली बार उस नई लड़की को स्क्रिप्ट राइटिंग का अवार्ड मिला था, तब तक तो ठीक था। भई मान लिया कि नए लोगों को प्रोत्साहन देने के लिए अवार्ड शुक्लाइन को दे दिया गया। लेकिन फिर दूसरी बार भी। अरे, तीसरी बार भी… और यह क्या, एक बार फिर… चौथी बार भी उसी नव्या शुक्ला को! यह तो हद ही हो गई!
चौथी बार वही
नाम उसी एक लड़की को दिया जाना कहां तक वाजिब था। बहरहाल, जब नव्या शुक्ला ने ट्राफी हाथ में उठाई तो जाहिर तौर पर, ढेर सारे कैमरों के फ्लैश एक साथ उस पर बरस पड़े। वह मुस्कुराती हुई सभी का अभिवादन करती रही। झुककर दर्शकों को धन्यवाद करती करती रही। ट्राफी लिए नव्या के हाथों में एक चमकदार नीलम की अंगूठी भी जगमगा रही थी, और इस जगमगाहट का वजन बहुत ज्यादा था। इतना ज्यादा कि उस जगमगाहट के आगे नव्या शुक्ला की जिंदगी का बड़े से बड़ा तत्व अपनी चमक खो चुका था।
उस चमकदार नीलम की चमक के आगे नव्या का अपना जमीर कहीं गुम हो गया था। इस बात का अहसास नव्या शुक्ला को अपने नए मिले फ्लैट में हर रात कराया जाता था, जहां नव्या ने अपने पिता की बड़ी-सी तस्वीर मय फूल-माला टांग रखी थी। नव्या को यह अहसास, उसकी नई-नवेली कार के हर सफर में भी होता था, जब वह एकमात्र अपनी देह और अपनी बिकी हुई आत्मा का बोझ लिए निकला करती थी। उसे मिलते साल-दर-साल के ये अवार्ड उसके इस बोझ को रत्ती भर भी कम नहीं कर पा रहे थे।