एक घटना ने पिछले सप्ताह याद दिलाया मुझे कि इस देश का आम आदमी राजनीतिज्ञों के नखरों और बदतमीजियों से कितना तंग हो गया है। हुआ ऐसा कि मैं मुंबई के ओबराय-ट्राइडेंट होटल में गई थी किसी से मिलने और जब बाहर बरामदे में आकर अपनी गाड़ी का इंतजार कर रही थी तो देखा कि गाड़ियों का आना-जाना तकरीबन बंद पड़ा था, क्योंकि एक आलीशान, बड़ी गाड़ी ने रास्ता रोक रखा था। मैंने जब वहां खड़े दरबानों से पूछा कि गाड़ी को हटा क्यों नहीं रहे हैं तो उन्होंने कहा कि जिसकी गाड़ी है, वह उसको बंद करके चला गया है।

गाड़ी की तरफ जब मैंने ध्यान से देखा तो दिखा कि उसके सामने वाले शीशे पर ‘आमदार’ लिखा हुआ था। विधायक को मराठी में आमदार कहते हैं। तेज बारिश हो रही थी और गाड़ियों की कतार लग चुकी थी, इतनी लंबी कि मेरी गाड़ी ऊपर आ नहीं पा रही थी। इसको देखकर मुझे थोड़ा गुस्सा आया और मैंने विधायक साहब की गाड़ी की फोटो निकाल कर ‘एक्स’ पर डाल दिया साथ में यह कहते हुए कि राजनीतिक अपने आपको इतने बड़े ‘वीआइपी’ समझते हैं कि उन आम लोगों की परवाह तक करना छोड़ देते हैं, जिन्होंने उन्हें संसद और विधानसभाओं में उनकी आवाज बनने के लिए भेजा है।

इतना जरूर कहूंगी कि वे भारतीय जनता पार्टी के विधायक निकले

हैरान हुई इसका असर देखकर। कोई 60,000 लोगों ने इस पोस्ट को पढ़ा और कई सारे लोगों ने इसपे अपनी राय ‘एक्स’ पर डाली। कुछ लोगों ने तो पूरी जांच करके विधायक का नाम और उनका चुनाव क्षेत्र मालूम करके उसको भी सोशल मीडिया पर डाल दिया। नाम से कोई मतलब नहीं है मुझे, लेकिन इतना जरूर कहूंगी कि वे भारतीय जनता पार्टी के विधायक निकले।

यह जब पता लगा मुझे तो याद आया किस तरह नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बन जाने के फौरन बाद लाल बत्तियां हटवाई थीं सांसदों की गाड़ियों से दिल्ली में। ‘वीआइपी कल्चर’ के खिलाफ भी बोले थे, लेकिन फिर जैसे भूल से गए प्रधानमंत्री कि जनता के प्रतिनिधियों की बिगड़ी आदतों को सुधारने की सख्त जरूरत है। यह इसलिए कि लोकतांत्रिक देशों में पुरानी सामंतवादी प्रथाओं की कोई जगह नहीं होनी चाहिए।

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विकसित पश्चिमी देशों में प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और राजा भी मेट्रो या बस से जाते हैं। अपने इस भारत में तो ऐसी चीजें तब ही होती हैं, जब कोई जनप्रतिनिधि टीवी कैमरों के सामने अपनी झूठी विनम्रता साबित करना चाहता है। हमारे इस भारत महान में चुनाव जीतने के बाद अपने आपको राजा-महाराजा समझने लगते हैं लोग। जनता को भूलकर ऐश करते हैं पांच सितारा जीवन गुजार कर, जब तक अगला चुनाव न सिर पर आए।

मैंने शायद ही ऐसे राजनीतिक देखे हैं, जिनको याद रहता है संसद या किसी विधानसभा में पहुंचने के बाद कि उनका काम है जनता की सेवा, न कि अपनी और अपने परिजनों की सेवा। मैंने कम्युनिस्ट सांसद भी देखे हैं, जो दिल्ली में आलीशान सरकारी बंगलों में रहना पसंद करते हैं। इनमें और दूसरों में फर्क सिर्फ इतना होता है कि इन आलीशान बंगलों में कम्युनिस्ट रहते हैं गरीबों की तरह।

बिल्कुल वैसे जैसे अरविंद केजरीवाल ने शुरू में ढोंगी कोशिश की थी रहने की। याद कीजिए, किस तरह छोटी सी गाड़ी में बैठकर आए थे अपने सरकारी बंगले तक और फिर याद कीजिए किस तरह उन्होंने अपना ‘शीशमहल’ बनाया था अपनी ‘विनम्रता’ को कूड़ेदान में फेंक कर।

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मेरी राय में इस वीआइपी सभ्यता को तब तक हम मिटा नहीं पाएंगे, जब तक हम जनता के पैसों से जनप्रतिनिधियों को रहने के लिए सरकारी आवास देते रहेंगे। लुटियंस दिल्ली को खूब गालियां देते हैं भारतीय जनता पार्टी के आला नेता, लेकिन इस बात को भूल कर कि वे खुद रहते हैं इस ही इलाके में और उनकी सरकारी कोठियां उद्योगपतियों की कोठियों से बड़ी होती हैं।

लुटियंस दिल्ली में जमीन इतनी महंगी है कि उद्योगपति ही खरीद सकते हैं, सो कोई नब्बे फीसद लुटियंस दिल्ली का रिहाइशी इलाका सिर्फ मंत्री, सांसद और आला अधिकारियों के लिए आरक्षित है। ऐसा किसी और लोकतांत्रिक देश में नहीं होता है। जनता के प्रतिनिधि जनता के बीच रहते हैं उन्हीं की तरह, इसलिए कभी भूलते नहीं है कि आम लोगों की समस्याएं क्या हैं।

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इधर हम हैं कि बिल्कुल बुरा नहीं मानते हैं जब हमारे सांसद और विधायक पुराने राजा-महाराजाओं की तरह रहने लगते हैं। इतना भी नहीं पूछते हैं हम कि इन लोगों के पास अचानक इतनी महंगी गाड़ियां कहां से आती हैं। पांचसितारा होटलों में रहने और खाने का इन लोगों के पास पैसा कहां से आता है। न पूछने की वजह क्या यह है कि शायद ज्यादातर लोगों को मालूम ही नहीं है इन चीजों के बारे में?

जिस दिन मैंने उस गाड़ी को देखा था ओबराय होटल में, उस दिन होटल के अंदर कई सारे नेता भी दिखे थे। उनकी पहचान उनके खादी कुर्तों से होती है ही, लेकिन उनकी असली पहचान यह है कि उनके साथ नौकरों की बड़ी सारी टोलियां भी घूमती हैं। नेताजी जब किसी रेस्तरां में खाना खाने जाते हैं तो उनकी ये टोलियां लाबी में बैठी रहती हैं।

उस दिन मैंने जब थोड़ी पूछताछ की कि इतने सारे राजनीतिज्ञ क्यों दिख रहे हैं होटल में तो मालूम पड़ा कि विधानसभा का सत्र शुरू हो गया था। विधायकों के लिए सरकारी हास्टल हैं और मंत्रियों के लिए आलीशान बंगले इस महानगर के सबसे कीमती रिहाइशी इलाकों में, लेकिन फिर भी जब लग जाता है इनको पांच सितारा होटलों का चस्का तो ओबराय और ताज होटल में रहना पसंद करते हैं हमारे ये जनप्रतिनिधि। सो स्वाभाविक है कि इन होटलों को जब यह अपना घर बनाते हैं तो इनकी गाड़ियां भी खड़ी रहेंगी उनके ‘घर’ के बाहर।