एक दिन ‘कांटा लगा…’ वाले सुर्खियों में रहे ‘रिमिक्स’ की हीरोइन शेफाली का हृदय गति रुक जाना और ठौर मौत! चैनल पूरे दिन बताते और दिखाते रहे कि वह ‘उम्र रोधी’ दवाएं लेती थी। उस दिन खाली पेट दवा ली थी और दिल डूब गया। वह चली गई। कई चैनल और कुछ खानपान विशेषज्ञ चिंतित कि न मरने की उम्र में क्यों अचानक मर रहे हैं लोग… कहीं यह ‘कोविड टीके’ का ‘दुष्परिणाम’ तो नहीं? फिर इसमें ‘राजनीति’ कूद पड़ी। कर्नाटक में बीस मौत को टीके के ‘दुष्परिणाम’ से जोड़ा जाने लगा तो जिसका खंडन एम्स के ‘विशेषज्ञों’ की रपट के जरिए किया गया कि कर्नाटक की ‘आकस्मिक मौत’ का संबंध ‘कोविड टीके’ से नहीं हो सकता है।
टीका एकदम ‘सुरक्षित’ है। इन मौत का कारण आज के युवाओं का खानपान व जीवनशैली भी हो सकता है! फिर एक दिन कोलकाता के विधि महाविद्यालय में कानून की एक छात्रा के बलात्कार की खबर ने राजनीति को चरम पर पहुंचा दिया। विपक्ष कहे कि बंगाल ‘बलात्कारियों’ का ‘अभयारण्य’ जैसा बन चला है। दस महीने पहले एक मेडिकल कालेज की एक महिला डाक्टर का बलात्कार किया गया, लेकिन उस बलात्कारी को देर तक बचाया जाता रहा। इस केस मे भी ऐसा होता दिखता है। ‘बलात्कारी’ सत्ता दल का स्थानीय नेता रहा है। अब उसके हिमायती उसका पक्ष ले रहे हैं। पीड़ित को ही जिम्मेदार बताने की शर्मनाक कोशिश जारी रही!
एक एंकर कहिन कि पीड़ित का हलफनामा भयावह है! यों ‘बलात्कारी’ गिरफ्तार है तो भी उसके ‘हिमायतियों’ के लिए यह ‘प्रेम का मामला’ है। जब ‘बलात्कारी’ के हिमायतियों के ऐसे बयान आए तो तृणमूल कांग्रेस के आधिकारिक प्रवक्ता ने साफ किया कि ‘ये उन नेताओं के निजी बयान हैं..!’ इसके बाद ‘बेताल’ ने ‘कथावाचकों’ का पीछा न छोड़ा। एक नेताजी कह दिए कि कुछ कथाकार पचास लाख तक लेते हैं… एक बाबा तो‘टेबल के नीचे’ से लेते हैं..!
एक बाबा ने जवाब दिया कि कथावाचकों को खूब पैसे मिलने चाहिए… वे भगवान की कथा कहते हैं… मिलनेवाला धन भंडारे में और जनता के हित में इस्तेमाल होता है! इसके बाद आई पटना से ‘इमारते-शरीया’ की कहानी, जिसमें कई भाषण तुरंत ‘विवादास्पद’ बने।
एक नेता बोले कि पानी के बिना मछली रह सकती है, लेकिन शरीयत के बिना मुसलमान नहीं रह सकते।
फिर एक नेता बोले कि हम जीते तो ‘वक्फ कानून’ को कूड़ेदान में फेंक देंगे… तो तुरंत एक सत्ता प्रवक्ता ने लपेटा कि उनको ‘मौलाना’ कहिए… नेताजी का जवाब आया कि मुझे ‘मौलाना’ कहने वाले ‘छपरी’ और ‘टपोरी’ हैं। एंकर कहिन कि इनके पिताश्री तो ‘वक्फ’ के ‘विरोधी’ थे, लेकिन पुत्र वक्फ संशोधनों के खिलाफ हैं।
फिर एक दिन कर्नाटक के एक मंत्री जोश में कह दिए कि जिस दिन सत्ता मेरे पास आ गई ‘आरएसएस’ को ‘प्रतिबंधित’ कर दूंगा… यह ‘देश-विरोधी’ और ‘कायर’ संगठन है… यह ‘विषाक्त’ है। लगे हाथ एक और मंत्री कह दिए कि ‘आरएसएस’ तो ‘पीडीएफ’ से ज्यादा खतरनाक है… सत्ता प्रवक्ता ने कहा कि यह इनका ‘राष्ट्रवाद’ नहीं ‘शरीयत’ पसंद है! फिर एक दिन जैसे ही आरएसएस के एक बड़े नेता ने यह कहा कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ शब्दों को संविधान से हटा देना चाहिए, वैसे ही बहसें चैनलों में आ बैठीं।
विपक्ष ने कहा कि ये संविधान के दुश्मन हैं, तो जवाब आया कि मूल संविधान में ये शब्द नहीं थे, क्योंकि ‘प्रस्तावना’ में ये दोनों मूल्य निहित हैं। आपातकाल में इन शब्दों को जोड़कर संविधान बदला गया। एक बोले, अगर हम कहें कि कांग्रेस को ‘प्रतिबंधित’ करो तो कैसा लगेगा?
इसके बाद आई ‘कांवड़ कथा’ और ‘गोपाल’ उर्फ ‘तजम्मुल’ के दोहरे ‘नामों’ की ‘छलिया कहानी’! इस छल को स्पष्ट करने के लिए एक चैनल ने एक ‘हिंदू देवता’ के चित्र वाले ‘होटल’ में काम करते उस ‘गोपाल’ से बात की, जिसने पूछने पर अपना असली नाम अलग बताया। उत्तर प्रदेश सरकार ने चाहा कि कांवड़ मार्ग में ‘सात्विक भोजन’ ही मिले और रास्ते के दुकान और होटल वाले अपनी पहचान की ‘नेमप्लेट’ लगाएं। एक चैनल ने बताया कि कांवड़ मार्ग पर अधिकांश होटलों के मालिक मुसलमान हैं, लेकिन होटल का नाम ‘हिंदू देवताओं के नाम से रख लेते हैं। यह ‘धोखाधड़ी’ है।
इसके बाद जल्द ही विपक्ष ने मोर्चा खोल दिया कि ये कौन होते हैं किसी का नाम पूछने वाले! इतने में एक ‘मराठीवादी दल’ का एलान आया कि महाराष्ट्र में रहना है तो मराठी बोलना है, नहीं तो थप्पड़ बोलेगा। एक चैनल ने दिखाया भी कि एक दुकानदार के मराठी न बोलने पर कुछ ‘मराठीवादी’ कार्यकर्ता उसे थप्पड़ पर थप्पड़ मारते दिखे। फिर महाराष्ट्र सरकार ने भी हिंदी का पल्ला छोड़ा..!