अगर उन नौजवानों में से होती, जिनका भविष्य बर्बाद हुआ है परीक्षाओं को लेकर तो नई लोकसभा के इस पहले सत्र को देख कर बहुत मायूस होती। उनमें से नहीं हूं, लेकिन फिर भी मायूस हुई लोकसभा में पक्ष-विपक्ष की गतिविधियों को देख कर। समझ में नहीं आता कि जो समस्या इन दिनों आपातकालीन रुख ले चुकी है, उसको नई लोकसभा में हमारे नव-निर्वाचित सांसदों ने क्यों सबसे ज्यादा अहमियत नहीं दी।

सोचा था मैंने कि विपक्ष में नई ताकत आने के बाद वे पहले दिन ही पहुंचते काले झंडे हाथों में लिए इस मांग को लेकर कि चूंकि देश के लाखों युवाओं के सामने इतनी बड़ी समस्या खड़ी हो गई है, इसलिए इस पर पहले विशेष बहस होनी चाहिए। इसके बदले विपक्ष के नए सांसद दिखे उसी जगह जहां अक्सर दिखते हैं हर संसद सत्र में, यानी लोकसभा के अंदर नहीं, बल्कि लोकसभा के बाहर अपने हाथों में संविधान को लिए हुए। किस वास्ते? क्या उनको इस बार लोकसभा में ज्यादा सीटें मिलीं, इसके बावजूद वही करने के लिए जो पिछले दशक से करते आए हैं? विरोध प्रदर्शन अगर करते परीक्षाओं में गड़बड़ी को लेकर तो भी कुछ अच्छा करते, लेकिन संविधान को क्या उन बच्चों से ज्यादा खतरा है, जिनके सारे सपने चूर-चूर हो गए हैं? मेरी नजर में तो नहीं।

लोकसभा के अंदर पहुंचे तो कुछ क्षणों के लिए लगा कि इस बार संसद ठीक से चलने वाला है। जब ओम बिरला दोबारा अध्यक्ष चुने गए तो राहुल गांधी ने बड़ी तमीज से उनको बधाई दी और आश्वासन दिया कि उनका इरादा है संसद को ठीक से चलने में पूरी सहायता करने का, लेकिन उम्मीद करते हैं कि इस बार वे निष्पक्षता से अपना काम करें। हम भी यहां हैं जनता की आवाज को उठाने के लिए, कहा लोकसभा के नए विपक्ष के नेता ने। जब इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री से हाथ मिलाया तो मुझे लगा कि वास्तव में संसद के अंदर कुछ गंभीरता से बहस होने वाली है देश के असली मुद्दों पर।

ऐसा नहीं हुआ है अभी तक। शायद ऐसा होने वाला भी नहीं है। सारी तमीज, सारी अच्छी बातें हवा में उड़ गईं जब ओम बिरला ने इंदिरा गांधी के उस आपातकाल को याद करके प्रस्ताव पारित करना चाहा। आपातकाल की उनचासवीं बरसी थी उस दिन, इसलिए क्यों न याद किया जाए उस काले दौर को जब एक प्रधानमंत्री ने लोकतंत्र को ताक पर रख कर अपने आपको तानाशाह बना दिया था? मगर कांग्रेस के सांसदों को आपातकाल को याद करना पसंद नहीं है, सो खूब शोर मचाने लगे उस समय भी जब दो मिनट के मौन में उनको याद किया गया, जिन्होंने आपातकाल के खिलाफ अपनी जान पर खेल कर आवाज उठाई थी।

यह सिलसिला समाप्त हुआ तो विपक्ष की तरफ से मांग उठी कि ‘सेंगोल’ को संसद से बाहर निकालना चाहिए। उसकी जगह किसी संग्रहालय में होनी चाहिए, लोकतंत्र के मंदिर में नहीं, क्योंकि वह याद दिलाता है राजा-महाराजाओं के जमाने की। हो सकता है उनकी यह बात ठीक है, लेकिन क्या ‘सेंगोल’ पर विवाद करने का यह समय है जब लाखों नौजवान भारतीय अपनी किस्मत पर रो रहे हैं? राष्ट्रपति मुर्मू ने प्रश्न पत्र बाहर आने की बात की अपने भाषण में, लेकिन यह काफी नहीं था। विपक्ष की मांग वाजिब थी कि राष्ट्रपति के भाषण पर बाद में चर्चा हो सकती है, पहले विशेष बहस करने की जरूरत है परीक्षाओं में घोटाले की। इस बार शोर सत्तापक्ष से हुआ।

सवाल है कि क्या शिक्षा मंत्री की जवाबदेही नहीं बनती है संसद में? खासतौर पर तब जब उनकी पहली प्रतिक्रिया थी कि कोई गड़बड़ी नहीं हुई है! जब क्रोधित विद्यार्थी उनके दफ्तर के सामने विरोध प्रदर्शन करने पहुंचे, तब उन्होंने स्वीकार की अपनी जिम्मेवारी। अब हम जान गए हैं कि गड़बड़ी इतने बड़े पैमाने पर हुई है कि विद्यार्थी मांग कर रहे हैं कि राष्ट्रीय परीक्षा एजंसी यानी एनटीए को ही हटा कर किसी दूसरी संस्था द्वारा परीक्षाएं करानी चाहिए।

अब मालूम यह भी हुआ है कि इस बड़े घोटाले में ऊपर से नीचे तक धोखेबाज शामिल थे, इस हद तक कि उनका जाल पूरे देश में छाया हुआ है। इसमें अध्यापक, कोचिंग केंद्र, सरकारी अफसर, राजनेता और हर तरह के चोर शामिल हैं। जवाबदेही बनती है मोदी सरकार की। जवाब मांगना संसद में विपक्ष का काम है। लोकसभा अध्यक्ष को बहस की इजाजत देनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं किया। क्यों?

संविधान को कोई खतरा नहीं है। हम सब जानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी का ‘400 पार’ वाला सपना अगर पूरा हुआ होता, तब भी संविधान को कूड़ेदान में फेंक कर नया संविधान लाना उनके लिए आसान नहीं होता। संविधान को एक ही बार असली खतरा था और वह था इंदिरा गांधी के आपातकाल में जब संविधान की प्रस्तावना को बदल कर उसमें ‘सेक्युलर, समाजवादी’ शब्द डाल दिए गए थे। इतना ही नहीं, इंदिराजी ने संविधान में संशोधन लाकर यह भी प्रावधान डाल दिया था कि लोकसभा में पारित कानूनों को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकेगी।

कहने का मतलब है कि अगर विपक्ष को इतनी चिंता है संविधान के बदले जाने की तो आपातकाल पर बहस करवाएं और खुलकर बताएं देश को कि क्या उनकी नजरों में आपातकाल लगा कर इंदिराजी ने देश के साथ अच्छा किया था या बुरा। लेकिन यह बहस बाद में भी हो सकती है। नई लोकसभा के इस पहले सत्र में सबसे बड़ी जरूरत है परीक्षाओं में घोटाले पर बहस करने की। भारत के युवाओं का भविष्य बर्बाद होता रहा तो देश का भविष्य भी बर्बाद होगा।