एक छोटा-सा सुझाव विनम्रता से पेश करना चाहती हूं राहुल गांधी को। अपने सारे सलाहकार बदल डालिए। कम से कम उनको कूड़ेदान में फेंक दीजिए, जिन्होंने कर्नाटक के लिए आपका घोषणा पत्र तैयार किया था, वरना ऐसा लगने लगेगा कि एक बार फिर आपके करीबियों में उसी किस्म के लोग हैं, जिन्होंने 26/11 वाले जिहादी हमले को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर थोपने की कोशिश की थी। ऐसा न होता तो किसी हाल में बजरंग दल का नाम पीएफआइ (पापुलर फ्रंट आफ इंडिया) के साथ न जोड़ा होता इस घोषणा पत्र में।
इसमें कोई शक नहीं कि बजरंग दल ने सनातन धर्म को इतना गलत समझ लिया है कि इसके सदस्य अपना ज्यादातर समय मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने में लगाते हैं। जब कहीं सांप्रदायिक दंगे छिड़ जाते हैं, तो बजरंग दल के लोग हिंसा करने में सबसे आगे दिखते हैं। और अपनी हिंसा पर गर्व भी करते हैं। हाल में एक बजरंगी ने बीबीसी से कहा था कि गुजरात के दंगों के दौरान उसने एक गर्भवती मुसलिम महिला के पेट में तलवार से उसका अजन्मा बच्चा निकाला था और ऐसा करके उसको बहुत खुशी हुई थी।
ये शब्द कहे गए थे उस बीबीसी डाक्यूमेंट्री में, जिस पर मोदी सरकार ने पाबंदी लगाई थी। यह भी याद रखना चाहिए कि जिन लोगों को दंगों के बाद आजीवन कारावास हुआ था, उनमें बाबू बजरंगी भी थे, जो बजरंग दल के वरिष्ठ नेताओं में गिने जाते हैं। सो, जब प्रधानमंत्री खुद बजरंग दल के बारे में कहते हैं कि ये हनुमान भक्त हैं, तो सत्य को थोड़ा मरोड़ कर कह रहे हैं। असली हनुमान भक्त महिलाओं पर हमले नहीं करते हैं। असली हनुमान भक्त रक्षा करते हैं उन बेसहारा लोगों की, जो अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकते हैं।
बजरंग दल की बुराइयां गिनाने के बाद कहना जरूरी है कि इस संस्था की तुलना पीएफआइ से नहीं की जा सकती है किसी भी हाल में। इसलिए कि पीएफआइ जिहादी संस्था है, जिसके तार मजबूती से जुड़े हुए हैं उन जिहादी संस्थाओं से, जो सारी दुनिया में आतंक फैलाने का काम करती हैं इस्लाम के नाम पर। ये वे लोग हैं, जिन्होंने केरल में एक प्रोफेसर का हाथ काट दिया था, सिर्फ इसलिए कि उनको शक था कि इस बदकिस्मत प्रोफेसर टीजे जोसेफ ने इस्लाम के रसूल के साथ गुस्ताखी की थी। प्रोफेसर साहब की उसके बाद जिंदगी तबाह हो गई। उनकी पत्नी की मानसिक स्थिति इस हमले की वजह से इतनी बिगड़ गई कि उसने हमले के कुछ महीने बाद आत्महत्या कर ली थी। जिस कालेज में प्रोफेसर जोसेफ पढ़ाते थे वहां से बर्खास्त कर दिए गए।
कहने का मतलब यह है कि जब अपने देश में बजरंग दल जैसी संस्थाओं की तुलना की जाती है जिहादी संस्थाओं से, तो ये वही लोग करते हैं, जिनको अपने ‘सेक्युलरिज्म’ पर इतना गर्व है कि वे बड़े से बड़ा झूठ बोलने के लिए तैयार हैं। सो, कुछ वामपंथी इतिहासकार हैं अपने भारत महान में, जिन्होंने इतिहास की किताबों में लिखा है कि इस्लामी दौर में भारत में कोई भी मंदिर नहीं तोड़ा गया था। ऐसा लिखते हैं बावजूद इसके कि औरंगजेब ने अपने शब्दों में पूरी फेहरिस्त दी है उन मंदिरों की, जिनको उसके आदेश पर तोड़ा गया था।
राहुल गांधी के करीबी सलाहकारों में कभी दिग्विजय सिंह थे, जिन्होंने 26/11 वाले हमले के बाद मुंबई में आकर ऐसी किताब का समर्थन किया, जिसका शीर्षक था: 26/11 आरएसएस की साजिश। ऐसा उन्होंने किया, जब मालूम हो गया था कि इस हमले के पीछे पाकिस्तान का हाथ था और जिन जिहादियों ने मुंबई में बेकसूर, निहत्थे लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाई थीं, वे कदम-कदम पर पाकिस्तान के आइएसआइ के संपर्क में थे। दिग्विजय सिंह आजकल कम दिखते हैं राहुल के आसपास, लेकिन उनके करीबियों में अब भी ऐसे कई लोग हैं, जिन्होंने सेक्युलरिज्म के नाम पर इतनी बेतुकी बातें कही हैं कि उनको सेक्युलर कट्टरपंथी कहना गलत न होगा। ऐसे लोग न भाईचारा फैलाते हैं और न ही ऐसी कोई बात कहते हैं, जिससे साबित हो कि उनकी राजनीतिक सोच में कोई दम है।
गांधी परिवार की समस्या यह है कि वह हमेशा अपने आसपास ऐसे ही लोग इकट्ठा करता है। सो, सोनिया गांधी जब इस देश की अघोषित प्रधानमंत्री थीं, उन्होंने अपने एनएसी (राष्ट्रीय सलाहकार परिषद) में इसी किस्म के लोगों को चुना था। उनकी एनएसी उस समय प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल से ज्यादा ताकतवर थी, सो उनके कहने पर सोनिया गांधी ने अर्थव्यवस्था को एक बार फिर समाजवादी रास्ते पर चलाया था। नतीजा यह कि जहां अर्थव्यवस्था की वार्षिक वृद्धि 2006 में नब्बे फीसद से ऊपर चली गई थी, धड़ाम से गिर कर उसी रफ्तार से चलने लगी, जिससे चलती थी उन समाजवादी दशकों में, जब गरीबी हटाने के नाम पर रेवड़ियां बांटने का काम औपचारिक तौर पर होता था।
सोनियाजी के दौर में मनरेगा जैसी योजनाएं बनीं, लेकिन इस तरह बनीं कि रेवड़ियों का काफी हिस्सा सरकारी अफसरों की जेबों में पहुंचता था। उस दौर में मेरी मुलाकात कई सरपंचों से होती थी, जिनको मनरेगा के पैसे मिलते ही गायब हो जाते थे। मोदी के दौर में भी वे सारी योजनाएं कायम हैं, लेकिन फर्क यह आया है कि उनमें छेद कम हो गए हैं, सो लाभार्थियों की एक जमात बन गई है देश भर में, जिनको भारतीय जनता पार्टी के आला नेता कर्नाटक के चुनाव अभियान में एक नई जाति के रूप में पहचान गए हैं। कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी की जीत होती है अगर, तो इन लाभार्थियों के वोटों से होगी। मगर काफी मदद मिली है भाजपा को कांग्रेस के घोषणा पत्र से राहुल के सलाहकारों की बेवकूफी के कारण।