मेरा शीर्षक सीधा और सपाट है। अब आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि मैं किनकी बात कर रहा हूं। यहां एक ओर शैतान की भूमिका दिख रही है तो दूसरी ओर गहरा समुद्र। सवाल यह है कि शैतान कौन है और गहरा समुद्र किसे कहा जाए! दो अप्रैल, 2025 को शुरू हुए वर्तमान शुल्क संग्राम में भारत को दो देशों से गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है: संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन। वर्तमान संदर्भ में, दोनों ही अप्रिय विकल्प हैं।
समस्या का एक पहलू…
वर्ष 2024-25 में संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के साथ भारत का व्यापार था-
अमेरिका चीन विश्व
निर्यात 86.51 अरब 14.25 अरब 437.42 अरब
आयात 45.3 अरब 113.45 अरब 720.24 अरब
अधिशेष 41.21 अरब 99.20 अरब 282.82 अरब
इसलिए, दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के साथ काम करते समय भारत को दो बिल्कुल विपरीत चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ, हमारे पास व्यापार खाते में अधिशेष है। अमेरिका को हमारे प्रमुख निर्यात- रत्न और आभूषण, फार्मास्यूटिकल्स, इंजीनियरिंग सामान, इलेक्ट्रानिक सामान और कुछ कृषि उत्पाद हैं। प्रतिस्पर्धी कीमतों पर गुणवत्ता वाले फार्मास्यूटिकल्स को छोड़कर, अन्य ऐसी वस्तुएं हैं, जिनके बिना अमेरिका अपना काम चला सकता है या वह अन्य देशों से उन्हें आयात कर सकता है। मगर निर्यात होने वाली हर वस्तु से भारत में हजारों पुरुषों और महिलाओं की आजीविका चलती है।
डोनाल्ड ट्रंप के शुल्क लगाने के इरादे से हमारे व्यापार खाते में अधिशेष को खतरा है। जब तक ‘विराम’ है, और फार्मास्यूटिकल्स को अस्थायी रूप से छूट दी गई है, तब तक शुल्क की तलवार भारत के सिर पर लटकी हुई है। अगर शुल्क लगाए जाते हैं, तो इससे निर्यातक, नौकरियां, विदेशी मुद्रा आय और चालू खाता शेष गंभीर रूप से प्रभावित होंगे। अमेरिका के साथ बातचीत करना और कठोर शुल्क से बचना, भारत के हित में है।
भारतीय वस्तुओं को रोकने से अमेरिका को भी कोई लाभ नहीं होगा, और ट्रंप यह अच्छी तरह जानते हैं। वे आयात को अनुमति देने का कोई तरीका निकाल लेंगे, लेकिन वे उसकी कीमत वसूलेंगे। वे भारत पर अमेरिका से अधिक खरीदने और व्यापार को ‘संतुलित’ करने पर जोर देंगे। मेरा अनुमान है कि वे भारत पर अधिक सैन्य उपकरण और विमान खरीदने का दबाव बनाएंगे- दोनों ही उच्च मूल्य वाले हैं। भारत अपनी अन्य जरूरतों, जैसे लोहा और इस्पात, कार्बनिक रसायन, प्लास्टिक, खनिज र्इंधन और तेल तथा पेट्रोलियम उत्पादों को दुनिया के अन्य देशों से आयात कर सकता है, लेकिन विवेकपूर्ण तरीके से अमेरिकी सामान चुन सकता है।
बड़ा सवाल यह है कि भारत उच्च लागत वाले अमेरिकी सैन्य उपकरणों और विमानों (और अब परमाणु रिएक्टरों) पर कितना अधिक खर्च कर सकता है? नरेंद्र मोदी ने बिना किसी विरोध के अमेरिकी उकसावे और ज्यादतियों को बर्दाश्त किया है, उन्हें ट्रंप के साथ समझौता करने पर मजबूर होना पड़ सकता है।
… और दूसरा पहलू
चीन के साथ भारत की समस्या बिल्कुल उलट है। भारत के व्यापार खाते में घाटा बहुत बड़ा और बढ़ता जा रहा है: यह सौ अरब अमेरिकी डालर का बहुत बड़ा घाटा है। भारतीय उद्योग बिजली और इलेक्ट्रानिक उपकरणों, मशीनरी, कार्बनिक रसायन, प्लास्टिक और लोहा तथा इस्पात के मामले में चीन पर बहुत ज्यादा निर्भर हो गया है, क्योंकि चीनी माल की कीमतें कम हैं (कभी-कभी तो ‘डंपिंग’ के बराबर)। भारत के पास समान कीमतों और ‘डिलीवरी-टाइम’ पर कुछ ही वैकल्पिक स्रोत हैं। जब तक भारत अपने घरेलू विनिर्माण क्षेत्र का विस्तार और उन्नयन नहीं करता- जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी 13-14 फीसद पर अटकी हुई है- तब तक भारत चीन पर निर्भर रहेगा।
चीन को भारत का निर्यात मुख्य रूप से उपभोक्ता सामान, खनिज और पेट्रोलियम आधारित र्इंधन, समुद्री खाद्य पदार्थ, सूती धागा और कुछ कृषि उत्पाद हैं। जाहिर है, कुछ मूल्यवर्धित सामान हैं, जिन्हें भारत चीन को निर्यात कर सकता है, जिन्हें चीन घरेलू स्तर पर नहीं बना सकता या दूसरे देशों से नहीं मंगा सकता। भारत की दुर्दशा विनिर्माण क्षेत्र की मोदी सरकार की उपेक्षा का नतीजा है। चीन ने भारत से और अधिक सामान आयात करने की इच्छा जताई है, लेकिन भारत इस प्रस्ताव का लाभ उठा सकता है या नहीं, यह बहस का विषय है।
चीन के साथ व्यापार घाटा भारत के चालू खाता घाटे को बढ़ाता है और यह एक बम की तरह है। अमेरिका के साथ अधिशेष ने एक हद तक चीन के साथ घाटे की भरपाई की है। अगर ट्रंप के शुल्क के कारण अमेरिका के साथ व्यापार अधिशेष गायब हो गया और चीन के साथ व्यापार घाटा बढ़ गया, तो यह भारत की स्थिति को और खराब कर देगा।
क्वाड कहां है?
एक और है जो खेल खराब करता है : क्वाड, या चतुर्भुज सुरक्षा संवाद। अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया की रणनीतिक प्राथमिकताएं भारत की रणनीतिक प्राथमिकताओं से काफी अलग हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका चाहता है कि क्वाड, चीन के विस्तारवाद के विरुद्ध एक मजबूत गढ़ बने। भारत क्वाड को समुद्री सुरक्षा, डिजिटल संपर्क, उभरती तकनीकों आदि तक सीमित रखना चाहता है और क्वाड को चीन विरोधी समूह में बदलने को लेकर सावधान है।
इसके अलावा, चीन ने दुनिया को चेतावनी दी है कि कोई भी देश अमेरिका के साथ ऐसा समझौता करेगा, जो चीन के हितों के प्रतिकूल है, तो उसे इसकी कीमत चुकानी होगी। भारत को संयुक्त राज्य अमेरिका (जो पूंजी और प्रौद्योगिकी का प्रमुख स्रोत है) और चीन (जो मध्यवर्ती और पूंजीगत वस्तुओं का प्रमुख स्रोत है) के बीच संतुलन बनाए रखना चाहिए। इसके अलावा, चीन एक शत्रुतापूर्ण पड़ोसी है, जो भारतीय क्षेत्र पर कब्जा कर रहा है। अब तक, क्वाड में भारत की भागीदारी नपी-तुली और व्यावहारिक रही है, लेकिन दक्षिणपंथी प्रभावशाली लोगों (भारत और अमेरिका में) द्वारा भारत को चीन के साथ टकराव में धकेलने का खतरा है।
एक और दिलचस्प बात यह है: राष्ट्रपति ट्रंप 20 जनवरी, 2029 को चले जाएंगे, लेकिन राष्ट्रपति शी जब तक चाहें पद पर बने और नियंत्रण अपने हाथ में रख सकते हैं। ट्रंप ढीठ और बेबाक हैं, शी चतुर और चालाक हैं। ट्रंप के दुस्साहस ने मोदी की दिग्भ्रमित संरक्षणवादी नीतियों को उजागर कर दिया है। मोदी को कदम पीछे खींचना चाहिए। उनके लिए अच्छी सलाह यही होगी कि वे अधिक खुले, परामर्शी बनें और विपक्षी दलों को दुश्मन मानने से बचें।