जब किसी नए साल का पहला लेख लिखना होता है, तो मुझे ऐसा लगने लगता है कि पत्रकारिता नहीं इतिहास का कोई नया पन्ना लिख रही हूं। अजीब-सी जिम्मेदारी महसूस होती है और याद आता है कि पत्रकारिता के बारे में अंग्रेजी की एक कहावत है : ‘जर्नलिज्म इज द फर्स्ट ड्राफ्ट आफ हिस्ट्री।’ जिसका अर्थ है पत्रकारिता इतिहास का पहला मसविदा होता है। ये कहावत याद क्या आई कि यह भी याद आया कि 2024 में हम पत्रकारों ने ईमानदारी से अपना काम किया होता, तो लोकसभा चुनाव के परिणाम के बारे में हमने इतना गलत अनुमान न लगाया होता।

सच तो यह है कि भारतीय जनता पार्टी की मीडिया टीम के नारों में इतना उलझ गए थे हम कि आंखों पर पट्टी लगा कर हमने काम किया। मेरी जानकारी का एक भी पत्रकार नहीं है, जिसने चुनाव प्रचार के समय सही भविष्यवाणी की थी। ऐसे कुछ हैं मेरे दोस्त, जिन्होंने बाद में कहा था कि उन्होंने बिल्कुल सही भविष्यवाणी की थी, लेकिन उनके लेख जब पढ़े, तो इस ‘सही भविष्यवाणी’ के आसार तक न दिखे। निजी तौर पर मैं स्वीकार करना चाहती हूं कि मुझे कभी नहीं लगा था कि नरेंद्र मोदी इस बार भारतीय जनता पार्टी के लिए पूर्ण बहुमत नहीं ला पाएंगे। शायद इसलिए कि जहां भी गई चुनाव की हवा परखने, कानों में वो ‘400 पार’ वाला मोदी का दावा गूंजता रहा।

उत्तर प्रदेश गई थी मैं और लखनऊ के आसपास देहातों में भी दौरा किया था, लेकिन मुझे जो भी लोग मिले, उन्होंने कहा कि उनका वोट मोदी को ही जाएगा। इसलिए कि मोदी और योगी ने बहुत काम किया है इस प्रदेश में। जब पूछा क्या काम खास किया, तो अक्सर लोगों ने राम मंदिर का जिक्र किया था। ये वे दिन थे जब अयोध्या में मंदिर बना ही था और श्रद्धालु इतने जा रहे थे कि लखनऊ में मुझे बताया गया कि कुछ महीने रुक के जाना चाहिए रामलला के दर्शन करने, जब भीड़ थोड़ी कम हो जाएगी। इतना जोश था मंदिर को लेकर कि भूल गई मैं कि मंदिर से सवर्ण हिंदुओं का ज्यादा मतलब है, दलित और पिछड़ी जातियों को कम। ये बात तब याद आई, जब नतीजे आए।

अगर लोकसभा चुनावों को लेकर ही हम राजनीतिक पंडितों ने गलत अनुमान लगाया होता, तो शायद हम माफ किए जा सकते। ऐसा नहीं था। हमने हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों के बारे में भी गलत भविष्यवाणी की। जाने-माने पत्रकारों ने हरियाणा घूमने के बाद लंबे-चौड़े लेख लिखे, जिनमें उन्होंने कहा कि हवा कांग्रेस के पक्ष में है। महाराष्ट्र में मैं रहती हूं और कोंकण के एक गांव से खास वास्ता है, जहां एक आदिवासी बस्ती है जिसके बारे में मैं पहले भी लिख चुकी हूं। वहां इतनी गरीबी है कि लोगों के पक्के घर तक नहीं हैं और पानी की इतनी गंभीर समस्या है कि दूर एक कस्बे से पानी लाना पड़ता है। इस बस्ती का हाल देख कर और वहां के लोगों की शिकायतें सुन कर मुझे लगा कि भारतीय जनता पार्टी के लौटने के आसार कम होंगे।

लेकिन जब ‘लाडली बहना’ योजना लागू हुई, तो इस बस्ती में फिर लौट कर गई और मालूम हुआ औरतों से कि इनके बैंक खातों में हर महीने 1500 रुपए जमा होने लगे हैं। चुनाव आने तक इस राज्य की तकरीबन हर गरीब महिला को सात हजार रुपए मिल गए थे और इससे चुनाव का रुख ही बदल गया। औरतों के वोटों ने नतीजे पूरी तरह बदल डाले, ऐसा मेरा मानना है। लेकिन यह कहने के बाद, ये भी कहना जरूरी है कि क्या हम राजनीतिक पंडितों को ऐसी योजनाओं का विश्लेषण ईमानदारी से नहीं करना चाहिए, जो लागू होती हैं चुनावों से ऐन पहले और जो काम करती हैं वोट खरीदने का? ऐसा विश्लेषण हमने बहुत कम किया है। तो क्या हम वास्तव में इतिहास का पहला मसविदा तैयार कर रहे हैं या ऐसी प्रति बना रहे हैं जो इतिहासकारों के कोई काम नहीं आएगी? इसका जवाब मेरे पास नहीं है।

पत्रकारिता में कई दशक काम करने के बाद मुझे दुख होता है यह कहने में कि हम लोगों ने अपना काम ईमानदारी से नहीं किया है। कुछ लोग कहते हैं कि ऐसा हुआ है सिर्फ मोदी के आने के बाद, लेकिन मैं ऐसा नहीं मानती हूं। मैंने वह ‘सेकुलर’ दौर भी देखे हैं, जब वामपंथी बुद्धिजीवी ऐसे छाए रहते थे भारत की विचारधारा पर कि बहुत कम पत्रकार ऐसे थे जो कथित ‘सेकुलर’ राजनेताओं का विरोध करने की हिम्मत दिखाते थे। जो मुट्ठी भर थे जिन्होंने हिम्मत दिखाई, उनको अमेरिकी एजंट बुलाया जाता था। सो आज के दौर में अगर हम बिल्कुल पलट गए हैं और हिंदुत्व और हिंदुत्वादियों की हरकतों की आलोचना करने को तैयार नहीं हैं, तो कोई हैरत की बात नहीं होनी चाहिए।

सो इस नए साल के लिए मेरी दुआओं में एक दुआ यह भी है कि हम पत्रकारों की रीढ़ की हड्डी में थोड़ा बहुत लोहा भर जाए, ताकि भविष्य में अपने लेखों को इस बात पर ध्यान देकर लिखें कि हम इतिहास की पहली प्रति तैयार कर रहे हैं। ऐसा होता है अन्य लोकतांत्रिक देशों में जहां लोकतंत्र की जड़ें चाटुकारिता की जड़ों से ज्यादा मजबूत होती हैं।

इस बात को गहराई से आप समझना चाहते हैं, तो किसी दिन टीवी के सामने बैठ कर पहले कुछ देशी समाचार चैनल देखें और उसके फौरन बाद आप बीबीसी या सीएनएन को देखें। साफ दिख जाएगा आपको कि हममें और उनमें अंतर क्या है। गंभीर जिम्मेदारी है इतिहास का पहला मसविदा लिखने की, इसको गंभीरता से हमको लेना चाहिए। अफसोस कि अपने भारत महान में इस बात को हम समझे नहीं हैं।