रोहित कुमार
अपनी चेतना को समृद्ध करो, उसे सजाओ-संवारो। सदियों से ऐसी बातें कही जा रही हैं। बिल्कुल अपढ़ आदमी भी इस सत्य को रेखांकित कर देता है। मगर चित्त में बस नहीं पाती यह बात। जिन्होंने इस बात को चित्त में बसाया, उन्होंने शरीर को तरह-तरह से तपाया, सताया। आत्मा को पुष्ट करने के लिए शरीर को गलाया। कोई भस्म रमाए फिरता दिखता है, कोई दिगंबर हुआ फिरता है, कोई पहाड़ की बर्फीली चोटी पर इसे साधने में लगा है, तो कोई तपती गरमी में धूनी के सामने बैठा है।
मगर भौतिकवादी यानी मटिरियलिस्टिक सिद्धांतकार तो मानते ही नहीं आत्मा को। उनका तो कहना है कि सब कुछ पदार्थ से बना है, जब तक उन पदार्थों को सुरक्षित रखा जा सकता है, तभी तक जीवन का आनंद है। नागार्जुन ने तो सब कुछ को शून्य कहा। न शरीर अंतिम है, न आत्मा। चार्वाकों ने भी तो तमाम दर्शनों को यही कहते हुए चुनौती दी कि जो कुछ है, वह भौतिक शरीर में ही है। जितना सुखभोग कर सकते हो, करो, अगला जीवन कुछ होता ही नहीं। आत्मा जैसी कोई चीज होती नहीं।
मगर विचार भी अंतिम कहां होते हैं। तर्कों की शृंखला भला कब टूटती है। विचारों के भीतर से विचार निकलते रहते हैं। हर तर्क एक नए तर्क को जन्म देता है। इसीलिए जीवन को लेकर व्याख्याएं अभी तक समाप्त नहीं हुईं। परिस्थितियां बदलती रहीं, जीवन को जीने के तरीके भी बदलते रहे और उसी में भारतीय और पाश्चात्य दर्शनों, चार्वाकों की व्याख्याएं भी नए-नए अर्थ पाती रहीं। विज्ञान की तमाम शाखाएं भी जीवन के रहस्यों को खोलने का प्रयास करती रहीं, उनके अध्ययनों का अंतिम सिरा भी वहीं शरीर और चेतना के धरातल पर जाकर टकराता रहा। फिर-फिर वही बात प्रमुखता से उठती रही कि शरीर तो माटी का खिलौना ही है।
मगर थोड़ा गहरे उतरें तो शरीर वास्तव में इतना तुच्छ है नहीं। शरीर न होगा, तो चेतना का अस्तित्व होगा कहां। शरीर के भीतर ही तो चेतना हो सकती है। बेशक पुनर्जन्म और चेतना के दूसरे शरीर में समा जाने की धारणा भी पुष्ट है और दुनिया का कोई भी पंथ इस बात से इनकार नहीं करता, पर उस चेतना के लिए शरीर तो चाहिए ही न। फिर शरीर की इतनी उपेक्षा क्यों। योग दर्शन तो शरीर को साध कर ही परमात्मा तक पहुंचने का रास्ता तलाशता है। चिकित्सा की तमाम पद्धतियां इसीलिए तो नीरोग शरीर के लिए निरंतर अध्ययन, अनुसंधान में लगी रहती हैं कि शरीर नीरोग रहेगा, तभी चेतना के पुष्ट होने का भी मार्ग प्रशस्त होगा। फिर शरीर की उपेक्षा ठीक नहीं।
जिस तरह चेतना के विकास के लिए अध्ययन, मनन, तपस्चर्या, आचरण पर जोर दिया जाता है, शरीर को स्वस्थ और प्रसन्न रखने पर भी उतना ही जोर है। साधना दोनों को ही है और साथ-साथ-साथ साधना है। शरीर को भी और चेतना को भी। इसलिए यह कौन-सा तर्क हुआ कि चेतना के विकास के लिए शरीर का ध्यान रखें ही नहीं। शरीर को सजाएं-संवारें ही नहीं, अच्छे भोजन-वसन से दूर रहें। सादा जीवन उच्च विचार का सिद्धांत पूरी दुनिया में है, मगर सादा जीवन का अर्थ यह तो नहीं कि शरीर को महत्त्व ही न दिया जाए। उसे उपेक्षित छोड़ दिया जाए।
चेतना के विकास में शरीर को सजा-संवार कर रखना भला कहां बाधक हो सकता है। अगर अच्छे कपड़े पहन लिए, अच्छे ढंग से बाल कटा लिए, कुछ इत्र-फुलेल छिड़क लिया, तो चेतना भ्रष्ट कैसे हो गई। मगर तमाम साधना पद्धतियों ने इसका विरोध किया। उस वक्त विरोध की वजहें समझी जा सकती हैं, पर आज जब जीवन की तमाम सुविधाएं मौजूद हैं, उनके लिए बहुत भाग-दौड़ करने की जरूरत नहीं, वे सहज उपलब्ध और समाज में स्वीकृत हैं, तो उन्हें अपना लेने में चेतना पर बोझ कहां पड़ेगा।
दरअसल, शरीर को सजाने-संवारने पर अधिक ध्यान देने से इसलिए बरजा गया कि इससे इंद्रिय निग्रह में कठिनाई आ सकती है। जीवन का लक्ष्य परमसुख की खोज है। मगर वह सुख नहीं, जो शरीर को मिलता है। वह सुख जो चेतना के स्तर पर प्राप्त होता है। उसी सुख को स्थायी माना गया है। इसलिए शरीर को मिलने वाले सुखों का निरोध किया गया। मगर शरीर को सजा-संवार कर रखने, अच्छे कपड़े पहन कर रखने के बावजूद अगर व्यक्ति इंद्रियों पर काबू रखने में सफल रहे, तो फिर दिक्कत क्या है। सारा खेल आखिर मन का ही तो है, उसे काबू में रख लिया तो सजना-संवरना उसमें बाधा नहीं बन सकते।
दरअसल, जिस समाज में हम रहते हैं, जिस तरह के काम करते हैं, जिस तरह के लोगों से रोज मिलना-जुलना होता है, उनकी रुचि के वस्त्र भी पहनने जरूरी होते हैं। इसका निर्वाह करते हुए बहुत सारे लोग कोट-पैंट तो पहनते हैं, पर जैसे ही धार्मिक कर्मकांड के लिए प्रस्तुत होते हैं, वैसे ही परंपरा से चले आ रहे परिधान धारण कर लेते हैं। उनका मन ही नहीं मानता कि पाश्च्त्य कपड़ों में भी भक्ति संभव है। सुगंधित तेल-फुलेल लगाकर भी पूजा-पाठ किया जा सकता है। सुंदर दिखना, अच्छे कपड़े पहनना, शरीर को सुगठित बनाना चेतना के उन्नयन में कोई बाधा नहीं। बस, वस्त्रों और सौंदर्य का विलास मन पर न चढ़ने पाए। सुंदर दिखना देखने वाले पर सकारात्मक प्रभाव छोड़ता है।