1991 बैच के आइएएस अधिकारी अशोक खेमका का आरोप है कि आज के दौर में नौकरशाही एक तरह से अप्रासंगिक हो गई है। खेमका ने कहा कि सरकारी दफ्तर सेवा व उत्पाद बेचने वाले सलाहकारों का गढ़ बन चुके हैं। जिस जनता को अपने हितों का पूरा ज्ञान नहीं उस जनता के पक्ष में होने का मतलब सत्ता के खिलाफ हो जाना है। 33 साल में 57 तबादलों को लेकर अशोक खेमका ने कहा कि मुझे गर्व है कि मेरा नाम आइएएस अफसरों में गिना जाएगा, दलालों में नहीं। उन्होंने कहा कि आइएएस अफसर निर्भीक हुए बिना अपने ज्ञान का उपयोग नहीं कर सकते। चंडीगढ़ में अपने निवास पर अशोक खेमका ने कार्यकारी संपादक मुकेश भारद्वाज से विभिन्न मुद्दों पर विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के चुनिंदा अंश।
आज से तीन दशक पहले एक युवा आंखों ने आइएएस बनने का सपना देखा, उसे पूरा किया और नौकरशाही में अपने हिस्से का इतिहास रच दिया। आज कैसे देखते हैं इस सफर को?
अशोक खेमका: अस्सी के दशक के दौर में बतौर आइआइटी इंजीनियर, मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च में अनुसंधानकर्ता के रूप में काम कर रहा था। मेरा मन आम आदमी की रोजमर्रा की जिंदगी की मुश्किलों के अनुसंधान की तरफ मुड़ गया। किशोरावस्था की सीढ़ियां ‘एंग्री यंग मैन’ अमिताभ बच्चन की फिल्मों के साथ चढ़ा था तो लगा अच्छे प्रशासन से आम आदमी की सारी दिक्कतें ठीक की जा सकती हैं। अपने पहले प्यार अनुसंधान को छोड़ कर प्रशासनिक सेवा में आया। प्रशिक्षण अकादमी में सारी आदर्शवादी बातों को दिल से लगाया। जेहन में एक ही बात गूंजती थी, कुछ गलत नहीं होने दूंगा। अब जब सेवा के लगभग तीन महीने बचे हैं तो देख रहा हूं कि क्या खोया, क्या पाया…।
मेरा अगला सवाल शब्दश: यही है कि क्या खोया क्या पाया?
अशोक खेमका: आइएएस में आने के बाद मैंने अपने पहले प्यार अनुसंधान को खोया है। एक वैज्ञानिक के रूप में जब आप कोई शोध कर किसी नतीजे पर पहुंचते हैं, तो उससे जो परम सुख मिलता है, वैसे सुख का अनुभव प्रशासन में नहीं मिल सकता। हर इंसान अपने संदर्भों के साथ जीता है। आज तुलनात्मक रूप से सोचता हूं, मैं खुद से इतनी जिद नहीं करता, समझौता कर लेता तो क्या होता? आम जनमानस का नुकसान का हक छीन किसी ताकतवर को अनुचित लाभ पहुंचाता? अपनी आवाज उठाने की मैंने भारी कीमत चुकाई है। खास कर जब दस साल तक मुझे बिना काम के रखा गया, तो इस बात का खासा दुख रहा कि सरकारी पैसे से जो तनख्वाह मिली उसका पूरा ‘रीपे वैल्यू’ नहीं किया। पिछले छह साल में जब मुझे अदालती काम मिला, तो हरियाणा में हर साल मैंने करीब छह सौ मामलों तक में फैसला दिया। आज आप वित्त आयुक्त का कोई भी फैसला उठा लें, तो हर दस में से छह-सात निर्णय अशोक खेमका के मिलेंगे। यह एक संतुष्टि है। आज भी जब अपने आस-पास की प्रशासनिक व्यवस्था पर नजर दौड़ाता हूं, तो महसूस होता है कि जितना काम करने की मेरी क्षमता थी, उतना मौका नहीं मिला। मेरे साथ-साथ व्यवस्था ने भी बहुत कुछ खोया है।
क्या कारण था कि आपको मौका नहीं दिया गया।
अशोक खेमका: शायद कुछ शक्तियों को मुझसे भय रहा होगा।
इसलिए कि आप आसानी से झुकने वालों में से नहीं थे?
अशोक खेमका: मैं ऐसा नहीं था कि आपके भीतर चाबी भरी और आप ताली बजाने लगें। स्वतंत्र दिमाग को व्यवस्था में आसानी से बर्दाश्त नहीं किया जाता। सही को सही और गलत को गलत कहना आसान नहीं होता। मूलत:, फाइलों में तीन प्रकार का काम होता है। एक जो तथ्य है उसे प्रस्तुत करे, यह प्रथम स्तर का काम है। मध्य स्तर का काम तथ्य का विश्लेषण करना और तीसरे व अंतिम स्तर पर सक्षम अधिकारी द्वारा निर्णय लेना होता है। अगर पहले स्तर पर कोई चूक हुई तो मध्य व अंतिम स्तर पर इसे ठीक किया जा सकता है। आजकल तीसरा स्तर यानी निर्णय पहले हो जाता है। बाकी निचले दो स्तरों पर सिर्फ निर्णय की संस्तुति होती है। निर्णयकर्ता के अलावा कोई और अपनी भूमिका नहीं निभाता। पूरी प्रक्रिया में जिसने भी विपरीत विश्लेषण दिया, वो समझो मारा गया। सत्य का गला घोंटा जाता है।
किसी का नायक, किसी के लिए खलनायक भी होता है। देश में बड़ा तबका आपको आदर्श मानता है। उसे इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि आपके 57 तबादले हुए। लेकिन जो आपने किया वो सबको दिखता है। इन सबके बीच क्या कभी आकलन करते हैं कि कहां चूक रह गई?
अशोक खेमका: अपनी आत्मा को मारने के लिए आप खासा प्रशिक्षण लेते हैं। जब आप पहली बार कोई गलत काम करते हैं तो आत्मा कचोटती है फिर धीरे-धीरे फर्क पड़ना बंद हो जाता है। मगर खुद को जिंदा रख लें तो आप भी वही करेंगे जो मैंने किया। अगर मुझे यह जिंदगी दोहरानी हो तो मैं फिर से यही करूंगा। मुझे सिर्फ एक बात का खेद रहेगा कि अपने कर्त्तव्य को निभाते हुए मुझे मेरे न्यायोचित हक से वंचित किया गया। मुझे कभी किसी ने यह बात नहीं कही कि आप इस काम में दोयम पाए गए, जिस बात के लिए आपको पार्श्व में रखा जाए या तबादला कर दिया जाए। किसी वैयक्तिक हित में काम नहीं करने पर आपको भारी दंड देना पड़ेगा, इस खेदजनक स्थिति के बारे में समाज को भी विचारना होगा। दूसरा पक्ष यह है कि मुझे जो समाज से मिला, वह बहुत कम आइएएस अफसर को मिलता है।
ऐसा क्या है जो आपको मिला और आपके समकक्षों को नहीं मिल पाया?
अशोक खेमका: आज आइएएस अफसरों का नाम लिया जाए, तो शायद मेरा नाम अग्रणी रहेगा। दलालों की दुनिया में मेरी अहमियत नहीं। यही सबसे बड़ी उपलब्धि है।
गड़बड़ी सामने आने पर शर्मिंदगी तो दलालों को भी होती है। उन्हें सेवा-काल में सजायाफ्ता भी कर दिया जाता है।
अशोक खेमका: मैंने छह सरकारों में देखा, एक जैसी व्यवस्था चली आती रही है। बहुत कम बदलाव दिखता है। आपके आसपास दलाल घिरे रहते हैं। नौकरशाही में मेरा अनुभव रहा है कि लोग सीखते कम हैं। अक्सर अफसर सिर्फ हां या ना बोलते हैं, लेकिन बहुत कम ठीक ढंग से विश्लेषण करते हैं। मुद्दों को समझने की क्षमता कम है। उन्हें अगर दफ्तर में अकेला बैठा दिया जाए तो वे खुद को निरुपाय पाएंगे। मैंने मेहनत करके चीजें सीखी हैं। मेरे पास बहुत कुछ करने का दम है। कुछ लोग सीख देते हैं कि आप थोड़ा समझौता करके अपनी क्षमताओं का पूर्ण इस्तेमाल कर सकते थे। लेकिन इस तरह से क्या संभव था? समझौते के बाद मेरी क्षमता का उपयोग किसी के निजी हित के लिए होता, आम जन के हित के लिए नहीं। आज के दौर में देखता हूं कि ज्यादातर जगहों पर ‘कंसल्टेंट’ (सलाहकार) भरे हैं। हर सलाहकार कोई सेवा या उत्पाद बेचना चाहता है। सलाहकार अपने तरीके से नीति बनाते हैं, टेंडर निकालते हैं। असल में सरकारी दफ्तर निजी सामान और सेवा बेचने वाले सलाहकारों के गढ़ बन चुके हैं। क्या खरीदना है, क्या बेचना है यह सब सलाहकारों द्वारा पहले से तय कर लिया जाता है।
ये सलाहकार सरकार द्वारा नियुक्त होते हैं?
अशोक खेमका: शब्दश: ऐसा नहीं कह सकते हैं। यह बीच-बीच वाला मामला है। आज के दौर में नौकरशाही एक तरह से अप्रासंगिक हो गई है। आपूर्तिकर्ताओं और निर्णयकर्ताओं के बीच का जटिल संबंध बन गया है। इन सब का कारण अक्षमता ही है। आने वाली कृत्रिम बौद्धिकता की दुनिया में प्रशासनिक सेवा के लिए साधारण ग्रेजुएट की योग्यता मेरी समझ से परे है। यह नाकाफी है। अभी मैं यातायात विभाग में हूं। सड़क सुरक्षा में भी तकनीकी प्रशिक्षण जरूरी है। मैं भी कई काम में खुद को योग्य नहीं पाता हूं। इसकी जरूरत पूरी करने के लिए सलाहकार आते हैं। उदाहरणार्थ, राज्यपाल महोदय ने चंडीगढ़ मेट्रो के लिए व्यवहार्यता देखने के लिए कहा। अब सलाहकार आकर कह रहा है, इस प्रोजेक्ट का ‘आइआरआर’ 14 फीसद है। वो रोजाना ग्यारह लाख यात्रियों के हित आंकड़े दे रहा है। इस का आधार नहीं बता रहा। अब यह 11 लाख, वर्ष 2056 में पचास हजार हो, तो उसकी कैसे जिम्मेदारी तय होगी। 2025 और 2056 में जमीन-आसमान का अंतर है। परियोजना बन चुकी होगी, चल चुकी होगी। मैंने बैठक में उनसे पूछा कि आपके आंकड़ों का आधार क्या है? चंडीगढ़ में रोजाना ग्यारह लाख यात्रियों को किस तरह आंक रहे हैं? आपने कौन सा डाटा इकट्ठा किया है और किस आधार पर ये बात कह रहे हैं? अब इसकी व्यवहार्यता रपट को पढ़ कर मुझे तय करना पड़ेगा कि इसमें दी गई चीजें तार्किक हैं या नहीं? प्रशासनिक सेवा में काम करने के लिए इस तरह की क्षमता चाहिए। हरियाणा के गुड़गांव में रैपिड मेट्रो की डीपीआर में 2025 के लिए दैनिक यात्रियों की संख्या सात लाख आंकी गई थी। आज के समय में यह 45 हजार से कम है। इससे किसे लाभ और किसे हानि हुई। किस पर बोझ बढ़ा है? बैंकों पर और सरकार पर। मजा कौन ले रहा है? निजी लोग। इन सबका नुकसान अंतत: जनता को होता है। इस नुकसान की एकमात्र वजह यही है कि अफसर सही और गलत का आकलन करने का साहस नहीं करते।
नौकरशाही में आपकी एक छवि बन गई कि आप सवालयाफ्ता होते हैं। आपसे टकराव होना तय माना जाने लगा। आज की तारीख में क्या यह महसूस करते हैं कि मैं ठीक था?
अशोक खेमका: ठीक तो निश्चित रूप से था। लेकिन उसका भारी मूल्य चुकाया है मैंने। गलत सजा होने पर दुख तो होता है। आजाद मुल्क की मांग के कारण विदेशी साम्राज्य ने भगत सिंह को फांसी की सजा दी और उन्होंने शहीद का दर्जा पाया। आजाद भारत में कोई सही काम करे और उसे फांसी की सजा दी जाए, तो फिर क्या कहेंगे? भगत सिंह का हासिल है कि वे देश के आदर्श हैं। यहां निजी हित और जनता के हितों के बीच की जंग है। आप निजी हितों के खिलाफ मुखर हो जाते हैं और दूसरी तरफ जनता को अपने हितों के बारे में भी पूरा ज्ञान नहीं है। जनता की तरफ होना सत्ता से टकराव लेना हो जाता है। मैंने समझौता करना नहीं चुना और यह चुनाव मेरा निजी था।
एक भूमि सौदा हुआ और आरोपों के घेरे में राबर्ट वाड्रा आए। आरोपों के कारण सरकार गिर गई। आज उस मामले का हासिल क्या है?
अशोक खेमका: जुलाई 2024 में भूतपूर्व मुख्यमंत्री ने उस जमीन सौदे पर बयान दिया कि उसमें कुछ गैरकानूनी नहीं था। इस बयान का मुझे दुख है। उन्होंने कहा कि एक जांच आयोग ने ऐसी रपट दी। लेकिन उस जांच आयोग की रपट को हाई कोर्ट ने सार्वजनिक करने की इजाजत नहीं दी। सरकार ने आयोग पुनर्गठित भी नहीं की। जहां तक बात सौदे की है, तो उसे माननीय प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने बाद में अपने बयानों में स्पष्ट कर दिया।
आप शायद मनोहर लाल खट्टर के बयान की तरफ इशारा कर रहे हैं। खट्टर ने जो बात कही वही उनके पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री कहते रहे हैं।
अशोक खेमका: देखिए, मेरे लिए यह भाजपा बनाम कांग्रेस का मसला नहीं है। क्या सही है और क्या गलत, सब जानते हैं। ढींगरा आयोग ने प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों की पालना में चूक की, इसी वजह से इसकी रपट को कोर्ट ने सही नहीं ठहराया। यह गलत है कि कोर्ट में और कोई केस ‘पेंडिंग’ है। इस मामले में पुलिस ने एक केस निजी शिकायत पर दर्ज किया, लेकिन उसकी जांच भी सुस्त है।
देश की शीर्ष सेवा के लिए ऐसा माहौल बन गया है कि हर जगह खास तरह का गठजोड़ दिखता है। अंग्रेजों के जमाने की उपमा को उधार लें तो प्रशासनिक अधिकारी सरकार बहादुर के गुलाम हैं। क्या आपको लगता है कि सिविल सेवा की साख खराब हुई है?
अशोक खेमका: जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधि की अगुआई में चलना नौकरशाही का कर्त्तव्य है लेकिन संविधान के चार घेरे के भीतर में। आप संवैधानिक नियमों से बंधे हुए हैं। एक नौकरशाह अपनी नीति नहीं बना सकता। यह चुने हुए प्रतिनिधि का काम है। कौन से नौकरशाह की कहां तैनाती होगी यह भी जनता का प्रतिनिधि तय करता है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से नियमों में बदलाव हुआ और ‘सिविल सर्विस बोर्ड’ का गठन हुआ। लेकिन बोर्ड रबड़ स्टैंप ही बना रह गया।
आपको नहीं लगता कि सिविल सेवा पर किसी तरह का गठजोड़ हावी हो चुका है?
अशोक खेमका: इस पर मैं टिप्पणी क्यों करूं। ऐसा कुछ है तो इसे सामने लाना आपका काम है।
इतने लंबे सेवाकाल में कभी लगा कि गर मैं भी श्रीमान समझौतापरस्त होता?
अशोक खेमका: ऐसा कभी नहीं लगा।
सरकारी विभागों के बीच की आपसी तकरार कितना प्रभावित करती है।
अशोक खेमका: अंतरविभागीय संयोजन एक बड़ा कौशल है। कोई अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता।
सिविल सेवा में प्रवेश के पहले चरण पर कोचिंग संस्थानों का कब्जा हो चुका है। सरकार इस पर कैसे काबू पाए?
अशोक खेमका: हमारे देश में एक रूढ़ि बन जाती है। आप कितने अच्छे डाक्टर बनेंगे इसमें नीट की कोई भूमिका नहीं है। आप कितने अच्छे इंजीनियिर बनेंगे इसमें जेईई परीक्षा की कोई प्रासंगिकता नहीं है। आप कितने अच्छे और निर्भीक प्रशासनिक अधिकारी बनेंगे इसमें सिविल सेवा परीक्षा की कोई प्रासंगिकता नहीं है। प्रशासनिक सेवा के लिए जरूरी है आपका निर्भीक होना, जिसकी जांच यूपीएससी में नहीं होती। साहस से ही आप अपने ज्ञान का इस्तेमाल करते हैं और ईमानदारी काम आती है। बिना साहस के आपका ज्ञान और ईमानदारी दोनों बेकार हैं।
सेवानिवृत्ति के बाद क्या राजनीति का रुख करेंगे?
अशोक खेमका: सर्विस के दौरान ऐसी इच्छा रखना संवैधानिक मर्यादा के अनुकूल नहीं। सेवानिवृत्ति के बाद जो उचित होगा, करूंगा।