जिस उत्साह के साथ (एनक्रिप्शन) नीति की घोषणा हुई, उसी तेजी से वह वापस भी ले ली गई। यह बस सोमवार की सुबह से लेकर मंगलवार की सुबह तक कायम रही। इस बीच एक बलि का बकरा ढूंढ़ लिया गया- एक बेचारा निचले दर्जे का वैज्ञानिक- और बाकी सबने राष्ट्रीय एनक्रिप्शन नीति के मसविदे से पल्ला झाड़ लिया।

यह असल में अभी एक मसविदा ही था, पर यह एक ‘राष्ट्रीय नीति’ का मसविदा था, जिसे सार्वजनिक जानकारी के दायरे में लाया गया, ताकि संबंधित पक्ष और आम नागरिक अपनी राय दे सकें। निश्चय ही इसे उस साधारण वैज्ञानिक से बहुत ऊपर के स्तर से मंजूरी प्राप्त रही होगी। इसके अलावा, रचनात्मक जवाबदेही का सिद्धांत भी है। यह एक बुनियादी बात है, पर ऐसा लगता है कि मंत्री और संबंधित सचिव पर यह लागू नहीं होती।

यह पहली बार नहीं है कि भाजपा/राजग सरकार ने कार्रवाई पहले की हो, और सोचने की जहमत बाद में उठाई हो। दूसरी सरकारों के भी दोष बताए जा सकते हैं, पर हमारा ताल्लुक अभी मौजूदा सरकार से है, और पहले करने तथा बाद में सोचने की प्रवृत्ति ने गहरी चिंताएं पैदा की हैं।

पीछे हटना:

सरकार को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की बाबत चेताया गया था, पर वह नहीं मानी और उसने तीन बार अध्यादेश जारी किया। नौ महीनों बाद उसने बिना सोची-समझी इस कवायद से तौबा कर लिया।
‘नेट निरपेक्षता’ को लेकर भी सरकार को आगाह किया गया था, पर उस चेतावनी को उसने नजरअंदाज कर दिया, और आखिरकार उसे अपना रुख बदलना पड़ा।

अन्य स्तरों पर, मैगी नूडल्स को प्रतिबंधित किया गया, गोमांस की बिक्री और खपत प्रतिबंधित की गई, कई दिनों तक मांस पर पाबंदी रही, और एक एनजीओ कार्यकर्ता को देश से बाहर जाने से रोका गया। इन सभी मामलों में संबंधित सरकार को नीचा देखना पड़ा।

राजस्थान सरकार ने पंचायत और नगरपालिका उम्मीदवारों के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता निर्धारित की, एक ऐसी शर्त जो संसद और विधानसभा उम्मीदवारों पर लागू नहीं होती। इससे राज्य के आधे या उससे अधिक मतदाता पंचायत और नगरपालिका चुनाव लड़ने के अयोग्य हो गए। राजस्थान सरकार ने जैसे-तैसे ये चुनाव करा लिए, एक ऐसे कानून के तहत, जिसकी वैधता सवालों के घेरे में थी। हरियाणा सरकार ने भी वही चाल चलने की कोशिश की, पर वहां चुनाव अदालत के आदेश पर रोक देना पड़ा। हरियाणा सरकार और भारतीय जनता पार्टी को आगाह किया गया था कि इस कानून की वैधता संदिग्ध है, पर उन्होंने चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया।

सबसे ताजा मामला आरक्षण पर बहस का है, जो मोहन भागवत के सोच-समझ कर दिए गए बयान से छिड़ी है। आरएसएस और सरकार के बीच तीन दिन तक चले ‘विचारों के आदान-प्रदान’ के पूरा होते ही यह बयान सामने आया। इस संवाद में प्रधानमंत्री और वरिष्ठ मंत्रियों ने भी शिरकत की। यह मानना मुश्किल है कि इस ‘विचारों के आदान-प्रदान’ में आरक्षण पर चर्चा नहीं हुई होगी। सरकार ने भागवत के बयान से अपनी दूरी दिखाने में देर नहीं की, पर वह कहानी का अंत नहीं था। दूसरे ही दिन, आरक्षण पर आरएसएस का दृष्टिकोण राजस्थान विधानसभा से पारित दो विधेयकों में पूरी तरह प्रतिबिंबित हुआ।

‘करो पहले, सोचो बाद में’ यह भाजपा/राजग सरकार की विशेषता हो गई है। राष्ट्रीय एनक्रिप्शन नीति का मसविदा इसका एक खास उदाहरण है।

एनक्रिप्शन: किसका हक किसकी जवाबदेही?

यह दावा किया गया कि एनक्रिप्शन नीति का मसविदा सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 69 और 84-ए पर आधारित है। ये प्रावधान सरकार को यह अधिकार देते हैं कि वह कुछ खास स्थितियों में डिजिटल सूचनाओं को बीच में ही पकड़ सकती है, उन पर निगरानी कर सकती है, या कूट संदेशों को खंगाल-खोल सकती है, और एनक्रिप्शन के तौर-तरीके निर्धारित कर सकती है।

सूचना- निजी हो या सार्वजनिक, निरापद गपशप हो या अत्यधिक संवेदनशील- जब पैदा होती है, संचरित होती है, प्राप्त या स्टोर होती है, तो वह कूटभाषा में होती है। इसलिए कुंजी एनक्रिप्शन की कूटभाषा में है। जैसे सरकार के एनक्रिप्शन की कूटभाषा की मालिक सरकार है, वैसे ही गूगल, एप्पल, फेसबुक जैसे सेवा प्रदाताओं के एनक्रिप्शन की कूटभाषा के मालिक वे स्वयं हैं। उनका कारोबार उनकी कूटभाषा की सुरक्षा पर निर्भर करता है, इसलिए वे इसमें नए-नए प्रयोग करते रहते हैं और अपनी कूटभाषा को सेंधमारी से बचाने की जहमत में हर वक्त जुटे रहते हैं।

एनक्रिप्शन नीति के मसविदे ने डिजिटल जमाने की सच्चाइयों और चुनौतियों को खुशी-खुशी नजरअंदाज कर दिया। इसने उपयोगकर्ताओं के तीन वर्गों- सरकार, व्यापारिक जगत और नागरिक- के लिए एनक्रिप्शन के मानक तय करने के सरकार के अधिकार पर खूब जोर दिया। कंपनियों के लिए सरकार की संबंधित एजेंसी के पास अपने उत्पाद को पंजीकृत कराना और एनक्रिप्शन हार्डवेयर/सॉफ्टवेयर की कार्योपयोगी प्रतियां पेश करना बाध्यकारी बनाया गया था। वहीं उपयोगकर्ताओं के लिए यह अनिवार्य किया गया था कि वे सूचना को स्पष्ट भाषिक सांचे में नब्बे दिनों तक बनाए रखें, और मांगने पर, कानून लागू करने वाली एजेंसियों को इसे मुहैया कराएं।

भयावह नतीजे:

कल्पना कीजिए कि कोई सरकार सभी व्यापारिक और नागरिक समूहों के लिए एनक्रिप्शन विधियां निर्धारित करे! या, सारे एनक्रिप्शन हार्डवेयर/सॉफ्टवेयर की कार्योपयोगी प्रतियां एक स्थान पर (संबंधित एजेंसी के पास) उपलब्ध कराने के भयावह नतीजों की कल्पना कीजिए। या, सूचना/संदेश को उसके भाषिक सांचे में नब्बे दिनों तक महफूज रखने के जोखिमों की कल्पना कीजिए। चीनी और अन्य हैकरों की जमात बहुत खुश होगी।

लगता है कि इस नीति-मसविदे को जिन्होंने तैयार किया उन्हें न निजता की समझ है न सुरक्षा की। डिजिटल दुनिया में सूचना की सुरक्षा निरंतर शोध, नवाचार, डिजाइन और प्रयोग पर निर्भर करती है- इसलिए सबसे अच्छी बात यही होगी कि मामले को कंपनियों, सेवा प्रदाताओं, कारोबारियों और नागरिकों पर छोड़ दिया जाए। निजता की जरूरत और निजता किस हद तक हो, जो कि हर नागरिक चाहता है, उसे नागरिकों पर छोड़ देना ही सबसे अच्छा विकल्प है।

सरकार की चिंता केवल संवेदनशील या वर्गीकृत सूचनाओं की सुरक्षा को लेकर होनी चाहिए। इसलिए सरकार का अधिकार सिर्फ विभिन्न प्रकार की सूचनाओं और विभिन्न कंपनियों, सेवा प्रदाताओं और प्रयोक्ताओं के लिए सुरक्षा के न्यूनतम मानक तय करना और सुरक्षा-नियमों के उल्लंघन की सूरत में संबंधित सूचना मांगने का है। मैं उम्मीद करता हूं कि अगला ‘वैज्ञानिक’, जो नीतिगत मसविदा बनाएगा, इन बातों को ध्यान में रखेगा।

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