रमेश दवे
प्राय: हर कलाकार अपने अंदर प्रतियोगिता जीता है। यह प्रतियोगिता वह समकालीनों से तो करता ही है, अतीत और संभावनाओं से भरे प्रतिभाशालियों से भी करता है। संगीत, चित्रकला, फोटोग्राफी, मूर्तिशिल्प, काष्ठकला, सिरेमिक्स यहां तक कि लोक-कलाओं में भी स्वयं को बड़ा साबित करने का यह मनोविज्ञान जाहिर होता है। मगर साहित्यकार प्रतियोगिता नहीं; ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार, आत्म-मुग्धता, षड्यंत्र के निकृष्टतम उदाहरण कहे जा सकते हैं। आलोचना को निंदा और गाली-गलौज तक आजमाने वाले शब्दजीवी तो किसी को भी मंच, सभा, गोष्ठी में अपमानित कर देने में अपनी विद्वत्ता समझते हैं। जो लोग विचार-साम्य या प्रतिबद्धता के नाम पर स्वयंभू बड़प्पन से मोहग्रस्त हैं, वे अहंकार और छल, वाणी-बल और विचारधारा-बल का हमेशा इस तरह उपयोग करते हैं जैसे अन्य को धिक्कारने, उपेक्षा करने, आरोप लगाने का प्रमाण-पत्र उन्हें मिल गया हो!
शब्दजीवियों में एक चरित्र और पाया जाता है। अगर कोई रचनाकार अप्रतिबद्ध, तटस्थ, विचारधारा-निरपेक्ष रह कर विनम्र, सरल और सौम्य है, तो उसे अबौद्धिक करार दे दिया जाता है। इसी प्रकार अगर कोई किसी मंच का ताली-बजाऊ प्रशंसक नहीं है तो वह या तो कभी आरएसएस का संस्कृतिद्रोही हो जाता है, या कभी साम्यवादियों का बुद्धिद्रोही।
हिंदी में थोड़ा पढ़ा-लिखा या जीवन भर अध्यापन की जुगाली करने वाला कवि, कथाकार, आलोचक ऐसी मुद्राएं अपना लेता है मानो इस धरती पर उसका अवतरण दूसरों के अपमान के लिए ही हुआ है। अगर उसने विश्व साहित्य का भी अध्ययन कर और कुछ विदेशी नामों का मंत्रोचार करना या उनके उद्धरण-उदाहरण देकर लिखना सीख लिया है तो वह कहना शुरू कर देता है: मैं हिंदी साहित्य से नफरत करता हंू, उसे पढ़ता नहीं, उसमें कुछ दम ही नहीं। मैं हिंदी के साहित्यकारों से नफरत करता हंू, क्योंकि वे निहायत अनपढ़ या मूर्ख होते हैं। मैं जितना विदेशी साहित्य पढ़ता हंू, वह भारत भर में शायद ही कोई पढ़ता है।
इन बड़बोले कथनों को देख कर लगता है कि दस-बीस विदेशी संदर्भ से महानता का आत्म-घोषित महत्त प्रतिपादित करने वालों द्वारा विनम्रता एक प्रकार की कायरता मानी जाती है। विदेशी साहित्य के विरुद्ध तथाकथित स्वदेशी स्वाध्यायी, विद्वान या प्राध्यापक कहते हैं: विदेशी साहित्य के अध्येता मानसिक रूप से गुलाम हैं। विदेशी शब्दावली का उपयोग करने वाले हिंदी का मुहावरा या व्याकरण ही ठीक से नहीं जानते। विदेशीपन में रमे रचनाकार अपनी परंपरा और संस्कृति लोक-जीवन और परिवेश के अज्ञान से ग्रस्त हैं, इसलिए उन्हें भारतीयता का सही ज्ञान या समझ ही नहीं।
ऐसे आरोप लगाने वाले प्रखर हिंदी लेखक, आलोचक, वक्ता जब अशालीन, उच्छृंखल शब्दावली में भर्त्सना करते हैं तो अपने को स्वनामधन्य महानता का पुरस्कार खुद दे लेते हैं। गंभीर विषयों पर गहन चर्चा के बजाय वे तात्कालिकता, संदर्भहीनता, विषय-विरुद्धता से बोल कर जन-समर्थन तो पा लेते हैं, लेकिन उनका हिंदी-प्रेम केवल लोक से परलोक तक की यात्रा कर निंदा-लोक में विसर्जित हो जाता है।
हिंदी के हिंदीवादी ऐसे विद्वानों की एक और खासियत है। वे कभी न कभी किसी पत्रिका के संपादक, किसी संस्था के निदेशक या किसी कला-साहित्य संस्था के महत्त्वपूर्ण सदस्य रहे होते हैं। पद से हटने के बाद अपने कार्यकाल को स्वर्णिम बताते हुए, उस संस्था, उसके नए संपादक, निदेशक को जिस भाषा में वे अलंकृत करते हैं उससे लगता है जैसे उनके जाने के बाद संस्था का बेड़ा गर्क हो गया। जब तक पद पर रहते हैं, संचालक-मंडल की चापलूसी कर खुद प्रफुल्लित रहते हैं और मालिकों को भी खुशामद से खुशहाल रखते हैं। हटते ही देवता, राक्षस बन जाते हैं। घृणा, निंदा, आरोप और चरित्र हनन की वाक्यावली से वे उस संस्था और वहां के संचालकों का जो अपमान-पत्र अपनी परिचित पत्र-पत्रिकाओं में लिखते हैं, उससे लगता है, देश में वे ही एकमात्र शुद्ध, पवित्र, चरित्रवान, ईमानदार और सत्यवादी हैं और उनके पहले या बाद के सब लोग भ्रष्ट, निकृष्ट हैं!
हमारे पुरखों ने साहित्य में सत्य, शील और सौंदर्य को महत्त्वपूर्ण माना। आज ये तीनों तत्त्व तिरोहित होते-से लगते हैं। कविता में छंद और लय की मृत्यु, कथा-साहित्य में कथापन और सत्य-शील की मृत्यु, नाटक में नाट्य-तत्त्वों और आनंद की मृत्यु घोषित कर साहित्य में प्रयोग और तरह-तरह की कट््टरता के नाम पर जो कुछ रचा जा रहा है, उससे लगता है कि हिंदी भाषा के सौंदर्य को विकृत करने का षड्यंत्र किया जा रहा है। अखबार और दृश्य-श्रव्य माध्यम तो हिंदी भाषा को अंगरेजी का चोला पहनाने में लगे हैं। हिंदी के साहित्यकार द्वारा अपनी भाषा में उपलब्ध शब्दों के बजाय अगर अंगरेजी या अन्य भाषाओं का ऐसा प्रयोग किया जाए कि न वह हिंदी रहे न अंगरेजी, तो फिर कोई भी भाषा अपना शील-संस्कार कैसे बचा सकती है?
आज के संदर्भ में साहित्यकार की भूमिका असत्य-जीवी हो गई है। जो वह कहता है, करता नहीं। अधिकतर कट््टर प्रगतिशील और बौद्धिकता का स्वदेशी उच्चारण करते रचनाकार अपने भीतर से जातिगत कट््टरता और रक्त की पवित्रता की हद तक कठमुल्ला हैं। वे घर में धर्मकांड-कर्मकांड सब करते हैं, लेकिन मंच पर धर्मनिरपेक्ष प्रकांडता का पाठ पढ़ते हैं। अगर साहित्यकार उदार-उदात्त नहीं है तो साहित्य का समूचा संकल्प ही पराजित हो जाएगा।
साहित्य का यह अछूतवाद प्रचलित दोनों धाराओं में है। अगर इन्हें दलों की राजनीति में देखा-परखा जाए तो जो हिंदुत्ववाद की संकीर्णता के पक्षधर हैं, उन्हें बौद्धिकों से न केवल चिढ़, बल्कि घृणा है। जो खुद को प्रगतिशील कह कर साम्यवादी निष्ठा के कथित सत्यवादी हैं वे झूठ को पोशाक की तरह पहने हैं, उनके लिए हिंदू, स्वदेशी, भारतीयता, संस्कृति आदि शब्द सांप्रदायिक हैं और तमाम स्वेदेशी उनके लिए घृणा; उपेक्षा और अपमान और आरोपों के पत्थर मार कर भगा देने योग्य हैं, जबकि उनकी कट््टरता भी एक प्रकार की साम्यवादी सांप्रदायिकता है।
अभी तो न हिंदी साहित्य की श्रेष्ठता की गंूज भारत के अन्य भाषाभाषी क्षेत्रों में है और न उन भाषाओं की हिंदी क्षेत्र में। एकता, विभिन्नता, सांस्कृतिक-अतीत और उसका गौरव-गान एक तरफ, तो दूसरी तरफ वर्तमान के प्रति बेईमानी और भविष्य की सच्चाइयों के प्रति संभावनाहीनता है। अगर ये सब हिंदी के साहित्यकार के आदर्श बन गए हैं तो विश्व चेतना और मानवीय संवेदन का उत्कर्ष साहित्य में कैसे रचा जाएगा?
अभी हम एक साहित्यजीवी समाज की रचना उस प्रकार नहीं कर पाए हैं, जिस प्रकार रवींद्रनाथ, शरदचंद्र, बंकिम आदि ने बंगाल में किया या यूरोप, अमेरिका ने किया, जिसका एक कारण उनका सदियों पूर्व शिक्षित होना है और साहित्य न केवल पाठ्यपुस्तकों, बल्कि वहां के जीवन का अंग है।
हमारा आज का शब्दजीवी रचनाकार शब्दाडंबरजीवी है। वह न शब्द, न साहित्य और न लोक-जीवन के प्रति ईमानदार है, इसलिए हिंदी की साहित्य-भूमि उर्वरा होने के बजाय बंजर होती जा रही है। कोई भी साहित्य मुखर होता है आलोचकों से। जो अतीत के गुणग्राही हैं, उनसे एक ही प्रश्न है। साहित्य हो या अन्य अनुशासन, उनमें हमने क्या ऐसा कोई शोध किया, जो विश्वस्तर पर स्वीकार्य हो? हम भले विदेशी संदर्भों को गालियां दें, मगर क्या हमने एक भी ऐसा आधुनिक आलोचक दिया, जो आलोचना के मानदंड ही बदल दे? उत्तर-आधुनिक सिद्धांतकार अगर अपने सारे पूर्ववर्ती आग्रहों के विरुद्ध नया विचार लेकर आते हैं, तो हम क्या कोई ऐसा प्रति-विचार रच सके, जो उन्हें निरस्त कर अपने विचार की स्थापना कर सके?
भारतीयता या अतीत का गुणगान बुरा नहीं, लेकिन हम अपना वर्तमान भी तो ऐसा रचें कि भविष्य के लोग उसको गौरवशाली अतीत मान कर उस पर चिंतन, मनन और शोध कर सकें। दरअसल, हमें अपने साहित्य, कला, विज्ञान, राजनीति या राजनेता किसी पर भी न तो सही गर्व करना आया, न अपना काम सारी दुनिया में प्रस्तुत करना। बस हम यही विलाप करते रहे कि ‘हम कौन थे, क्या हो गए हैं’? प्रलाप और विलापग्रस्त इस शब्दाडंबर और थोथे अतीत-मोह के इस सदियों पुराने आत्म-कारावास से जब तक मानसिक रूप से मुक्त नहीं होते, तब तक हम अपने व्यक्तित्व, कृतित्व, अस्तित्व किसी की भी ठीक तरह से पहचान नहीं बना सकते और दुनिया के समक्ष एक ऐसा बिना चेहरे या विकृत चेहरे का भारत ही नजर आएगा, जिसकी चमक पर हमने ही तरह-तरह की भ्रष्टता और संकीणर्ता की कालिख पोत रखी है।
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