दौर और हालात के बदलाव का असर साहित्य और संगीत पर भी पड़ता है और ऐसा स्वाभाविक भी है। पर इस बदलाव के बीच कुछ चीजें अपनी जगह बनाए भी रखती हैं। गजल लेखन और उससे जुड़ी गायकी इसकी मिसाल है। गजल गायकी की लोकप्रियता को बहाल रखने में जिन गायकों की बड़ी भूमिका रही है उनमें मेहंदी हसन का नाम काफी अहम है। उन्होंने अपनी गायकी से जिस तरह भारत और पाकिस्तान की साझी सांस्कृतिक विरासत को बहाल रखा, उसके बारे में जितना भी कहा जाए वह कम है। अपनी गाई गजलों और नज्मों से सुर और संवेदना की जो सुरीली दुनिया उन्होंने बसाई, वह आज भी आबाद है और लोगों को मोहब्बत का पैगाम दे रही है।
उनका जन्म 18 जुलाई, 1927 को राजस्थान में झुंझुनू जिले के लूणा गांव में हुआ था। उनके दादा इमाम खान बड़े कलाकार थे जो उस वक्त मंडावा व लखनऊ के राज दरबार में ध्रुपद गाते थे। मेहंदी हसन के पिता अजीम खान भी अच्छे कलाकार थे। इस कारण उस वक्त उनके परिवार की आर्थिक स्थिति काफी अच्छी थी। बचपन में मेहंदी हसन को गायन के साथ पहलवानी का भी शौक था। लूणा गांव में वे अपने साथी नारायण सिंह व अर्जुन लाल जांगिड़ के साथ कुश्ती के दांवपेंच आजमाते थे। भारत के प्रति उनके मन में आजीवन एक खास लगाव रहा। राजस्थान में शेखावाटी की धरती उन्हें अपनी ओर खींचती रही थी। दिलचस्प है कि पाकिस्तान में आज भी मेहंदी हसन के परिवार में सब लोग शेखावाटी की मारवाड़ी भाषा में बातचीत करते हैं। दरअसल 1947 में मुल्क के बंटवारे के समय अपने परिवार के साथ वे जरूर पाकिस्तान चले गए पर अपनी माटी-पानी से दो दशक का उनका संबंध उन्हें ताउम्र नम करता रहा।
बताते हैं कि जब सत्तर के दशक में वे अपने पैतृक गांव को देखने आए तो सड़क न होने के कारण उन्हें गांव तक पहुंचने में काफी परेशानी हुई। अपनी पुरखों की मिट्टी को लेकर उनके जज्बात किस तरह के थे, यह इस वाकिये से जाहिर होता है कि लूणा तक सड़क का निर्माण हो इसके लिए फंड इकट्ठा करने के लिए उन्होंने तत्काल वहीं अपनी गायकी का एक कार्यक्रम रख दिया। आखिरी बार 2005 में वे यहां आए थे अपने इलाज के सिलसिले में।
अपने आखिरी दिनों में भारत आने को लेकर वे काफी उत्सुक थे। यहां आकर वे लता मंगेशकर और दिलीप कुमार जैसी शख्सियतों से मिलना चाहते थे। पर उनकी सेहत ने इसकी इजाजत उन्हें आखिर तक नहीं दी। राजस्थान सरकार ने अपनी तरफ से पहल भी की थी कि उन्हें इलाज के लिए भारत लाया जाए। कभी लता मंगेशकर ने उनकी गायकी सुनकर कहा था कि यह खुदा की आवाज है। हारमोनियम, तबला और मेहंदी हसन- संगीत की इस संगत को जिसने भी कभी सामने बैठकर सुना, वह उसकी जिंदगी का सबसे खूबसूरत सरमाया बन गया।
मेहंदी हसन की गायकी पर राजस्थान के कलावंत घराने का रंग चढ़ा था, जो आखिर तक नहीं उतरा। उन्होंने गजल से पहले ठुमरी-दादरा के आलाप भरे पर आखिर में जाकर मन रमा गजलों में। उन्हें उर्दू शायरी की भी खासी समझ थी। गालिब, मीर से लेकर अहमद फराज और कतील शिफाई तक उन्होंने कई अजीम शायरों की गजलों को अपनी आवाज दी। यही नहीं, गजल गायकों की एक से ज्यादा पीढ़ी की गायकी पर उनका रंग देखा जा सकता है। आज जबकि गजल गायकी के पुराने स्कूल प्रचलन से बाहर हो रहे हैं तो मेहंदी रची यह आवाज संगीत के नए होनहारों को बहुत कुछ सिखा सकती है।