अर्थव्यवस्था के अनेक अन्य ईमानदार शुभचिंतकों की तरह, मैं भी हमेशा वार्षिक केंद्रीय बजट की पूर्व संध्या पर पढ़ता, चिंतन करता और लिखता हूं- और बजट वाले दिन प्राय: संसद भवन से निराश होकर निकलता रहा हूं।

इसके बाद, मैं लोगों के पास जाता हूं और विधायकों, अर्थशास्त्रियों, व्यापारियों, किसानों, महिलाओं, युवाओं और सबसे अधिक, पार्टी कार्यकर्ताओं सहित विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े लोगों से बात करता हूं। कार्यकर्ता मुझे जमीनी स्तर से, खासकर स्थानीय बाजारों में होने वाली चर्चाओं से, ‘फीडबैक’ लेकर मुझे बताते हैं। पिछले दस वर्षों के दौरान लगभग हर वर्ष मैंने देखा है कि बजट की ‘घोषणाएं’ अड़तालीस घंटों के भीतर बिना अपना कोई प्रभाव छोड़े गायब हो जाती हैं, और उनके बारे में चर्चा बंद हो जाती है।

कठिन चुनौतियां

इन निराशाजनक नतीजों का मुख्य कारण यह है कि बजट बनाने वाले हकीकत से दूर होते और आर्थिक स्थिति का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन करने में विफल रहते हैं। चलिए, 2024-25 की ही बात करें, जिसके लिए 23 जुलाई, 2024 को बजट पेश किया जाएगा। आर्थिक स्थिति का वस्तुपरक मूल्यांकन करने से पता चलेगा कि : बेरोजगारी युवाओं, परिवारों और सामाजिक शांति के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। कुछ दर्जन रिक्तियों या कुछ हजार पदों के लिए, लाखों उम्मीदवार आवेदन करते और परीक्षा या साक्षात्कार देते हैं। परीक्षा से पहले पर्चे बाहर हो जाते हैं। रिश्वत दी जाती है। कुछ परीक्षाएं या साक्षात्कार अंतिम समय में रद्द कर दिए जाते हैं, जिससे बहुत परेशानी होती है। ये विस्फोटक बेरोजगारी की स्थिति के प्रत्यक्ष परिणाम हैं। सीएमआइई के अनुसार, अखिल भारतीय बेरोजगारी दर 9.2 फीसद है। कृषि (वास्तव में छिपी हुई बेरोजगारी), निर्माण (अनियमित) और ‘गिग इकोनामी’ (असुरक्षित) में तथाकथित नौकरियों में वृद्धि हुई है।

युवा नियमित नौकरी चाहते हैं, जिसमें कार्यकाल की थोड़ी सुरक्षा और उचित वेतन हो। ऐसी नौकरियां सरकारी और सरकार द्वारा नियंत्रित निकायों में उपलब्ध हैं। 2024 की शुरुआत में, ऐसे पदों पर दस लाख रिक्तियां थीं, मगर इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि केंद्र सरकार रिक्तियों को भरने के लिए उत्सुक है। ऐसी नौकरियां विनिर्माण क्षेत्र और वित्तीय सेवाओं, सूचना प्रौद्योगिकी, जहाजरानी, हवाई परिवहन, आतिथ्य, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और अनुसंधान तथा विकास जैसी उच्च मूल्य वाली सेवाओं में भी सृजित की जा सकती हैं। विनिर्माण उत्पादन सकल घरेलू उत्पाद के पंद्रह फीसद पर स्थिर हो गया है, क्योंकि भारतीय प्रवर्तकों ने निवेश करने में काफी बेरुखी दिखाई है। विनिर्माण और उच्च मूल्य वाली सेवाओं के तीव्र विस्तार के लिए आर्थिक नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन और विदेशी निवेश तथा विदेशी व्यापार को साहसपूर्वक अपनाने की आवश्यकता है।

मूल्य वृद्धि या मुद्रास्फीति दूसरी बड़ी चुनौती है। सरकार द्वारा मापी गई थोक मूल्य मुद्रास्फीति 3.4 फीसद के उच्च स्तर पर है। सीपीआइ मुद्रास्फीति 5.1 फीसद और खाद्य मुद्रास्फीति 9.4 फीसद है। चूंकि भारत एक साझा बाजार नहीं है, जहां देश के हर हिस्से में वस्तुओं और सेवाओं का मुक्त प्रवाह होता है, इसलिए दरें राज्य-दर-राज्य और राज्य के भीतर, परस्पर जुड़े जिलों से लेकर गरीब और दूरदराज के जिलों में भिन्न होती हैं। शायद आबादी के शीर्ष 20-30 फीसद को छोड़कर, हर परिवार मुद्रास्फीति से आहत है। कुछ लोग चिड़चिड़े, तो अधिकतर नाराज हैं।
बजट भाषण और आबंटनों में बेरोजगारी और मूल्य वृद्धि से निपटने के लिए विश्वसनीय कदमों की रूपरेखा के मद्देनजर आप अपनी संतुष्टि के स्तर के पैमाने पर पचास अंक निर्धारित कर सकते हैं।

दो अन्य चुनौतियां

शेष पचास अंक शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और बाकी लोगों की प्राथमिकताओं के आधार पर आबंटित किए जा सकते हैं। जब तक हमारे पास निम्नस्तर की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा होगी, तब तक भारत विकसित देश नहीं बन सकता। शिक्षा, खासकर स्कूली शिक्षा, निस्संदेह व्यापक है, लेकिन इसकी गुणवत्ता खराब है। हकीकत यह है कि एक बच्चा औसतन सात से आठ वर्ष एक स्कूल में बिताता है। लगभग आधे बच्चे किसी भी भाषा में एक सामान्य पाठ पढ़ने या लिखने में असमर्थ और संख्यात्मक हिसाब-किताब में फिसड्डी हैं। वे किसी भी कौशल वाली नौकरी के लिए उपयुक्त नहीं हैं। हजारों स्कूलों में एक-एक शिक्षक हैं। स्कूलों में कक्षाओं, शौचालयों और शिक्षण सहायक सामग्री की भारी कमी है, पुस्तकालयों या प्रयोगशालाओं की तो बात ही छोड़ दीजिए। केंद्र सरकार को इन मूलभूत समस्याओं को दूर करने के लिए राज्यों को प्रेरित करना और उनकी मदद करनी चाहिए- और अपने संसाधनों तथा समय को विवादास्पद एनईपी या घोटालों से भरे एनटीए/एनईईटी को आगे बढ़ाने में बर्बाद नहीं करना चाहिए।

स्वास्थ्य सेवा बेहतर है, लेकिन पर्याप्त नहीं। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा मात्रात्मक रूप से बढ़ रही है, लेकिन गुणवत्ता में नहीं। कुल स्वास्थ्य व्यय में जेब से किया जाने वाला खर्च अब भी लगभग 47 फीसद है (एनएचएई, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय)। निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में मात्रा और गुणवत्ता दोनों बढ़ रही है, लेकिन वह अधिकांश लोगों की पहुंच से दूर है। कुल मिलाकर, डाक्टरों, नर्सों, चिकित्सा तकनीशियनों, नैदानिक उपकरणों तथा मशीनों की भारी कमी है। स्वास्थ्य सेवा पर केंद्र सरकार का व्यय जीडीपी के अनुपात में 0.28 फीसद और कुल व्यय के अनुपात में 1.9 फीसद (15 जुलाई, 2024 का ‘टीओआइ’) रह गया है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को लेकर जनता में संतोष का स्तर बहुत कम है।

कड़ा, तगड़ा तमाचा

अन्य लोगों की प्राथमिकताएं वेतन, बढ़ते घरेलू कर्ज, रोजमर्रा के उपभोग की वस्तुओं की घटती खपत, न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी, शिक्षा ऋण के बोझ और अग्निपथ योजना आदि को लेकर हैं। इन चुनौतियों का यही समाधान हो सकता है कि न्यूनतम मजदूरी 400 रुपए प्रतिदिन, एमएसपी को कानूनी गारंटी दी जाए, शिक्षा ऋण माफ हो और अग्निपथ को खत्म किया जाए। इन मुद्दों की उपेक्षा, जो उपहास उड़ाने जैसा है, का ही नतीजा है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा की सीटों में विनाशकारी गिरावट आई। मगर भाजपा को इसका पछतावा नहीं है। न ही, सार्वजनिक बयानों के अनुसार, वह अपने माडल पर पुनर्विचार करने को तैयार है: जो मुख्य रूप से मित्र पूंजीपतियों को प्रोत्साहन, ‘ट्रिकल-डाउन’, पक्षपाती पूंजी और संरक्षणवाद पर आधारित है। जुलाई में हुए तेरह विधानसभा उपचुनावों में लोगों ने भाजपा को जोरदार तमाचा मारा : आइएनडीआइए धड़े ने उनमें से दस सीटें जीत ली और अपने वोट साझीदारी में नाटकीय रूप से बढ़ोतरी हासिल की। क्या बजट दीवार पर लगी इन चेतावनियों का जवाब देगा? आप बेहतरी के लिए दुआ करते रहिए।