हमारे पड़ोस में खतरे की घंटियां जोर से बज रही हैं काफी देर से, लेकिन लगता है कि दिल्ली के आला गलियारों में उनकी गूंज सुनाई नहीं दे रही है। सुनाई दी होती तो नरेंद्र मोदी अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत मुसलमानों को निशाना बना कर न करते। सुनिए, घंटियां कहां-कहां बज रही हैं। बांग्लादेश के तख्ता पलटने वालों में दिखाई दे रहे हैं ऐसे लोग, जो जिहादी इस्लाम के पहरेदार हैं। मालदीव में कट्टरपंथी इस्लामी सोच के लोग शासन में हैं। पाकिस्तान की जिहादी संस्थाएं फिर से हरकत में आ गई हैं जम्मू में।
क्या ‘लव जिहाद’ को रोकने के कानून बनाने का यह वक्त है
अफगानिस्तान में तालिबान का राज है। पश्चिम यूरोप की जासूसी संस्थानों ने जानकारी हासिल की है कि पाकिस्तान-अफगानिस्तान की सीमा पर एक ऐसा जिहादी सरदार है, जो यूरोप में हर आतंकवादी घटना के पीछे है और जिसका असली नाम कोई नहीं जानता, जिसका चेहरा नहीं देखा है किसी ने। उसको पकड़ा नहीं गया है, इसलिए कि वह हर दूसरे दिन अपना ठिकाना और सेलफोन बदलता है। क्या ऐसे माहौल में जरूरी है मोदी और उनके मुख्यमंत्रियों को वक्फ कानून में संशोधन लाना? क्या यह वक्त है ‘लव जिहाद’ को रोकने के कानून बनाने का?
सवाल इसलिए जरूरी हैं क्योंकि जबसे नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने हैं, तबसे भारत के आम मुसलमानों को लगा है कि मोदी को इस्लाम और मुसलमानों से नफरत है और यही कारण है कि पूरी कौम को बार-बार निशाने पर रखा गया है। मोदी लाख कहते फिरें कि उनका नारा है ‘सबका साथ, सबका विकास’, लेकिन अकेले बैठ कर अपने दिल से पूछेंगे तो शायद उनको पता लग जाएगा कि मुसलमानों ने इस नारे को बहुत पहले ही झूठा मान लिया है।
नए-नए कानूनों ने बढ़ाई मुसीबत, भाईचारा पर संकट
कैसे न मानें? पहले रहा गौरक्षकों द्वारा भीड़ हत्या का दौर। उसके बाद आया नागरिकता कानून में ऐसा संशोधन, जिसने मुसलिम और ईसाई शरणार्थियों के अलावा बाकी मजहब के शरणार्थियों के लिए भारत का नागरिक बनने के लिए ‘फास्ट ट्रैक’ रास्ता। बीच में यह भी हुआ कि जहां भी हमारे हिंदुत्व शासकों को शहरों के इस्लामी नाम दिखे, उन्होंने उनको बदल डालने का ठान लिया। बालीवुड को ऊपर से हुक्मनामा आया कि ‘राष्ट्रवादी’ किस्म की फिल्में बनानी चाहिए, न कि ऐसी फिल्में, जिनमें हिंदू-मुसलिम भाईचारा को बढ़ावा मिले।
अब शुरू हुई है वक्फ कानून में संशोधन लाने की कोशिश, जिसके द्वारा सरकार का बोलबाला हो जाए और धर्म परिवर्तन को रोकने के नाम पर ‘लव जिहाद’ कानून बन जाए। ऐसा करने से क्या फिर से मुसलमानों को संदेश यही जाएगा कि प्रधानमंत्री को उनका साथ नहीं चाहिए? इससे भी जरूरी है पूछना कि क्या इन सब चीजों का नतीजा यह नहीं होगा कि कट्टरपंथी जिहादियों को भारत में अपनी आतंकवादी घटनाओं को बढ़ाने का एक और बहाना मिलेगा? इसके बदले भारत को क्या इस समय दुनिया के सामने साबित यह नहीं करना चाहिए कि ये देश अराजकता से परेशान पड़ोस में लोकतंत्र, धार्मिक स्वतंत्रता और रोशन खयालों का एक गढ़ है?
मेरी राय में ऐसा करना जरूरी हो गया है, वरना जो हमारे आस-पड़ोस जिहादी इस्लाम फैलने लगा है, वह हम पर भी असर करनेवाला है। याद रखना बहुत जरूरी है हमारे शासकों को कि अराजकता का सबसे ज्यादा लाभ मिलेगा हमारे सबसे बड़े दुश्मन चीन को। याद रखना यह भी जरूरी है हमारे प्रधानमंत्री को कि दुनिया इस वक्त दो खेमों में बंट चुकी है।
एक खेमे में बैठे हैं वे देश, जो लोकतंत्र और मानव अधिकारों की बातों से नफरत करते हैं। इस खेमे में हैं रूस, ईरान, पाकिस्तान जैसे देश और इनकी सरदारी कर रहा है चीन। दूसरे खेमे में हैं अमेरिका, पश्चिमी यूरोप, आस्ट्रेलिया जैसे देश, जिनकी विचारधारा लोकतंत्र पर आधारित है और जिनके सिद्धांत वही हैं, जिनको लेकर भारत का संविधान बनाया गया था। मोदी के आने के बाद अच्छी बात यह जरूर हुई है कि हम लोकतांत्रिक खेमे के करीब आ गए हैं पहले से काफी ज्यादा, लेकिन हमारे पांव अभी भी इतना लड़खड़ाते हैं कि कभी हम वापस दूसरे खेमे की तरफ घूम जाते हैं।
इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ने अपने तीसरे शासनकाल की पहली विदेश यात्रा की रूस की और खूब प्यार और दोस्ती दिखाई व्लादिमीर पुतिन के साथ, जिसको दुनिया का सबसे बड़ा तानाशाह माना जाता है। ऐसा जब किया तो दूसरे खेमे से संदेश यही आया कि हमको फैसला करना होगा कि हम किस तरफ हैं। यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की ने तो यहां तक कहा कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री को सबसे बड़े तानाशाह से गले मिलते देखकर उनको घिन महसूस हुई।
जाहिर है कि अपने विदेश मंत्रालय में गलती का एहसास हुआ, इसलिए अब कुछ दिनों बाद मोदी शायद यूक्रेन जाने वाले हैं उस देश के साथ हमदर्दी दिखाने। माना कि रूस को हम अपना पुराना दोस्त समझते हैं, माना कि हमारी सेना रूसी असलहों पर निर्भर है, लेकिन इन चीजों को बदलना होगा हमें, अगर हम भारत की छवि को सुधारना चाहते हैं, अगर हम साबित करना चाहते हैं कि हम हमेशा लोकतांत्रिक देशों के साथ रहेंगे। तानाशाहों के साथ नहीं। ऐसा जब पूरी तरह साबित होगा तो अगली बार अगर भारत पर जिहादियों का हमला होगा या चीन हमारी जमीन हड़पने की कोशिश करेगा तो हमको मिलेगा साथ उस लोकतांत्रिक खेमे का, जिसका साथ हम चाहते हैं। बांग्लादेश में जो हुआ पिछले सप्ताह, वैसा ही हुआ था श्रीलंका में पिछले साल।
कहते हैं कि पाकिस्तान में इतनी अराजकता है कि अगर इस्लामाबाद में कुछ ऐसा ही हुआ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। भारत के लिए यह समय नाजुक भी है और आगे जाने वाली डगर कठिन भी। भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि इन पिछले पचहत्तर वर्षों में यही रही है कि हमने लोकतंत्र को जीवित रखा है, लेकिन कभी-कभी हमारे शासक इस बात को भूल जाते हैं।
