रोहित कुमार

भक्ति और संत परंपरा की बात करना भारतीय लोकमानस की निर्मिति को समझना है। ये दोनों एक दूसरे से इतने गहरे जुड़े हैं कि इनके अलगाव के साथ हम चिंतन के क्षेत्र में दो कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते हैं। जिन लोगों ने भी भारतीय समाज और यहां विकसित हुई आध्यात्मिक चेतना को पृथक समझने की कोशिश की, उनके विचार सूत्र का अस्वीकार उनके दौर में ही सामने आ गया।

इस बारे में थोड़ी और गहराई से बात करें तो अध्यात्म की चर्चा, उसका पूरा विमर्श एक परिक्रमा की तरह है। बात शुरू होती है जीवन क्या, जीवन क्यों और जीवन की अंतिम नियति क्या सरीखे सवालों से और यह चर्चा समाप्त भी इन्हीं प्रश्नों पर आकर होती है।

इस चर्चा में जो बात खासतौर पर समझने की है, वह यह कि इस दौरान हम किन शब्दों या सूत्रों का इस्तेमाल करते हैं। दार्शनिक और आध्यात्मिक विमर्श में यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि हम शब्द और अर्थ को लेकर खासतौर पर संयत रहें, नहीं तो हम गलत दिशा में आगे बढ़ जाएंगे।

यह मुश्किल तब खासतौर पर और बढ़ जाती है जब हम किसी आंतरिक व्यग्रता की वजह से या महज जिज्ञासावश इन गूढ़ प्रश्नों को समझना चाहते हैं। ऐसा इसलिए कि ज्ञान की दशा प्राप्त करने के बाद एक तो ऐसे सवालों का कोई अर्थ रह ही नहीं जाता और अगर ये सवाल सामने आते भी हैं तो उनके समाधान तक पहुंचना कठिन नहीं होता है।

ओशो ने इस तरह के चिंतन और सवालों पर लंबे प्रवचन दिए हैं। वे कहते हैं कि जब हम कहते हैं कि जीवन की नियति क्या है, तो हम गलत सवाल उठा रहे होते हैं। जाहिर है कि जब सवाल ही सही नहीं है, गलत आशय और अर्थ के साथ है तो फिर उसका जवाब भी वैसा ही होगा। वे कहते हैं कि ‘नियति’ शब्द जिस तरह की चिंतन की शैली का हिस्सा है, वह खासा खतरनाक है।

उनके ही शब्दों में, ‘नियति की भाषा का उपयोग आदमी सिर्फ जीवन को स्थगित करने के लिए करता रहा है। जैसे ही तुमने कहा, नियति है तो फिर तुम्हें कुछ भी नहीं करना। होगा, अपने से होगा, जब होना है तब होगा।’ सवाल है कि हम जीवन की नियति की बात न करें तो फिर इस बारे में बात कैसे करें, हमारे शब्द क्या हों और हमारे प्रश्न का स्वरूप कैसा हो।

संस्कृत से हिंदी में आया सुंदर शब्द है- संभावना। आमतौर पर दार्शनिक विमर्श में इस शब्द का इस्तेमाल विद्वानों के बीच भी गूढ़ प्रस्तावों के साथ नहीं होता है। यह न सिर्फ एक चूक है बल्कि जीवन और दर्शन के साझे विमर्श को दुरूह बनाए रखने की पांडित्यपूर्ण चालाकी भी। इस चालाकी से बाहर निकलने के लिए जरूरी है कि हम इस विमर्श में इस शब्द के साथ दाखिला लें।

ओशो दार्शनिक से ज्यादा बड़े तार्किकहैं। लिहाजा वे शब्दों के प्रयोग में पूरी सावधानी रखते हैं। वे न सिर्फ ‘संभावना’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं बल्कि इसके लिए साथ एक और शब्द का प्रयोग करते हैं। यह शब्द है- संन्यास। भक्ति से लेकर अध्यात्म तक इस शब्द की बड़ी व्याप्ति है। ओशो जीवन के बारे में बात करते हुए कहते हैं, ‘संभावना है संन्यास, नियति नहीं।’

इस पूरे विचार संदर्भ को समकाल और युवाओं के साथ जोड़कर देखें तो हमारे पास कई समाधानकारी निष्कर्ष होंगे। दुनिया के बाकी मुल्कों की तरह हमारा देश आज भी कोरोना महामारी का दंश विभिन्न स्तरों पर झेल रहा है। ऐसे में नियति और संभावना के द्वंद्व के बीच आगे का रास्ता क्या हो सकता है कि इसका रोचक वृत्तांत आधुनिक भारतीय संत स्वामी विवेकानंद से जुड़ा है। बात 1899 की है।

तब बंगाल में प्लेग फैला था। देखते-देखते स्थिति कुछ ही दिनों में हाथ से बाहर जाने लगी थी। हर तरफ मौत और खौफ का आलम था। दिलचस्प है कि तब विवेकानंद जीवित थे और कलकत्ता में मौजूद थे।

युवकों को सेहतमंद और स्फूर्ति से भरे रहने के लिए फुटबाल खेलने की सलाह देने वाले युवा संन्यासी ने तब काफी मुस्तैदी दिखाई थी। उन्होंने लोगों को इस महामारी से लड़ने का ऐसा ब्लूप्रिंट थमाया, जिसमें वे रोग से बचाव के साथ अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का वहन कैसे करें, इन सबके बारे में चरणबद्ध तरीके से बताया-समझाया गया था। दरअसल, युवा और संत, यह साझा अपने आप में खासा विलक्षण है। स्वामी विवेकानंद इसी विलक्षणता का नाम है।

उन्होंने एक बार कहा था कि मैं जो देकर जा रहा हूं, वह एक हजार साल की खुराक है। लेकिन जब आप उनके बारे में और उनके साहित्य का अध्ययन करते हैं तो ऐसा लगता है कि यह खुराक सिर्फ एक हजार साल की नहीं बल्कि उससे आगे की भी है।
एक ऐसे दौर में जब दुनिया कोरोना महामारी के रूप में एक बड़े संकट से जूझ रही है, इस युवा संन्यासी का सबक न सिर्फ हमें राह दिखाता है बल्कि भरोसा दिलाता है कि संयम और आस्था के साथ हम इससे उबर सकते हैं।

दरअसल, यह समय है स्वामी विवेकानंद के ‘प्लेग घोषणापत्र’ (प्लेग मेनिफेस्टो) को याद करने का। नियति का अर्थ है, होगा ही। संभावना का अर्थ है, चाहो तो होगा; नहीं चाहो तो नहीं होगा। बीज का वृक्ष होना नियति नहीं है, संभावना है।

बीज बिना वृक्ष हुए भी रह जा सकता है। सभी बीज वृक्ष नहीं होते, बहुत से बीज तो बीज ही रहकर मर जाते हैं। फिर सभी वृक्षों में फूल नहीं आते, बहुत से वृक्ष कुछ समय रहकर मर जाते हैं। नियति का अर्थ होता है, अनिवार्य। कोरोनाकाल में देश की परिस्थिति ऐसी ही एक अनिवार्य करवट की आज राह देख रही है।