अपूर्वानंद

‘भारत में पिछले कुछ समय में हर प्रकार के मतावलंबियों को मात्र उनके विश्वास के कारण दूसरे मत के लोगों द्वारा निशाना बनाया गया है, ये असहिष्णुता की ऐसी घटनाएं हैं कि गांधीजी को, जिन्होंने उस राष्ट्र की मुक्ति में भूमिका निभाई, सदमा पहुंचता।’ बराक ओबामा के इस वक्तव्य पर भारत में परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएं हुई हैं।

ओबामा ने यह क्यों नहीं कहा कि उन्हें सदमा पहुंचा है या आज के भारत के हालात स्तब्धकारी हैं? क्या खुद अपनी प्रतिक्रिया को वे कूटनीतिक कारणों से व्यक्त करने से कतरा गए? फिर एक कर्ता या कर्मविहीन वाक्य जैसे, भारत की हाल की असहिष्णुता की घटनाएं स्तब्धकारी हैं, क्यों नहीं इस्तेमाल किया? क्या वे भारत को लज्जित करना चाहते थे? गांधी जैसे व्यक्तित्व को याद करने के पीछे क्या यह अहसास है कि भारत के आज के नेता, वे राजनीतिक हों या बौद्धिक, विचलित नहीं हो पा रहे हैं? या कि यह मात्र भारतीय समाज की कमी नहीं है, खुद ओबामा के पास या आज के विश्व में वैसे संवेदनात्मक संसाधन नहीं हैं, जिनके सहारे वे अपनी चिंता व्यक्त करने की पात्रता महसूस कर पाते?

भारतीय समाज में व्याप्त असहिष्णुता को महसूस करने के लिए और उससे विचलित हो पाने के लिए अब गांधी की संवेदना ही चाहिए, उससे कम से काम नहीं चलेगा, यह ओबामा के वक्तव्य का अभिप्राय है। लेकिन वह समझना भी हमारे बूते नहीं रह गया है। ओबामा ने यह कह कर भारतीय नेतृत्व पर सख्त टिप्पणी की, लेकिन खुद अपनी अपर्याप्तता को भी स्वीकार किया। वे गांधी की संभावित प्रतिक्रिया का अनुमान कर रहे हैं। ध्यान रहे वाक्य में अनिश्चयात्मकता नहीं है। गांधी निश्चय ही स्तब्ध हुए होते, यह जब कहा जा रहा है तो भारत के हालात के स्तब्धकारी होने में संदेह नहीं होना चाहिए, इस पर जोर दिया जा रहा है।

विचलित न हो पाना या सदमा न महसूस कर पाना एक अक्षमता तो है ही। साथ ही यह भी कि हम धार्मिक असहिष्णुता के तथ्य की पहचान भी नहीं कर पा रहे हैं। ओबामा ने सावधानी बरतते हुए कहा कि भारत में सभी धर्मों के लोग इसके शिकार हैं। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह एक आम बीमारी है और इसलिए इस पर कोई निश्चित शासकीय या राजनीतिक कार्रवाई की ही नहीं जा सकती, क्योंकि इसका स्रोत कोई एक नहीं है, जिसे लक्ष्य करके कुछ किया जाए।

धार्मिक असहिष्णुता समाज में बढ़ रही है, इसकी माप कैसे की जाए? सरकारी पक्ष के समर्थक एक बुद्धिजीवी ने कहा कि ऐसा कोई हत्याकांड, कोई बड़ा आक्रमण नहीं हुआ है कि इस तरह के नाटकीय वक्तव्य की जरूरत पड़े। राजधानी में पांच गिरजाघरों में आगजनी, तोड़फोड़, लूटपाट की घटनाओं को मामूली और नगण्य ही कहा जा सकता है, जब देश इतना बड़ा हो!
ऐसा कहने वाला अभी साल भर पहले मुजफ्फरनगर की घटनाओं को याद भी नहीं कर पाता। असम में लाखों मुसलमानों का विस्थापन तो उसकी चेतना में दर्ज भी नहीं हो पाता। ‘अपवादों’ का एक सिलसिला है, जिनसे एक पैटर्न बनता है। वह क्या है?

शासकीय दल के मंत्रियों और सांसदों के नियमित वक्तव्यों को, जो विशेषकर मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति घृणा का प्रचार हैं, महत्त्व न दिया जाए, यह दलील दी जा रही है। वे शासकीय दल में हाशिए पर हैं। जो भूलना नहीं चाहते या जानते, उन्हें यह सुन कर अभी कुछ बरस पहले ही भारत के एक पश्चिमी प्रदेश के मुखिया के बयानों के बाद आज के शासकीय दल के तत्कालीन नेताओं की प्रतिक्रिया याद आ जाती है। तब भी यह कहा जाता था, ‘आहा! आप इनकी बातों पर कान न दें। ये तो हमारे दल में बिल्कुल किनारे पड़े हैं।’ दस साल में ही नफरत का वह हाशिया केंद्र ही नहीं धुरी बन गया और जो तब केंद्र थे, अनुचर भी नहीं रह गए।

घृणा और असहिष्णुता का अभ्यास किया जाता है और समाज को धीरे-धीरे उसकी आदत पड़ जाती है। जो घृणा का लक्ष्य है, वह निरंतर उसे सहते हुए मानने लगता है कि उसी में कुछ कमी है, इस घृणा को उकसाने वाले तत्त्व उसी में हैं। इसलिए चिकित्सा उसे अपनी करनी है ताकि वह घृण्य न रह जाए। वह दब कर, आक्रांता की निगाहों से दूर छिप जाने की कोशिश करता है। इसे फिर उसी की कमजोरी का प्रमाण माना जाता है। जो घृणा करता है, वह उस पर हमला करने के साथ-साथ हमेशा उसे खुद में सुधार लाने की सलाह भी देता रहता है। यह पूछता रहता है कि आखिर वह उससे कन्नी क्यों काट रहा है! इस बात को स्त्रियों से बेहतर कोई नहीं जानता, जिन्हें अनुशासित और प्रताड़ित करने के पीछे यह समझ है कि गंदगी उनमें है और वे हीन हैं। पुरुष की उत्तेजना और आक्रामकता का स्रोत भी उन्हीं में है।

क्रमश: यह अभ्यास इतना बढ़ जाता है कि घृणा के पात्र का मानवीय अस्तित्व ही ओझल हो जाता है। गुजरात में हिंदुओं से बात करते हुए आप प्राय: यह महसूस करते हैं कि मुसलमान उनके लिए अप्रासंगिक हो चुके हैं। इसलिए उनकी चिंताओं, आशंकाओं या असुरक्षाओं की चर्चा मात्र से वे उत्तेजित हो उठते हैं।

राजनीतिक रूप से मुसलमानों का गुजरात में रहते हुए अप्रासंगिक हो जाना अपने आप में एक हृदयविदारक घटना है, लेकिन इस पर तो अब धर्मनिरपेक्ष लोग भी बात नहीं करना चाहते। बल्कि पिछले चुनावों में खुद मुसलमानों ने कहा कि चुनाव-भाषणों में हमारा ज्यादा जिक्र न करें। यही बात अभी संपन्न हुए दिल्ली के चुनाव में देखी गई। त्रिलोकपुरी और बवाना या अन्य इलाकों में मुसलमानों पर हुए हमले पर बात न करने की सावधानी हर धर्मनिरपेक्ष दल ने बरती। क्यों?
ओबामा के बहुत पहले, 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद हमारे मित्र, समाजशास्त्री सतीश देशपांडे ने विषादपूर्वक कहा कि चुनाव-परिणाम दिल दहला देने वाले हैं। इनसे भारत के अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों को बता दिया गया है कि वे राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक हो चुके हैं। पहले तो मैं सतीश के शब्दों के चुनाव से सहम गया और सोच में पड़ गया। वे भाषा के सावधान प्रयोक्ता हैं और अतिशयोक्ति नहीं करते। फिर लोकसभा के चुनाव परिणाम क्यों हममें से अधिकतर को समावेशी विकास के लिए उत्साहजनक लगे और क्यों सतीश इससे दुख में डूब गए?

इसका कारण वही है, जिसने ओबामा को गांधी की स्मृति का आह्वान करने पर बाध्य किया। बिना गांधी-संवेदना के, जो हो रहा है, उसकी भयावहता और साझा सामाजिक जीवन के लिए उसकी दूरगामिता के बारे में विचार शुरू करना भी मुमकिन नहीं।

गांधी की संवेदना हमारी सामाजिक संवेदना का घटक तत्त्व नहीं बन पाई, बावजूद इसके कि उनका व्यक्तित्व हमें चमत्कृत करता रहा है। इस संवेदना की बनावट बहुत जटिल नहीं है। एक तो बराबरी के सिद्धांत पर आधारित साझा और मिश्रित जिंदगी में यकीन और दूसरे, किसी भी कारण से किसी एक को दूसरे पर अपनी श्रेष्ठता का गरूर न होना। ये बातें इतनी सरल और साफ मालूम पड़ती हैं कि हम भूल जाते हैं कि ये अभ्याससाध्य हैं और इनके प्रति हमेशा चौकन्ना रहना पड़ता है। इसके बाद या साथ ही, एक तीसरी बात है- दूसरे के प्रति उत्सुक होना और उसे समझने का प्रयास करना। इसलिए वे हिंदुओं को कुरआन और मुसलमानों को गीता पढ़ने का मशविरा देते थे।

इसका अर्थ अपने स्वत्व का किसी में विलय नहीं है। उसमें जाकर फिर अपने स्व में लौटना एक अधिक आश्वस्त स्व की रचना करता है। गांधी कह सकते थे कि वे एक अच्छा हिंदू रह कर ही एक अच्छे मुसलमान या ईसाई हो सकते थे। इसी इत्मीनान के कारण वे सनातनी होने के बावजूद गोकशी पर प्रतिबंध के लिए किसी भी कानून के खिलाफ बोल सकते थे। और इसी कारण जब एक हिंदू पिता ने अपने सामने बारह साल के अपने बच्चे की मुसलमानों द्वारा हत्या की बात कही तो उन्होंने बिना वक्त लिए उसे कहा, ‘उसी उम्र का एक मुसलमान बच्चा खोजो और उसे उसी के दीन में पालो।’ गांधी के अनुसार बदला या प्रतिशोध यही हो सकता था।

पिछले लोकसभा चुनाव ने भारत के साझा सामाजिक जीवन के लिए बड़ी चुनौती पेश कर दी है। हमें संतुलन वापस कायम करना ही होगा। और यह तभी हो सकता है, जब हम समाज में फैल रही असहिष्णुता की गंध भी महसूस कर सकें। लेकिन यह तभी संभव है, जब हमारी संवेदना गांधी की तरह ही तीक्ष्ण हो।

 

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