पिछले सप्ताह जब डोनाल्ड ट्रंप ने शान से जीत हासिल की, नरेंद्र मोदी शायद दुनिया के पहले राजनेताओं में थे, जिन्होंने न सिर्फ उनको बधाई दी, इस बधाई के बारे में सोशल मीडिया पर भी टिप्पणी लिखी। बधाई अपने प्रधानमंत्री ने अमेरिका के पूर्व और भावी राष्ट्रपति को ऐसे दी, जैसे कि उनके वापस वाइट हाउस में आने के बाद भारत को कोई खास लाभ होने वाला है। फिर मोदी भक्तों ने पुरानी तस्वीरों के जरिए साबित करने की कोशिश की कि ट्रंप के साथ मोदी की इतनी खास दोस्ती है कि उनकी जीत से भारत का भविष्य चमक उठेगा।
मोदी की विदेश नीति है कुछ ऐसी कि जैसे कि उनकी निजी दोस्तियों पर आधारित हो। जब भी किसी विदेशी दौरे पर जाते हैं, तो दुनिया के बड़े राजनेताओं से गले मिलते हैं ऐसे, जैसे पुराने दोस्त एक दूसरे से मिल रहे हों। जानते हैं मोदी कि इस देश के मतदाताओं को उनकी ये जफियां अच्छी लगती हैं, इसलिए कि इनको देख कर उनको लगता है कि मोदी के आने के बाद भारत की इज्जत दुनिया की नजरों में बढ़ गई है। चुनावों से पहले मैं जब देहातों में घूमती हूं यह जानने के लिए कि मोदी को लोग पसंद करते हैं अभी भी, और नहीं करते हैं तो किस कारण। हमेशा कोई न कोई मिला है, जिसने कहा है कि मोदी उनको पसंद हैं, क्योंकि उन्होंने दुनिया की नजरों में भारत का सम्मान बढ़ाया है।
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सच यह है कि कूटनीति में दोस्ती सिर्फ दिखावा है। याद कीजिए, किस तरह मोदी ने शी जिनपिंग का दो बार भारत में ऐसे स्वागत किया, जैसे कि उनसे बड़ा कोई राजनेता न हो पूरे विश्व में। पहली बार तो गुजरात ले गए थे चीन के राष्ट्रपति को, और गुजराती झूले पर उनको झुलाया था। याद है आपको? दूसरी बार उनको ले गए महाबलीपुरम, जहां नारियल पानी पिलाया, समंदर किनारे घुमाया और वहां की पुरानी इमारतों का दौरा करवाया। दोनों मुलाकातों के फौरन बाद चीनी राष्ट्रपति ने हमारी सीमाओं पर कुछ न कुछ करके दिखाया कि चीन दोस्त नहीं, दुश्मन है अपने देश का। सबसे बड़ा दुश्मन कह सकते हैं हम, इसलिए कि पाकिस्तान को चीन ने आर्थिक मदद देकर अपना गुलाम बना लिया है।
ट्रंप और मोदी की दोस्ती की कहानी
अब सुनिए ट्रंप के साथ मोदी की दोस्ती की कहानी। दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने अमेरिका में ‘हाउडी मोदी’ नाम का सम्मेलन रखा, जिसमें ट्रंप को बुलाया गया और मोदी ने जोश में आकर कहा था ‘अबकी बार ट्रंप सरकार’। इसके कुछ महीने बाद उन्होंने ट्रंप के पूरे परिवार को भारत बुलाकर ऐसा स्वागत किया, जैसे कि विश्व के सम्राट हों। लेकिन दोस्ती से कुछ हासिल नहीं हुआ। ट्रंप ने साफ शब्दों में भारत को तब टोका जब अमेरिकी हार्ले-डेविडसन मोटरसाइकिलों पर आयात कर इतनी बढ़ाई गई कि कोई आम भारतीय खरीद न पाए। यथार्थ यह है कि दोस्ती नहीं हो सकती है विदेश नीतियों का आधार।
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यह सच है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत के रिश्ते अमेरिका के साथ पहले से कहीं ज्यादा अच्छे हुए हैं। लेकिन सच यह भी है कि अमेरिका का असली आर्थिक, व्यावसायिक रिश्ता चीन के साथ है। चीन ने अमेरिका के बाजारों में सस्ती चीनी चीजें बनाकर इतना लाभ उठाया है कि अक्सर जो खिलौने अमेरिकी बच्चों को मिलते हैं, वे चीन में बने हुए हैं। याद है मुझे कि कोई बीस साल पहले मैं जब वाशिंगटन के एक सुपर मार्केट में घूम रही थी तो हैरान हुई यह देखकर कि हर दूसरी चीज चीन में बनी हुई थी। लेकिन ऐसा नहीं है कि अमेरिका के साथ चीन की दोस्ती और पक्की हुई है। उल्टा यूरोप और अमेरिका में चीन की आर्थिक शक्ति ने इतना खौफ पैदा किया है कि भारत को पूरी तरह विकसित होने में पश्चिमी देश पूरी सहायता कर रहे हैं।
जर्मन गाड़ियों का सबसे बड़ा बाजार है चीन
संकोच है तो हमारी तरफ से। मोदी ने अपने ‘मेक इन इंडिया’ वाली योजना को सफल बनाने के लिए पश्चिमी चीजों पर कर इतना बढ़ा दिया है कि विदेशी गाड़ियां इंडिया में बिकती हैं दुगने दामों पर। नतीजा यह कि जर्मन गाड़ियों का सबसे बड़ा बाजार चीन में है। बातें तो हम बहुत करते हैं ‘ईज आफ डूइंग बिजनेस’ की, लेकिन आज भी हमारे अधिकारियों की मानसिकता उस पुराने समाजवादी सोच में ऐसी अटकी हुई हैं कि विदेशी वस्तुओं के आयात को रोकने के लिए वे अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं। आनलाइन अगर किताबें भी आप खरीदने की कोशिश करते हों, तो देखा होगा कितने दिनों तक दिल्ली और मुंबई के कस्टम विभाग में ये फंसी रहती हैं। एक बार मैंने एक डायरी मंगवाई थी लंदन से, जो इतने दिनों तक फंसी रही मुंबई हवाई अड्डे के कस्टम गोदान में कि मैंने दुबारा यह गलती नहीं की है।
कहने का मतलब यह है कि राष्ट्रहित होता है आधार किसी देश की विदेश नीति का। मोदी चाहे ट्रंप को जितना भी अपना दोस्त मानें, ट्रंप इस दोस्ती की परवाह तब करेंगे, जब भारत के बाजारों में आसानी से अमेरिका का सामान बिकने लगेगा। या भारतीय उत्पाद इतना बेहतरीन होने लगेगा कि अमेरिका के बाजारों में उसकी मांग हो। फिलहाल हम काफी बदनाम हैं। इसलिए कि हमारी घटिया किस्म की दवाइयां बेची गई हैं अमेरिका में और कुछ हमारे मसालों में गंदगी पाई गई है। ये ऐसी समस्याएं हैं जो दोस्ती से सुलझ नहीं सकती हैं, चाहे दोस्ती कितनी गहरी क्यों न हो मोदी और ट्रंप के बीच।
निजी तौर पर मैं डोनाल्ड ट्रंप की कोई बहुत बड़ी प्रशंसक न कभी रही हूं, न अब हूं, लेकिन इतना मानती हूं कि पिछले सप्ताह उनकी शानदार जीत को देखकर मैं काफी प्रभावित हुई थी। दूसरी बार जब राष्ट्रपति बनेंगे जनवरी में, तो पहले से कहीं ज्यादा ताकत के साथ।