पिछले सप्ताह ऐसा लगा जैसे इस देश के अच्छे दिन कहीं उड़ गए हैं। उत्तराखंड में ऐसी आपदा आई कि पूरे गांव के गांव बह गए नदियों के पानी में। अभी तय नहीं है कि भागीरथी नदी में उफान बादल फटने से आया था या हिमालय की ऊंचाइयों में किसी बर्फीली झील के अचानक पिघल जाने से। कारण से क्या वास्ता, जब इतनी तबाही देखने को मिलती है। मौसम विशेषज्ञों से जब पूछा गया कारण के बारे में, तो उन्होंने साफ कह दिया कि यह सवाल बाद में पूछे जाएंगे, फिलहाल जरूरी है उन लोगों को बचाना, जिनको बचाया जा सकता है।

बात है तो सही, लेकिन इस बात को हम सुनते आए हैं जाने कब से। हर साल इस तरह के नजारे दिखते हैं। हर साल सुनते हैं कि पहाड़ों में जो अनियोजित शहर बन गए हैं, उन्होंने पहाड़ों को कमजोर कर दिया है, लेकिन नदियां शांत होने के बाद हम भूल जाते हैं इस बात को। मेरी पढ़ाई देहरादून में हुई थी, इसलिए मैंने अपनी आंखों से देखे हैं वे दिन जब इन पहाड़ों में छोटे गांवों के अलावा कुछ नहीं होता था। उन गांवों को शहरों में तब्दील होने किसने दिया है जब दुनिया जानती थी उन दिनों से कि पहाड़ों में अगर शहर बनते हैं, तो उनको नियोजित तरीके से बनाना चाहिए ताकि पहाड़ कमजोर न हों। जहां अब चौड़ी सड़कें बन गई हैं उन दिनों कच्ची पगडंडियां और पतली सड़कें हुआ करती थीं। हम स्कूल से अक्सर घूमने जाते थे इन पहाड़ों में और अक्सर पैदल जाया करते थे चढ़ाई करने।

अब ‘विकास’ का रथ कोई नहीं रोक सकता

विकास को कोई रोक नहीं सकता है, इसलिए विकास होता ही गया, लेकिन प्रकृति को ध्यान में रख कर नहीं। हमारे शासकों को जब दिखता है कि अनियोजित निर्माण से उनका निजी लाभ होता है, तो रोकेगा कौन? कुछ ऐसा ही हुआ है और अगर इस बार भी कोई ठोस कदम नहीं उठाए जाते हैं अनियोजित शहरीकरण रोकने के लिए, तो ऐसी आपदा अगले साल भी आएगी। इस बार आपदा पर अगर हमारा ध्यान कम गया है, तो इसलिए कि अमेरिका के राष्ट्रपति ने ऐसा झटका दिया है भारत की अर्थव्यवस्था और हमारी कूटनीति को कि भारत सरकार के ऊंचे गलियारों में कम ही लोग हैं जो समझ सकते हैं फिलहाल कि नरेंद्र मोदी का यह कथित जिगरी दोस्त क्यों अब दोस्त न रहा।

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हम अपने राजनीतिक पंडितों की नजरों से देखें, तो यही अनुमान लगाया जा रहा है कि डोनाल्ड ट्रंप को हमारे प्रधानमंत्री ने क्रोधित किया था जब लोकसभा के अंदर उन्होंने अपने भाषण में स्पष्ट किया कि ‘आपरेशन सिंदूर’ को किसी भी विदेशी नेता के कहने पर नहीं रोका गया था। ट्रंप कई बार कह चुके हैं और आज भी कहते रहते हैं कि उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध को रोका। ऐसा कहना जरूरी हो गया है शायद इसलिए कि उनका दावा था कि उनके राष्ट्रपति बनने के चौबीस घंटे बाद वह रूस और यूक्रेन का युद्ध रोक सकेंगे और इजराइल का गाजा पर हमला भी।

ऐसा जब नहीं हुआ, तो नोबेल शांति पुरस्कार का सपना डूबने लगा सो कहना पड़ रहा है कि ‘कई और युद्ध मैंने रोके हैं, भारत और पाकिस्तान वाले युद्ध को मैंने रोका है।’ विदेशी पंडितों का कहना कुछ और है। उनका कहना है कि भारत पर 50 फीसद शुल्क लगाए गए हैं रूस को नियंत्रण में लाने के लिए। पुतिन ने जब से यूक्रेन पर हमला बोला है, उन पर आर्थिक पाबंदियां सख्ती से लगाई हैं यूरोप और अमेरिका ने। मगर रूस की अर्थव्यवस्था पर नुकसान इतना नहीं दिखा है क्योंकि भारत और चीन रूसी तेल के सबसे बड़े ग्राहक बन गए हैं।

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चीन हमसे कहीं ज्यादा रूसी ऊर्जा खरीदता है, लेकिन ट्रंप जानते हैं कि चीन की आर्थिक शक्ति इतनी है कि उससे पंगा लेना खतरे से खाली नहीं है। इसलिए भारत की अर्थव्यवस्था पर धावा बोला जाए, ताकि पुतिन की अकड़ थोड़ी कम हो जाए। इसका असर हुआ है, वह इससे पता लगता है कि ट्रंप अब पुतिन से मिलने की बातें कर रहे हैं।

तो हमको क्या करना चाहिए अब? मोदी अगर अपने पुराने दोस्त के दबाव में आकर रूस से तेल खरीदना बंद करते हैं, तो भारतवासियों की नजर में गिर जाएंगे। देश के आत्मसमान को गहरी चोट लग जाएगी। सो फिलहाल उन्होंने बीच का रास्ता चुना है और ट्रंप के सामने नहीं झुकने का कारण बता रहे हैं ‘हमारे किसानों का हित’। ट्रंप के लोगों से जब शुल्क की ‘डील’ बनाने गए थे वाणिज्य मंत्री और उनके आला अधिकारी तो बातचीत इस पर अटक गई कि हम अपना कृषि क्षेत्र नहीं खोल पाएंगे अमेरिका के लिए।

बात ठीक भी है। हमारे किसान ज्यादातर मुश्किल से गुजारा करते हैं पहले से, तो अगर अमेरिकी किसानों के उत्पाद से उनको मुकाबला करना पड़ेगा, तो अवश्य पिट जाएंगे। लेकिन क्या इस मुसीबत में कोई ऐसे सुधार किए जा सकते हैं कृषि क्षेत्र में, जिनसे हमारे किसानों को नए अवसर मिलें दुनिया के बाजारों में अपना सामान बेचने के लिए? ‘कोल्ड स्टोरेज’ का निर्माण होता है युद्धस्तर पर तो, जो सत्तर फीसद से ज्यादा फल, सब्जियां और फूल मरते हैं खेतों में, उनको बाजारों तक लाने का एक जरिया मिल जाएगा। विदेशी बाजार भी खुल जाएंगे और हो सकता है हमारे किसानों के जीवन में थोड़ी सी समृद्धि भी आने लगेगी। आर्थिक सुधार और भी हैं जो लटके पड़े हैं बरसों से और जिनके किए जाने से हमारी अर्थव्यवस्था की शक्ल बदल सकती है।

अर्थशास्त्रियों का कहना है कि भारत में आर्थिक सुधार तब ही किए जाते हैं जब कोई बड़ी समस्या आन पड़ती है। पिछली बार ऐसा ही हुआ था जब लाइसेंस राज समाप्त करने का फैसला किया गया था। अब ट्रंप की मेहरबानी से इंस्पेक्टर राज समाप्त करने का अवसर मिलेगा हमें।