इस महीने के आखिरी हफ्ते में मोदी सरकार के दो साल पूरे हो जाएंगे। इस खुशी में पिछले दिनों उनके प्रशंसकों के कई लेख छपे हैं अखबारों में, जिनमें साबित करने की कोशिश की गई है कि पिछले दो वर्षों में देश में आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन काफी हद तक आ चुका है। मैं नरेंद्र मोदी की प्रशंसक नहीं हूं, समर्थक हूं सिर्फ इसलिए कि मुझे विश्वास है कि मोदी वह परिवर्तन ला सकते हैं, जो इस देश के लोगों को सख्त जरूरत है हर क्षेत्र में। इसलिए मोदी की प्रशंसा करने के बदले मैं अपना फर्ज मानती हूं मोदी के शासनकाल का सच्चाई से विश्लेषण करना।

सो, शुरू में ही कहना चाहती हूं कि मेरी नजर में मोदी के आने के बाद देश का माहौल बदला तो है, लेकिन परिवर्तन लाने में वे नाकाम रहे हैं अभी तक कई अहम क्षेत्रों में, जिनमें सबसे अहम है आर्थिक क्षेत्र। अर्थशास्त्री नहीं हूं, लेकिन एक पत्रकार के नाते कह सकती हूं कि अर्थव्यवस्था में अभी तक मंदी छाई हुई है। अफसोस की बात है कि मोदी को इस मंदी का अहसास नहीं है, सो कई बार कह चुके हैं गर्व से कि भारत अन्य देशों से आगे दौड़ने लगा है, उनके आने के बाद। विदेशी अर्थशास्त्रियों का भी कहना है कि भारत की अर्थव्यवस्था अब चीन से भी तेज बढ़ रही है।

सो, सवाल है कि इस आर्थिक कामयाबी के असर जमीन पर क्यों नहीं दिख रहे हैं अभी? जहां जाती हूं, मुझे मिलते हैं ऐसे लोग, जो मायूस दिखते हैं इस बात को लेकर कि मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद उसी रास्ते पर चलना शुरू कर दिया, जिस पर कांग्रेस के नेता चला करते थे। चुनाव अभियान के दौरान मोदी देश को समृद्ध और संपन्न बनाने की बातें करते थे, लेकिन अब वही घिसी-पिटी गरीबी हटाने की बातें करने लगे हैं। गरीबी का रूप इस देश में घिनौना और शर्मनाक है, लेकिन अक्सर हमारे राजनेता दरिद्रता की ऐसी बातें करते हैं, जैसे कि हमको गर्व होना चाहिए इस पर। ऐसा शायद इसलिए करते हैं, क्योंकि जिन समाजवादी आर्थिक नीतियों पर हमने विश्वास किया था, उनसे गरीबी हटी नहीं है दशकों प्रयास के बाद। इसका कारण है कि किसी देश में गरीबी तभी खत्म होती है जब उस देश में धन पैदा करने की क्षमता बढ़ती है। इस काम को हमने समाजवाद के नाम पर सौंप रखा था सरकारी अधिकारियों के हाथों में, बावजूद इसके कि किसी भी देश में संपन्नता सरकारी अधिकारी नहीं ला पाए हैं।

चुनाव अभियान के दौरान जब राहुल गांधी और अरविंद केजरीवाल जैसे समाजवादी सोच के राजनेताओं ने देखा कि मोदी एक नई आर्थिक दिशा की तरफ ले जाने की बातें करने लगे हैं, तो उन्होंने अपने हर भाषण में ‘अंबानी-अडानी’ के ताने कसने शुरू किए। इल्जाम लगाए बार-बार मोदी पर कि वे इन उद्योगपतियों को देश का धन देना चाहते हैं। इन तानों का कोई असर इसलिए नहीं हुआ, क्योंकि आम लोग जानते हैं कि आर्थिक दिशा में परिवर्तन की जरूरत है। इसको क्यों भूल गए हैं मोदी कि उनके प्रतिद्वंदियों के तानों को अनदेखा करके जनता ने उनको पूर्ण बहुमत दिया? इस बात को क्यों भूल गए हैं कि सोनिया-मनमोहन की आर्थिक नीतियों के कारण देश की अर्थव्यवस्था तकरीबन ठप हो चुकी थी 2014 के चुनावों से पहले? क्या सूट-बूट वाले ताने ने उनको डरा दिया या दिल्ली और बिहार में चुनाव हार जाने से डर गए? कारण जो भी हो, उन्होंने आर्थिक नीतियों में परिवर्तन लाने की कोई कोशिश नहीं की है, सो निवेशकों की जो कतार लग जानी चाहिए थी, अभी तक नहीं लगी है।

याद है मुझे कि जब लाइसेंस राज को नरसिंह राव सरकार ने समाप्त किया था तो ऐसी ऊर्जा पैदा हो गई थी देश भर में, रोजगार के इतने नए अवसर दिखने लगे कि नौजवानों ने सरकारी नौकरियों के पीछे भागना छोड़ दिया था। नए-नए शहर बनने लगे थे, नई कंपनियों में नौकरियों के बेशुमार अवसर पैदा हो गए थे और देखते-देखते अपने इस भारत देश की शक्ल बदल गई थी। आज हाल यह है कि गुजरात और हरियाणा जैसे संपन्न राज्यों में पटेल और जाट नौजवान हिंसा पर उतर आए हैं सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग को लेकर। क्या ऐसा होता अगर अर्थव्यवस्था में नई ऊर्जा आ गई होती?

ऐसा नहीं कि पिछले दो वर्षों में मोदी सरकार की कोई सफलता नहीं रही है। निजी तौर पर मुझे बहुत खुशी हुई थी जब प्रधानमंत्री ने लाल किले से अपने पहले भाषण में स्वच्छता और शौचालयों की बातें की थी। ये दोनों अभियान बहुत जरूरी हैं, क्योंकि देशवासियों के स्वास्थ्य से इनका सीधा रिश्ता है। खुले में शौच करने की वजह से हमारे ज्यादातर बच्चे बीमार भी रहते हैं और जिंदगी भर उनका शरीर पूरी तरह विकसित नहीं होता है। उपाय है, जनंदोलन द्वारा लोगों तक यह संदेश पहुंचाना कि सिर्फ शौचालयों के निर्माण पर ध्यान न दें। शौचालय तो बन गए हैं, लेकिन देहातों में उनको ज्यादातर लोग इस्तेमाल नहीं करते हैं और न ही उनकी सफाई इतनी अच्छी है, जो इस्तेमाल किए जा सकें।

रही बात स्वच्छ भारत अभियान की तो यहां भी तमाशा हुआ है, परिवर्तन नहीं। शुरू में कई फिल्मी सितारे और बड़े-बड़े राजनेता दिखे हाथ में झाड़ू लिए सड़कों पर निकलते। फिर यह खेल पुराना हो गया और हमारे शहर, गांव, गलियां, मंदिर आज भी उतने ही गंदे हैं, जैसे पहले थे। प्रधानमंत्री के इरादे नेक जितने भी हों, जब तक अमल सही ढंग से नहीं होगा तब तक भारत की सदियों पुरानी समस्याएं वैसी की वैसी रहेंगी। सो, नए सिरे से शुरू करना होगा काम, वरना अगले साल तक परिवर्तन शब्द ही गायब हो जाएगा हमारी राजनीतिक शब्दावली से।