दिल्ली के हर मौसम को मैंने करीब से देखा है, इसलिए कि मैंने अपना पूरा बचपन और आधी जिंदगी इस शहर में बिताई है। लेकिन पिछले सप्ताह जब मैंने उस बदरंगी, जहरीली चादर को देखा जो इस महानगर के ऊपर कफन की तरह छाई थी तो हैरान रह गई। ऐसा नहीं है कि मैंने सालों से नहीं देखा है कि वायु प्रदूषण ने कैसे उत्तर भारत के सबसे सुहाने मौसम को तबाह करके रखा है, लेकिन इस साल तबाही का ये हाल है कि विदेशों के बड़े-बड़े अखबारों और टीवी चैनलों में दिल्ली का हाल सुर्खियों में रहा है। दिल्ली के एक गांव में रहती हूं, इसलिए जब खिड़की के बाहर वह सफेद चादर देखी, तो सोचा कि शायद धुंध होगी। जब घर से निकली और आंखों में अजीब-सी जलन होने लगी और सांस लेना मुश्किल हुआ, तब पता लगा कि क्या हो रहा है।

दिल्ली को इस हाल तक बनने क्यों दिया, कौन है जिम्मेदार

अगले दिन मालूम हुआ कि दिल्ली की हवा को अब दुनिया में सबसे प्रदूषित माना जा रहा है। मैंने जब ट्वीट करके कहा कि देश की राजधानी का अब इतना बुरा हाल है कि इस पर प्रधानमंत्री या उनके किसी आला मंत्री को कुछ कहना चाहिए, तो काफी समर्थन मिला। लेकिन कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने इसको भी हिंदू-मुसलिम बनाने की कोशिश की ये कह कर कि लाहौर का हाल दिल्ली से बदतर है। कैसे लोग हैं ये, जो हमेशा भारत को घसीट कर इतना नीचे लाते हैं कि इसकी तुलना ऐसे मुल्क से करते हैं जो हमसे कहीं पीछे है हर तरह से। सवाल यह है कि दिल्ली में वायु प्रदूषण को इस जहरीले स्तर तक पहुंचने क्यों दिया गया है? जिम्मेदारी किसकी है? समाधान क्या है?

सबसे बड़ा सवाल ईमानदारी से समाधान ढूंढ़ने का है

इन सवालों के जवाब देने के बदले जब भाजपाई राजनेता बयान देने लगे, तो सिर्फ ये कहने कि यह सब हो रहा है सिर्फ इसलिए कि अरविंद केजरीवाल की सरकार ने इसका असली हल ढूंढ़ने की कोशिश ही नहीं की है और आम आदमी पार्टी की पंजाब सरकार ने भी किसानों को पराली जलाने से सख्ती से रोका नहीं है। इस पर दिल्ली की मुख्यमंत्री आतिशी ने ध्यान दिलाया कि पराली जलाई जाती है उत्तर प्रदेश, हरियाणा और मध्य प्रदेश में भी, तो सारा दोष पंजाब पर कैसे लगाया जा रहा है। पिछले सप्ताह एक अखबार ने आंकड़े पेश करके यह भी साबित किया कि पराली जलाना अगर बंद भी हो जाए, तो दिल्ली की हवा साफ नहीं होने वाली है, इसलिए कि जहर फैलने के कारण और भी हैं। वाहनों के चलने से, कूड़ा जलाने से, निर्माण कार्यों से और सबसे बड़ा कारण तो यह है कि समाधान किसी ने ईमानदारी से ढूंढ़ने की कोशिश नहीं की है।

शुरू-शुरू में जब केजरीवाल बने थे दिल्ली के मुख्यमंत्री, तो उन्होंने थोड़ी बहुत कोशिश की थी अपनी ‘ओड-इवन’ योजना दिल्लीवासियों पर थोप कर। इस योजना के तहत शहर के आधे वाहन एक दिन चल सकते थे और आधे उसके अगले दिन, लेकिन कोई खास फर्क जब नहीं दिखा तो इस योजना को चुपचाप बंद कर दिया गया था। उसके बाद देश के बड़े नेताओं ने कुछ नहीं किया है एक दूसरे पर दोष डालने के अलावा। सच यह है कि असली जिम्मेदारी समाधान ढूंढ़ने की प्रधानमंत्री की है। उनका घर है इस शहर में और उनके विदेशी मेहमान आते हैं यहां अक्सर सर्दियों के मौसम में। जब आते हैं तो मोदी जी-जान से साबित करने में लग जाते हैं कि उनके राज में भारत कितनी तरक्की कर गया है। लेकिन इस बात पर यकीन कौन करेगा, जब साफ जाहिर है कि भारत के सबसे महत्त्वपूर्ण महानगर का हाल इतना बुरा है कि यहां सांस लेना ही मुश्किल हो गया है।

समस्या जब राष्ट्रीय स्तर की हो जाती है तो समाधान भी राष्ट्रीय स्तर पर ही ढूंढ़ना पड़ता है। दुनिया के बाकी महानगर अगर इस समस्या का हल ढूंढ़ सके हैं, तो भारत क्यों नहीं उनसे कोई सीख ले सकता है? पर्यावरण मंत्री क्यों नहीं पश्चिमी देशों से ज्ञान लेने की कोशिश कर रहे हैं? विदेश के चक्कर तो बहुत काटते हैं, लेकिन जाते हैं सिर्फ अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भाग लेने, वहां से कुछ सीखने नहीं। सीखने जाते तो जरूर अभी तक उनको जानकारी मिली होती कि लंदन ने बिल्कुल ऐसी ही समस्या का हल कैसे ढूंढ़ा। मेरे कुछ दोस्त हैं जो लंदन पहली बार पचास-साठ के दशकों में गए थे। वे बताते हैं कि लंदन की हवा इतनी गंदी होती थी कि उसको ‘पी-सूप फाग’ कहते थे। यानी प्रदूषण इतना घना था वायु में जैसे शोरबा होता है। मैं पहली बार गई थी लंदन 1971 में और जब ये बातें सुनती थी, तो हैरान हो जाती थी इस लिए कि तब तक लंदन की हवा पूरी तरह साफ थी।

हम उनसे सीख कर क्यों नहीं दिल्ली में वही कदम उठा सकते हैं जो लंदन के शासकों ने लिए थे? क्या इसलिए नहीं कि पूर्ण समाधान ढूंढ़ने की किसी प्रधानमंत्री ने कोशिश नहीं की है? मेरे बचपन में दिल्ली की हवा इतनी साफ होती थी सर्दियों के मौसम में कि रातों को आसमान में हम तारे गिन सकते थे। दिन में नीला आसमान होता था और सर्दी इतनी मीठी-मीठी कि हम अक्सर बाहर बैठ कर उसका मजा लेते थे सूरज निकलने के बाद। पिछले सप्ताह मुझे बहुत याद आए बचपन के वो सुहाने दिन और बहुत गुस्सा आया देश के राजनेताओं पर जिनकी आपराधिक लापरवाही के कारण दिल्ली का यह हाल हो चुका है। आज भी देश के आला राजनेताओं से कुछ नहीं सुना है शायद इसलिए कि जानते हैं कि दो-तीन महीनों की बात है सो असली समाधान ढूंढ़ने का कोई मतलब नहीं है, लेकिन समाधान ढूंढ़ना अब अनिवार्य हो गया है।