दिल्ली स्थित लाल किला की दीवारें इस देश के स्वाधीनता संघर्ष और उसके लिए दी जाने वाली कुर्बानियों की न सिर्फ गवाही देती हैं बल्कि कई ऐसी बातें भी बताती हैं जो इस देश के एक राष्ट्र-राज्य के रूप में उभरने की दास्तान है। इस दास्तान का सबसे सुर्ख पन्ना उस बादशाह के नाम दर्ज है जो देश की आजादी की तड़प के साथ अंगड़ाई लेने वाली पहली क्रांति का सबसे बड़ा चेहरा था।
दरअसल, हम बात कर रहे हैं आखिरी मुगल सम्राट की। बहादुरशाह जफर या अबी जफर 1837 में 62 साल की आयु में मुगलिया तख्त पर बैठे। वे अपने पिता सम्राट अकबर शाह द्वितीय के उत्तराधिकारी थे। जफर न केवल खुद एक बेहतरीन शायर थे, बल्कि कला, भाषा और कविता के संरक्षक भी थे। उनके दरबार में हाजिरी लगाने वालों में इब्राहिम जौक और मिर्जा गालिब जैसे बड़े शायर शामिल थे।
11 मई,1857 की सुबह दिल्ली एवं देश के अन्य हिस्से ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की आग में धधक उठे। जब क्रांतिकारी जफर के पास आए तो एक संवेदनशील व्यक्ति होने के नाते स्वाभाविक रूप से वे उनका नेतृत्व करने को राजी नहीं हुए। आखिरकार वे इस विद्रोह का नेता बनने के लिए सहमत हो गए। उत्तर भारत के अन्य शहरों में आग की तरह फैलने वाले विद्रोह का ब्रितानी फौज ने बर्बरता के साथ दमन किया।
दिल्ली में इस विद्रोह का अंत फिरंगियों द्वारा मुगलिया शासन पर पूर्ण रूप से शिकंजा कसे जाने के साथ हुआ। 19 सितंबर, 1857 को लाल किला पर कब्जा कर लिया गया। शाही परिवार के अन्य सदस्यों के साथ राजा पहले से ही हुमायूं के मकबरे में शरण लेने के लिए जा चुके थे। 21 सितंबर को जफर ने इस शर्त पर आत्मसमर्पण कर दिया कि उनकी और उनकी पत्नी जीनत महल की जिंदगियां बख्श दी जाएंगी। इस दौरान दिल्ली की सड़कों पर ब्रितानी फौज ने दमन का बर्बर खेल खेला। 20 सितंबर तक आते-आते पूरी दिल्ली ब्रितानी झंडे के नीचे आ गई। जफर ने कहा- ऐ वाए इंकलाब जमाने के जौर से / दिल्ली ‘जफर’ के हाथ से पल में निकल गई।
27 जनवरी, 1858 को लाल किला में जफर पर विद्रोह, राजद्रोह और हत्या के आरोपों पर मुकदमा शुरू हुआ। यह लगभग दो महीने तक चला। जफर को कसूरवार ठहराया गया और उन्हें परिवार के साथ गवर्नर जनरल के तय किए गए स्थान पर निर्वासित किए जाने का दंड दिया गया। शाही परिवार को पहले इलाहाबाद, फिर कलकत्ता और आखिरकार चार दिसंबर, 1858 को जलयान ‘मगोएरा’ द्वारा डायमंड हार्बर से रंगून के लिए रवाना कर दिया गया और वे 10 दिसंबर, 1858 को वहां पहुुंच गए। जफर जब रंगून पहुंचे तो वे 83 साल के थे। वहां रहने के दौरान उनकी सेहत काफी बिगड़ गई। उनके गले में लकवा हो गया और अंतत: सात नवंबर 1862 को उनका निधन हो गया।
अपने आखिरी दिनों में जफर की मन:स्थिति क्या थी, वे क्या सोच रहे थे, उनका अकेलापन किस कचोट से भरता जा रहा था; इसके लिए उन्होंने खुद कहा है- कितना है बदनसीब ‘जफर’ दफ्न के लिए / दो गज जमीन भी न मिली कू-ए-यार में। जफर के होने और जफर के जाने के बीच इस मुल्क ने जिस तरह जंगे आजादी को एक राष्ट्रीय संकल्प के रूप में मजबूत किया, वह इस देश की वीरता और स्वाधीनता के अडिग इरादे की ऐसी तारीख है, जो आज भी हमारे लिए जीवंत प्रेरणा की तरह है।