इत्तेफाक से जिस दिन अखबारों की सुर्खियों से मालूम पड़ा पिछले सप्ताह कि भारत में गरीबी इतनी कम हो गई है कि गरीबी रेखा के नीचे बहुत थोड़े लोग रह गए हैं। मुझे मरीन ड्राइव पर एक बच्ची मिली, इतनी छोटी और पतली थी कि जब उसने बताया कि उसकी उमर 12 साल है, तो यकीन करना मुश्किल था। उसके पांव नंगे थे और उसका गुलाबी रंग का कुर्ता-पजामा इतना मैला कि ऐसा लगा जैसे उसके पास कपड़ों का दूसरा जोड़ा न हो। हमसे उसने बातें इस उम्मीद से शुरू कीं कि शायद हम उसके लिए कुछ कपड़े और खरीद दें।

मैंने जब उससे पूछा कि वह मुंबई आई कहां से थी, तो उसने बताया कि कुछ दिन पहले सोलापुर से आई थी मुंबई में ‘कुछ पैसे कमाने’। इतनी दूर अकेली आई कैसे, मैंने पूछा, और टिकट के पैसे किसने दिए, तो उसने कहा, ‘हम टिकट तो लेते नहीं हैं, बस आ जाते हैं’। कुछ और सवाल पूछे मैंने, तो पता लगा कि यह बच्ची फुटपाथ पर रातें गुजारती है उन लोगों के साथ जिनको मैं उनके बचपन से जानती हूं। कोई 15-20 साल पहले मैंने मरीन ड्राइव पर ‘नाश्ता’ नाम का कार्यक्रम शुरू किया था उन लावारिस बच्चों के लिए जिनकी सारी जिंदगी फुटपाथों पर गुजरती है।

अक्सर महानगर के फुटपाथ पर ही उनका जीवन बीतता है

इन बच्चों में से मेरी खास दोस्ती हुई सुरेखा और रूपा नाम की बच्चियों के साथ जो अब बड़ी हो गई हैं और जिनके अपने बच्चे भी अब फुटपाथ पर जीवन बिताते हैं। इनमें से कुछ बच्चों को मैंने एक निजी बाल आश्रम में डाल दिया था, जो एक पारसी संस्था चलाती है। लेकिन कुछ मुट्ठी भर हैं, जिनको नौकरियां मिल जाती हैं इस महानगर में। अक्सर फुटपाथ पर ही उनका जीवन बीतता है।

थोड़ा बहुत गुजारा हो जाता है फूल, खिलौने और चूड़ियां बेच कर। जो थोड़ा बहुत लिखना-पढ़ना सीख जाते हैं, उनके लिए भी नौकरी मिलना मुश्किल है। इसलिए कि फुटपाथ पर रहने वालों पर कोई भरोसा नहीं कर सकता है। मुंबई के मरीन ड्राइव पर ही अति-गरीब मिलते हैं, तो यकीन करना मुश्किल है कि गरीबी देश में इतनी कम हो गई है। नापने वाले कौन हैं? और कैसे तय करते हैं कि गरीबी कितनी कम हुई है?

कुछ गड़बड़ इसलिए भी लगती है कि 80 फीसद भारतीयों को जरूरत है मुफ्त राशन की और जब भी सरकारें खैरात बांटने की कोई नई योजना बनाती है तो क्यों लंबी कतारें लग जाती हैं गरीबों की। महाराष्ट्र चुनाव अगर भारतीय जनता पार्टी ने जीता कुछ महीने पहले, तो मेरी राय में सिर्फ उस लाडली बहना योजना के वास्ते।

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इसके जरिए गरीब औरतों को पंद्रह सौ रुपए मिलते हैं हर महीने। ऊपर से यह भी याद रखिए कि अनुमान लगाया जाता है कि भारत के तकरीबन 90 फीसद लोगों का आवास है एक कमरा, जिसमें पूरा परिवार रहता है। यह गरीबी नहीं तो क्या है?

रही बात देहातों की, तो हाल यह है कि मनरेगा से पैसा लेने के लिए करोड़ों लोग अपना नाम दर्ज करते हैं। ऐसा क्यों? कोविड के दौर में तो यह योजना न होती, तो शायद करोड़ों बेरोजगार लोग भूख से मरते। पिछले सप्ताह शायद आपने पढ़ा होगा अखबारों में कि बिहार के एक गांव में पांच छोटे बच्चों को निर्वस्त्र कर रस्सियों से बांध कर गलियों में घुमाया एक दुकानदार ने, सिर्फ इसलिए कि इन बच्चों ने उसकी दुकान से चाकलेट चुराए थे।

यह गरीबी नहीं तो क्या है? महाराष्ट्र में जिस गांव से मेरा आना-जाना रहा है पिछले बीस बरसों से, वह आदिवासियों की एक बस्ती है, जिसमें टूटे-फूटे कचरे से बनी झुग्गियों में ऐसे लोग रहते हैं जो शायद जिंदा न होते, अगर उनको हर महीने मुफ्त राशन न मिलता सरकार से। यह समुंदर किनारे गांव है, जहां मुंबई के धनवानों ने अपने लिए आलीशान कोठियां बनाई हैं समुंदर की हवाओं का मजा लेने के लिए।

कहना यह चाहती हूं मैं कि गरीबी नापने वाले विद्वान शायद जमीनी यथार्थ से बहुत दूर हैं। उनके आंकड़े बनते हैं ऊंचे सरकारी दफ्तरों में जहां गरीबी की बदबू तक नहीं आती है।

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मैंने अपने जीवन में अति-गरीब लोग तब ही देखे, जब पत्रकार बनी। याद है मुझे कि ओड़ीशा के कालाहांडी में जब भुखमरी फैली थी, तो मुझे ऐसे बच्चे दिखे जिन्होंने महीनों से सिर्फ परिंदों का दाना खाया था। अनाज था ही नहीं। ये गांव निर्भर थे बरसात पर और उस साल बरसात जब नहीं हुई, तो बच्चे भूख से मरने लग गए थे, लेकिन सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ऐसा कुछ नहीं हुआ। इतनी संवेदनहीन थी उस समय की कांग्रेस सरकार कि जब बच्चे मरने लगे, तो खिचड़ी बांटने के लिए लंगर खुला कालाहांडी शहर में, लेकिन खाना परोसा जाता था सिर्फ उन बच्चों को जो पांच साल से छोटे थे।

सच यह है कि हमारे शासक अभी तक समझे नहीं हैं कि गरीबी हटाने के असली जरिए क्या हैं। बड़ी-बड़ी योजनाओं के बदले अगर हर गांव में ‘अक्षय पात्र’ जैसी संस्थाओं को लंगर खोलने की इजाजत दी जाती है, तो बच्चे कम से कम भूखे नहीं सोते रात को। स्कूल अच्छे बनते देहातों में, तो पढ़-लिख कर बच्चे अच्छी नौकरियां हासिल करने के लायक होते। स्वच्छ पानी मिलता नलों में, तो बीमार न पड़ते और स्वास्थ्य सेवाएं अच्छी होतीं और हर गांव में तो बहुत बड़ा फर्क पड़ सकता है।

अमीर, विकसित देशों में जरूरतमंदों के लिए खाना रोज बांटा जाता है गिरजाघरों से। भारत में सिर्फ गुरुद्वारे हैं जहां गरीब, बेघर लोगों को रहने-खाने के लिए जगह मिलती है। ये सुविधाएं हमारे हर मंदिर में क्यों नहीं मिलती हैं, मुझे समझ में नहीं आता। उधर, हमारे शासक हैं जो गरीबी का दोष डालते हैं जातिवाद पर, यह भूल कर कि जाति जनगणना से गरीबी हटाने में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।