जबसे किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर आकर राजधानी का घेराव शुरू किया है, मेरे दिमाग में अटल बिहरी वाजपेयी का एक बयान बार-बार घूम रहा है। राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और संसद में भारतीय जनता पार्टी के सिर्फ दो सांसद थे, लेकिन अटलजी की निजी लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई थी। सो, जब भी दिल्ली में कोई भाषण दिया करते थे, भीड़ इकट्ठा कर लेते थे। उस दिन रामलीला मैदान में एक आमसभा को संबोधित कर रहे थे, जिसमें उन्होंने अपने खास अंदाज में राजीव गांधी का मजाक उड़ाया इन शब्दों में- ‘आजकल प्रधानमंत्री इक्कीसवीं सदी में जाने की बहुत बातें करते हैं। पूछना यह है कि अकेले ही जा रहे हैं कि हमको भी साथ लेकर जाएंगे।’
लोगों को हंसाने में माहिर थे अटलजी, लेकिन उनके मजाक में हमेशा गंभीरता छिपी रहती थी। सो, यह कहने की कोशिश कर रहे थे, हंसी-मजाक में, कि इक्कीसवीं सदी में ले जाने के लिए राजीव गांधी ने देश की जनता को तब तक नहीं समझाया था कि इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उन्होंने कौन-से कदम उठाए हैं, जिसमें जनता उनके साथ कदम मिला कर चल रही हो। किसान अगर मोदी सरकार के विरोध में डटे हुए हैं आज, तो शायद इसलिए कि कृषि सुधार करने का प्रयास हुआ है फरमानों के जरिए, किसानों से सलाह-मशवरा करके नहीं।
कभी वह समय था जब नरेंद्र मोदी खुद मानते थे कि लोकतंत्र में सबसे जरूरी चीज है जनआंदोलन द्वारा परिवर्तन लाना। याद है मुझे इंडिया टुडे का एक वार्षिक सम्मेलन, जिसमें मोदी मुख्य अतिथि थे और उनको सुनने दिल्ली के वे तमाम लोग आए हुए थे, जिनको आजकल ‘लटयन्स’ कह कर दुत्कारते हैं मोदी के भक्त। मोदी ने अपने भाषण में देश के भविष्य का ऐसा सुनहरा सपना दिखाया कि वहां जो उनके आलोचक थे, वे भी मान गए कि मोदी अगर प्रधानमंत्री बनते हैं तो परिवर्तन और विकास लाकर दिखाएंगे हमारे इस थके-हारे देश में। मोदी ने लेकिन उनका उत्साह देख कर उनकी तालियां सुन कर याद दिलाया कि परिवर्तन लाना किसी प्रधानमंत्री के हाथों में नहीं है, जनता के हाथों में है। याद दिलाया कि गांधीजी ने अगर स्वतंत्रता संग्राम को जनआंदोलन का रूप नहीं दिया होता तो शायद सफल न होता। समझ में नहीं आता कि उस जनआंदोलन वाली बात को मोदी खुद कैसे भूल गए हैं?
दिल्ली में बैठे बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री कहते हैं कि जो नए कृषि कानून लाए गए हैं उनसे ग्रामीण भारत का चेहरा बदल जाएगा, बिलकुल वैसे जैसे लाइसेंस राज के समाप्त किए जाने से शहरी भारत का बदला था। याद कीजिए, किस तरह रोजगार के नए अवसर इतने सारे पैदा हो गए थे कि मध्यवर्ग में करोड़ों भारतीय गरीबी रेखा के नीचे से ऊपर उठ गए थे। याद कीजिए, किस तरह निजी क्षेत्र में भारतीय कंपनियां अचानक इतनी बड़ी और अमीर हो गई थीं कि दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों का मुकाबला करने लगी थीं। याद कीजिए किस तरह भारत की छवि दुनिया की नजरों में देखते-देखते एक उभरते आर्थिक महाशक्ति की बन गई थी।
हो सकता है कि मोदी सरकार इसी किस्म का परिवर्तन लाना चाहती है कृषि क्षेत्र में। हो सकता है, इन कानूनों के पीछे सरकार का इरादा नेक था। समस्या सिर्फ यह है कि इस बात को वह किसानों को समझा नहीं सकी है अभी तक। वह इसलिए कि समझाने की थोड़ी भी कोशिश जमीन पर नहीं दिखी है। अचानक एक दिन फरमान आया किसानों को कि उनके भविष्य को बेहतर बनाने के लिए अब निजी मंडियां खुलने वाली हैं, ताकि बिचौलियों के चंगुल से वे निकल सकें।
किसी ने किसानों से नहीं पूछा कि ऐसा परिवर्तन उनको चाहिए कि नहीं। बस फरमान आया। भूल गए हैं शायद प्रधानमंत्री कि परिवर्तन तभी आता है जब जनता को साथ लेकर सरकारें चलती हैं। अकेले ही जाते हैं आगे जो राजनेता, उनको कभी न कभी जनता याद दिला ही देती है कि लोकतंत्र में मालिक कौन है और सेवक कौन।
सीमा पर जब पत्रकार जाते हैं किसानों से बातें करने, तो अक्सर उनको बताया जाता है कि ये ‘काले कानून’ सरकार को वापस लेने ही होंगे, क्योंकि इनको बनाया गया है उनकी सहमति के बिना। पत्रकार खुद शहरी हैं, तो उनको समझ सिर्फ यह आया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य ही सबसे बड़ा मुद्दा है। तो लंबे-चौड़े लेख छपे हैं पिछले दिनों, जिनमें जाने-माने अर्थशास्त्री आरोप लगाते हैं पंजाब और हरियाणा के किसानों पर कि ये देश के सबसे धनी और बिगड़े हुए किसान हैं।
पूछते हैं इन लेखों में ये विद्वान कि बाकी देश में क्यों नहीं हल्ला मच रहा है इन कानूनों को लेकर। शायद जानते नहीं हैं कि पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों के लिए एक ऐसी व्यवस्था बनी हुई है, जिसके ऊपर उनका पूरा भरोसा है। डरते हैं ये कि बड़े-बड़े उद्योगपति अपनी मंडियां खोलने लग गए तो सरकारी मंडियां धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगी।
ऐसा नहीं है कि कृषि क्षेत्र में सुधारों की आवश्यकता नहीं है। लेकिन ऐसा जरूर है कि किसानों को साथ लिए बिना कोई परिवर्तन नहीं आने वाला। प्रधानमंत्री को याद करनी होगी अपनी ही कही वह बात कि जनआंदोलन के बिना लोकतांत्रिक देशों में परिवर्तन लाना असंभव है। वरना उनकी सरकार को अकेले ही जाना पड़ेगा इक्कीसवीं सदी की तरफ अगर किसान उनको आगे बढ़ने देंगे। याद रखना होगा प्रधानमंत्री को कि जब कोई राजनेता बादशाही अंदाज में गद्दी से फरमान देता है, तो अक्सर आम लोगों की प्रतिक्रिया होती है विरोध। इन कानूनों पर चर्चा तक नहीं हुई थी संसद में, तो यह फरमान ही है।