राहुल गांधी जब पिछले सप्ताह बोले कि उनकी लड़ाई भारत राज्य से है, तो शायद भूल गए थे कि बतौर नेता प्रतिपक्ष लोकसभा में वे खुद इस ‘इंडियन स्टेट’ का हिस्सा हैं। भूल गए थे शायद यह भी कि ऐसा कह कर स्वीकार करते हैं कि वे अराजकतावादी हैं। बेशक उनको नहीं मालूम था किसी सरकार या किसी संस्था पर हमला करने और भारत राज्य पर हमले करने में फर्क, लेकिन लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद उनको इतना तो मालूम होना चाहिए था।

राहुल बोल रहे थे कांग्रेस पार्टी के नए मुख्यालय के उद्घाटन के अवसर पर। कोशिश उनकी थी इस बात को साबित करने की कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच लड़ाई विचारधारा की है। कांग्रेस संविधान को आधार बना कर अपनी राजनीति करती है और भारतीय जनता पार्टी की राजनीति का आधार है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा। हाल में सरसंघचालक के एक भाषण का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि मोहन भागवत ने जब कहा कि उस दिन भारत को असली स्वतंत्रता मिली थी, जिस दिन अयोध्या में राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा हुई थी, तो उनको गिरफ्तार कर लेना चाहिए था। क्योंकि ऐसा कहना गद्दारी है। फिर कुछ ज्यादा जोश में आकर उन्होंने कहा कि उनकी लड़ाई भाजपा और संघ के साथ तो है ही, लेकिन इसलिए कि लोकतंत्र की हर संस्था पर उनको संघ का कब्जा दिखता है आज, तो उनकी लड़ाई अब ‘इंडियन स्टेट’ के साथ भी है।

मैंने जब लोकतंत्र की संस्थाओं पर कब्जा करने वाली बात सुनी, तो ध्यान में आया कि शायद राहुल अपने राजनीतिक दल और अपने परिवार का इतिहास नहीं जानते हैं। जानते अगर तो कभी ऐसी बात न कहते, इसलिए कि लोकतंत्र की संस्थाओं पर कब्जा करने की जितनी महारत कांग्रेस और गांधी परिवार को है, किसी और को नहीं है। उनकी माताजी ने जिस नफासत से तीन बार प्रधानमंत्री की नियुक्ति की, उसका मुकाबला करना मुश्किल है।

पहली बार नरसिंह राव को नियुक्त किया 1991 में जब कांग्रेस को गठबंधन सरकार बनानी पड़ी थी पूर्ण बहुमत न मिलने के बाद। दूसरी बार जब 2004 में सोनिया गांधी ने अटल बिहारी वाजपेयी को हराया और कांग्रेस को लोकसभा में सबसे ज्यादा सीटें दिलवार्इं, तो प्रधानमंत्री खुद न बन कर उन्होंने डाक्टर मनमोहन सिंह को नियुक्त किया। तीसरी बार उन्होंने मनमोहन सिंह को ही नियुक्त किया 2009 में बिना यह देखे कि इस तरह की नियुक्तियों से प्रधानमंत्री का कद एक राजनीतिक दल के अध्यक्ष से छोटा हो जाता है। क्या ऐसा करना एक महत्त्वपूर्ण लोकतांत्रिक संस्था पर कब्जा नहीं था? जब डाक्टर साहब के दूसरे कार्यकाल में सोनिया ने अपनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद को डाक्टर साहब के मंत्रिमंडल से ज्यादा अहमियत दी, तो क्या एक और लोकतांत्रिक संस्था को नीचा दिखाने का काम नहीं था?

गांधी परिवार के जब भी प्रधानमंत्री रहे हैं, तो बाकी राजनेताओं को इतना बौना दिखाने का काम होता है कि जवाहरलाल नेहरू के बारे में कहा जाता था कि वे एक ऐसे वृक्ष हैं जिसके साये में कुछ नहीं बड़ा हो सकता है। जब इंदिरा गांधी की बारी आई, तो उन्होंने पहले कांग्रेस पार्टी ही तोड़ कर अपनी ‘कांग्रेस (इंदिरा)’ बनाई और फिर जब उनकी राजनीतिक कठिनाइयां ज्यादा बढ़ गर्इं देश में, तो आपातकाल लगा कर लोकतंत्र को ही ताक पर रख दिया। आपातकाल के अंधेरे का सहारा लेकर इंदिराजी ने अपनी सरकार और देश को चलाने का काम अपने छोटे बेटे के हाथों में दे दिया था।

कहने का मतलब यह है कि अगर उस समय इस तरह की चीजें करनी जायज थीं, तो आज अगर आरएसएस के लोग रौब जमा रहे हैं, तो इसको कम से कम राहुल गांधी तो गलत नहीं कह सकते हैं। लोकतंत्र की संस्थाओं को कमजोर किया जा रहा है राहुल गांधी की नजरों में, तो हो रहा है कांग्रेस की दशकों पुरानी परंपराओं की नकल करके। फर्क यह है कि कांग्रेस के दौर में वामपंथियों का जोर ज्यादा था और मोदी के दौर में हिंदुत्ववादियों का जोर ज्यादा है। ठीक कहा राहुल ने कि लड़ाई विचारधाराओं की है, लेकिन ऐसा नहीं कह सकते हैं कि लोकतंत्र की संस्थाओं को कमजोर करने का काम अभी शुरू हुआ है। दरअसल, बहुत पहले शुरू हो गया था। न होता तो देश के मतदाता अपनी ताकत बहुत पहले समझ गए होते।

जिन देशों में आम मतदाता अपनी शक्ति समझते हैं पूरी तरह, वहां राजनेताओं को अपनी अंगुलियों पर नचाने का काम करते हैं। कुछ हद तक ऐसा अब भारत में भी होने लगा है। इसलिए महिलाएं पिछले कुछ चुनावों में अपना वोट देने के लिए शौक से निकली हैं, जब भी किसी सरकार ने उनके खातों में पैसा जमा करना शुरू किया है किसी न किसी लाडली बहना योजना के तहत। मैं मानती हूं कि ऐसा करके राजनेता वोट खरीदने का काम कर रहे हैं, लेकिन यह भी स्वीकार करने को तैयार हूं कि जिन औरतों के खाते हमेशा खाली हुआ करते थे, जो मोहताज होती थीं अपने पतियों के सामने, उनको अगर थोड़ा बहुत मिल जाता है उनके अपने बैंक खातों में तो क्यों न खुश हों। वैसे यह भी कहना जरूरी है कि ऐसा करने से लोकतंत्र की एक और संस्था कमजोर की जा रही है, लेकिन इस तरह की योजनाओं के सबसे बड़े समर्थक राहुल गांधी हैं।

अगली बार जब भाषण देंगे राहुल, तो उनको थोड़ा सोच-समझ कर बोलना चाहिए कि क्या कह रहे हैं और किस आधार पर अंगुली उठा रहे हैं। राहुल के समर्थक कहते हैं कि उनका दिल बहुत साफ है, लेकिन उनमें थोड़ा बचपना अब भी है। इतने साल राजनीति में रहने के बाद अगर अब भी यह बहाना पेश किया जाता है, तो हंसी भी आती है और रोना भी।