यह अजीब विडंबना है कि एक तरफ लाखों आवास खाली पड़े हैं और दूसरी ओर करोड़ों लोगों के सिर पर छत नहीं है। देश में करीब एक करोड़ आधुनिक साज-सज्जायुक्त महज पिकनिक स्पॉट बन कर रह गए हैं। पिछले दस-ग्यारह वर्षों में गरीब तबकों के लिए बनाए गए दस लाख मकानों में से तेईस फीसद आवासों में 2005 से कोई रहने वाला नहीं है। एक मोटे अनुमान के अनुसार देश में करीब ढाई करोड़ लोग छत के लिए मोहताज है। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सबको आवास लक्ष्य को लेकर योजनाएं बनाई जाती है। गरीबों के लिए आवास बनाए जाते हैं, फिर भी गरीब लोगों को खुले में सोते या इधर-उधर सड़क या किसी पुल या अन्य स्थान पर कच्ची पक्की झोपड़ी बनाकर रहते देखा जा सकता है।
सरकार द्वारा इन गरीबों को छत मुहैया कराने के लिए बड़ी संख्या में आवास निर्माण कराए जाते हैं पर रहने वालों की रुचि नहीं होने से यह आवास या तो अपराधियों का अड्डा बन जाते हैं या खाली पड़े-पड़े जर्जर हो जाते हैं या फिर अतिक्रमण की भेंट चढ़ जाते हैं। इसको इसी से समझा जा सकता है कि अकेले दिल्ली में गरीबोें के लिए बनाए गए आवासों में से काफी संख्या में मकान खाली हैं। यह दिल्ली की ही स्थिति नहीं है कमोबेश यही स्थिति देश के अन्य स्थानों की है। मध्यप्रदेश में 45 फीसद, महाराष्ट्र में 42, आंध्र प्रदेश 37, तेलंगाना में 24, गुजरात में 18, तमिलनाडु में 11 फीसद और अन्य प्रदेशों में बड़ी संख्या में इस तरह के आवास खाली पड़े हैं। सिर ढकने को छत नहीं होने के बावजूद इन आवासों का खाली रहना विचारणीय है।
इस तरह से सरकारी धन की बर्बादी हो रही हैं वहीं देश में एक करोड़ से अधिक बंगले खाली पड़े हैं, इन आधुनिक सुविधाजनक साज -सज्जायुक्त बंगलों में कोई रहता नहीं। वे पिकनिक स्थल हैं। दूसरी ओर लाखों लोग सिर छुपाने के लिए एक अदद छत के मोहताज है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक देश में एक करोड़ दस लाख घरों में रहने वाला कोई नहीं हैं। एक तरफ सरकार नियत समय सीमा में सबको आवास देने की नीति पर काम कर रही है। वहीं पैसे वालों के पास एक से अधिक मकानोें के होने से सामाजिक विषमता बढ़ती जा रही है। केंद्र में शहरी विकास मंत्रालय और राज्यों में नगरीय विकास मंत्रालय इस दिशा में आगे बढ़े हंै। इसके बावजूद सबको आवास का सपना पूरा नहीं हो पा रहा है। गरीबों को आवास उपलब्ध कराने के लिए वहनीय आवासीय योजनाओं का प्रावधान, इनके नियम-कायदे और नित नई नीतियां बन रही हैं, इसके बावजूद दो करोड़ से अधिक लोगों के पास आवास सुविधा नहीं होना गरीबों के लिए बनाए लाखों मकानों में रहवास की दरकार और एक करोड़ से अधिक घरों में कोई रहने वाला नहीं होना विसंगति दर्शाता है।
केंद्र और राज्य सरकार की आवासीय नीतियों के बावजूद आर्थिक दृष्टि से कमजोर और निम्न आय वर्ग के लोगों का घर का सपना पूरा नहीं हो पा रहा है। एक समय था जब नगरीय विकास संस्थाएं यानी की नगर निगम, पालिकाएं, विकास प्राधिकरण आदि आवासीय योजनाएं लाते थे, उसमें कमजोर आर्थिक आय वालोें के लिए अधिक मकान होते थे। अब तो सरकारी आवासीय योजनाएं तो नाममात्र की रह गई हंै। आज बड़े बड़े बिल्डर हैं। उनके विज्ञापनों से अखबार भरे रहते हैं। योजनाओं से पेज के पेज भरे रहने के बावजूद समस्या जस की तस दिखाई देती है। इनकी योजनाओं में भी अमीर आदमी ही प्राथमिकता में हैं। इसके साथ ही योजनाएं इस कदर दूर हो रही हैं कि वहां मकान लेने के लिए आदमी उत्साहित नहीं हो रहा है। यही कारण है कि निजी बिल्डरों की योजनाएं निवेश के लिए तो वरदान बन रही है पर वास्तविक जरूरतमंदों के लिए दूर की कौडी ही रह जाती हैं। दरअसल समस्या की जड़ में गरीब आदमी है। देश में ढाई करोड़ घरों की जो आवश्यकता मानी जा रही है इसमें से 90 फीसद आवश्यकता कमजोर और मध्यम आय वर्ग के लोगों की है। गरीबों के दस लाख मकानों में से तेईस फीसद मकान खाली पड़े हैं। इसके पीछे जो कारण है उसे भी समझना होगा।
ऊं चे दामों वाले मकानों तक आम आदमी की पहुंच नहीं होने से समस्या यथावत रह जाती है। सरकारी योजनाओं में अवश्य अल्प आय वर्ग के लोगों के लिए आवास रखे जाते हैं पर कुछ कारणोें से इसका सकारात्मक परिणाम नहीं आ पाता है। देखा जाए तो शुरुआती दौर में गुजरात, महाराष्ट्र में हाउसिंग कोआॅपरेटिव सोसायटियों ने आम लोगों की मकान की आवश्यकता को पूरा करने में योगदान दिया था।
जिसके पास पैसा है वह रियल एस्टेट में पैसों को लगाना लाभ का सौदा मानता है। वहीं इस क्षेत्र में बिल्डरों के आने से मकान गरीब लोगोें की पहुंच से बाहर होता जा रहा है। सरकार द्वारा जो आवासीय योजनाएं बनाई जाती हैं, वे उनके रोजगार क्षेत्र से इतनी दूर होती हैं कि वह दो जून की रोटी का जुगाड़ करने के चक्कर में इतनी दूर मकान नहीं ले पाता। यही कारण है कि जो वहनीय आवासीय योजनाओं में गरीबों के मकान बने हैं वे दूर होने के कारण या तो खाली पड़े हैं। रियल एस्टेट में पूंजी लगाने वाले लोग दूरी की कोई परवाह नहीं करते हुए मकान ले रहे हैं। शहरों का विस्तार तो हो रहा है पर यह विस्तार पैसे वालों के लिए ही है। गरीब आज भी इसी तरह से छत के लिए मोहताज है।
सरकार को इस तरह की नीति बनानी होगी कि सरकारी या गैरसरकारी किसी भी तरह की आवासीय योजना में गरीबों के लिए निश्चित सीमा तक भूखंड या आवास हो और उनका दर गरीब की पहुंच में हो, इसके साथ ही इन आवासों के पास ही उसे रोजगार के साधन मिल सकें और कम से कम आवश्यक बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध हों तो इस विसगंति को दूर किया जा सकता है।
सरकार को नई आवासीय नीति बनाते समय यह देखना होगा कि करोड़ों मकान खाली होने के बावजूद छत के मोहताज लोगों की संख्या क्योंं बढ़ रही हैं। इसका हल खोजकर ही सरकार 2022 तक सबको मकान का सपना पूरा कर सकती है। १
(राजेंद्र कुमार शर्मा)