यह पिछले सप्ताह के स्तंभ (जनसत्ता सरोकार: मोदी युग के 11 साल- क्या भारत सच में सभी के लिए बेहतर, मजबूत और न्यायसंगत बना? पढ़ें पी. चिदंबरम का लेखा-जोखा, जनसत्ता, 15 जून 2025) की अगली कड़ी है। मुझे ऐसे आंकड़े पसंद हैं, जो सटीक और प्रामाणिक हों, लेकिन अफसोस, ज्यादातर पाठकों को इसमें दिलचस्पी नहीं होती। यहां तक कि शिक्षित लोग भी आंकड़ों को देखकर कतराते हैं। मेरा मानना है कि (एक अर्थव्यवस्था की) तस्वीर को शब्दों की तुलना में आंकड़े कहीं अधिक सच्चाई के साथ पेश करते हैं।
अगर अच्छे शासन की अंतिम कसौटी जनता की भलाई है, तो सवाल है कि ‘क्या एक व्यक्ति के पास भोजन, आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, परिवहन, पारिवारिक समारोह और मनोरंजन जैसी आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त आय है?’ (मैंने अन्य खर्चों को छोड़ दिया है, जो बदलते समय में जरूरी माने जा सकते हैं)।
इस संबंध में सबसे बेहतर आधिकारिक आंकड़ा घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (एचसीईएस) में मौजूद है। मेरे विचार में आय के बजाय उपभोग का मापदंड औसत परिवार के जीवन स्तर और गुणवत्ता को मापता है। पिछली बार घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2023-24 में हुआ था, जिसमें देशभर के 2,61,953 परिवारों (1,54,357 ग्रामीण और 1,07,596 शहरी) से जानकारी एकत्र की गई। संयोग से 2023-24 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने दस वर्ष पूरे किए। इस सर्वेक्षण के आंकड़े व्यापक हैं।
उपभोग : ठोस आंकड़े
सर्वेक्षण का मुख्य बिंदु औसत मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय (एमपीसीई) का आंकड़ा है। किसी व्यक्ति का एक महीने में उपभोग व्यय कितना है, यह उसके जीवन स्तर एवं गुणवत्ता को दर्शाता है, चाहे वह अमीर हो, गरीब हो या मध्यवर्गीय। सौभाग्य से, यह आंकड़ा जनसंख्या की अलग-अलग श्रेणियों में उपलब्ध है। जैसे कि जनसंख्या को प्रत्येक 10 फीसद में विभाजित करना। आंकड़े के लिए कृपया तालिका देखें:
इसे इस तरह देखा जा सकता है: खर्च, आय और उधारी का सूचक है। निचले दस फीसद लोगों का खर्च पचास से सौ रुपए प्रतिदिन है। अपने आप से पूछिए कि प्रतिदिन पचास से सौ रुपए में एक व्यक्ति किस प्रकार का भोजन कर सकता है? उसके पास किस तरह का आवास हो सकता है? वह किस प्रकार चिकित्सा देखभाल या दवाइयों का खर्चा वहन कर सकता है?
- देश की जनसंख्या का दस फीसद कोई मामूली आंकड़ा नहीं है : इस संख्या में 14 करोड़ लोग हैं। अगर ये अलग देश होते, तो दुनिया में जनसंख्या के हिसाब से दसवें स्थान पर होते। फिर भी नीति आयोग और सरकार दावा करती है कि देश की कुल आबादी में गरीब सिर्फ पांच फीसद या उससे कम हैं। यह दावा क्रूर और झूठा है।
सबसे प्रासंगिक तुलना शीर्ष पांच फीसद और निचले पांच फीसद के प्रति व्यक्ति व्यय का अनुपात है। बारह वर्ष पहले यह लगभग बारह गुना था; 2023-24 में भी यह लगभग 7.5 गुना है।
किसान और भोजन : निराशाजनक आंकड़े
सरकार ने दावा किया है कि कृषि विकास मजबूत है, लेकिन क्या किसान का जीवन मजबूत है? नाबार्ड (2021-22) के आंकड़ों से पता चलता है कि लगभग 55 फीसद कृषि परिवार कर्ज के बोझ तले दबे हैं। प्रति परिवार औसत बकाया ऋण 91,231 रुपए है। इस साल तीन फरवरी को लोकसभा में दिए गए जवाब के अनुसार, 13.08 करोड़ किसानों पर वाणिज्यिक बैंकों का 27,67,346 करोड़ रुपए बकाया है; 3.34 करोड़ किसानों पर सहकारी बैंकों का 2,65,419 करोड़ रुपए और 2.31 करोड़ किसानों पर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का 3,19,881 करोड़ रुपए बकाया है।
पीएम किसान योजना में भारी खामियां हैं। सबसे अधिक पंजीकरण अप्रैल-जुलाई 2022 में 10.47 करोड़ था। वर्ष 2023 में यह घटकर 8.1 करोड़ हो गया (पंद्रहवीं किस्त) और सरकार ने दावा किया कि फरवरी 2025 (उन्नीसवीं किस्त) में यह संख्या बढ़कर 9.8 करोड़ हो गई। यह उतार-चढ़ाव समझ से परे है। किराए पर खेती करने वाले किसान इस योजना के पात्र नहीं हैं, जो अन्यायपूर्ण है। यूपीए सरकार ने फसल बीमा योजना को संशोधित कर इसे फिर से शुरू किया था। निजी बीमा कंपनियों को इसमें शामिल करने की अनुमति दी गई और सरकार ने उन्हें बिना नफा-नुकसान के आधार पर योजना चलाने का निर्देश दिया। दूसरी ओर, राजग सरकार द्वारा शुरू की गई प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना
(पीएमएफबीवाई) एक जबरन वसूली योजना बन गई है:
एकत्रित सकल प्रीमियम के अनुपात में भुगतान किए गए दावे वर्ष 2019-20 में 87 फीसद से घटकर 2023-24 में 56 फीसद रह गए हैं। मनरेगा जैसी महत्त्वपूर्ण सामाजिक सुरक्षा योजना में आबंटन पिछले तीन साल से स्थिर है। 1.5 करोड़ से ज्यादा जाब कार्ड खत्म कर दिए गए। वादे के मुताबिक, सौ दिनों के बजाय औसतन केवल 51 दिन का काम दिया गया। अब यह एक मांग आधारित योजना नहीं, बल्कि कोष की कमी वाली योजना बन चुकी है।
देश में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन देने की योजना में 10 करोड़ पात्र नागरिक छूट रहे हैं। मुफ्त राशन और मध्याह्न भोजन योजना के बावजूद, बच्चों में बौनापन 35.5 फीसद और दुबलापन 19.3 फीसद है। वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 127 देशों में 105वें स्थान पर है।
विनिर्माण : कमजोर कड़ी
जीवीए में विनिर्माण की हिस्सेदारी वर्ष 2011-12 में 17.4 फीसद से गिरकर 2024-25 में 13.9 फीसद रह गई है। ‘प्रोडक्शन-लिंक्ड इनसेंटिव स्कीम’ विफल रही है: 14 क्षेत्रों को 1,96,409 करोड़ रुपए आबंटित किए गए थे, लेकिन केवल 14,020 करोड़ रुपए वितरित किए गए हैं।
सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था होने का मतलब यह नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अच्छी स्थिति में है या इससे गरीबी खत्म हो जाएगी या भारत एक विकसित देश बन जाएगा। हर दस साल में भारत को नए संरचनात्मक सुधारों, राज्यों को शक्तियों का विकेंद्रीकरण, विनियमन को व्यापक स्तर पर खत्म करने, अधिक प्रतिस्पर्धा और सरकार की भूमिका को सीमित करने आवश्यकता होती है।
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