दिनेश कुमार

हिंदी में उपन्यास ही एक ऐसी विधा है, जिसमें पिछले कुछ सालों से निरंतरता बनी हुई है। कहानी, आलोचना आदि अन्य गद्य विधाओं में निरंतरता का घोर अभाव रहा है। एक साल जिस विधा विशेष की प्रधानता होती है, दूसरे साल उसमें प्रकाशित उल्लेखनीय पुस्तकें बहुत कम नजर आती हैं। साल दर साल महत्त्वपूर्ण उपन्यासों का प्रकाशन इस बात का प्रमाण है कि आज भी इस विधा के प्रति लेखकों और पाठकों का आकर्षण तनिक भी कम नहीं हुआ, इसकी केंद्रीयता बरकरार है। यह साल एक तरह से उपन्यासों के नाम रहा। नई और पुरानी पीढ़ी के रचनाकारों के इतने उपन्यासों का साथ आना एक महत्त्वपूर्ण परिघटना है।

यह आश्चर्य है कि जहां पुरानी पीढ़ी के रचनाकारों के उपन्यासों की धूम पूरे साल रही, वहीं नई पीढ़ी के अधिकतर उपन्यास सूची-पत्रों तक सिमटे रह गए। कहानी लेखन के क्षेत्र में जहां इस पीढ़ी ने थोड़ी-बहुत चुनौती पेश की थी, वहां उपन्यास लेखन में इसे उतनी भी कामयाबी मिलती नहीं दिख रही है।

अखिलेश का उपन्यास ‘निर्वासन’ इस साल सर्वाधिक चर्चित रहा। यह मूल रूप से आधुनिक सभ्यता से मोहभंग का आख्यान है। लेखक ने अपने तमाम तरह के जीवनानुभवों और स्मृतियों को अलग-अलग कथाओं में ढाल कर कुछ इस तरह संयोजित किया है कि वे सब मिल कर आधुनिक पूंजीवादी सभ्यता का एक बड़ा ‘क्रिटीक’ रचती हैं। इसका दर्शन मार्क्स का नहीं, बल्कि गांधी का है। बाजारवाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता आदि जैसे खंडित यथार्थों से अलग-अलग टकराने के साथ ही उपन्यास मुकम्मल तौर पर सभ्यतागत प्रश्नों से टकराता है।

भगवानदास मोरवाल का उपन्यास ‘नरक मसीहा’ पिछले दो दशक में तेजी से पनपी और फैली एनजीओ संस्कृति की पड़ताल करता है। मोरवाल हर बार अपने उपन्यासों के लिए एक अलहदा विषय चुनते हैं। यह हिंदी में एनजीओ संस्कृति पर लिखा गया शायद पहला उपन्यास है। यह उपन्यास इस बात को रेखांकित करता है कि एनजीओ ने व्यवस्था परिवर्तन का स्वप्न लेकर चलने वाली तमाम धाराओं को अपने में समाहित करके उन्हें यथास्थितिवाद का पक्षधर बना दिया है।

रणेंद्र का उपन्यास ‘गायब होता देश’ उनके पूर्ववर्ती उपन्यास ‘ग्लोबल गांव के देवता’ की तरह ही आदिवासियों के विस्थापन, उनके दुख-दर्द और अस्मिता पर लगातार गहरा रहे संकट को केंद्र में रख कर लिखा गया है। इस उपन्यास के केंद्र में मुंडा आदिवासी हैं।

‘फरिश्ते निकले’ में मैत्रेयी पुष्पा ने एक बार फिर ग्रामीण स्त्री पर हो रहे अत्याचार और दमन को कथा का आधार बनाया है। उपन्यास की नायिका बेला बहु एक सीमा तक तो सब कुछ बर्दाश्त करती है, पर एक दिन सभी अत्याचारियों को घर में जला कर संघर्ष के अंतहीन रास्ते पर निकल पड़ती है। यह एक कमजोर स्त्री के ताकतवर स्त्री के रूप में तब्दील होने की कथा है। मैत्रेयी पुष्पा बार-बार ग्रामीण स्त्रियों को नायकत्व प्रदान कर यह बताना चाहती हैं कि स्त्री विमर्श की असल रणभूमि गांव है, शहर नहीं।

असगर वजाहत के उपन्यास-त्रयी का अंतिम भाग ‘धरा अंकुराई’ इसी साल आया। इसमें लेखक आदर्शवाद के प्रति झुकता दिखाई दे रहा है। उपन्यास के नायक सैयद साजिद अली का अपने तमाम कामयाबियों के बाद उम्र के उत्तरार्द्ध में अपने छोटे शहर वापस लौटना और सार्थक जीवन के लिए नई पारी की शुरुआत करना उस लेखकीय उम्मीद का प्रतिफलन है कि इस अराजक समय में अब भी बहुत कुछ अच्छा संभव है।

काशीनाथ सिंह अपने रचनाकार को कभी पुराना नहीं पड़ने देते। ‘उपसंहार’ में वे एक अलग ही कथा-भूमि लेकर आए हैं। यह उपन्यास मुख्यरूप से महाभारत के बाद कृष्ण के उपेक्षापूर्ण जीवन और महानायकत्व के अंत की दुखद कथा है। उपन्यास की मूल स्थापना यह है कि महाभारत सहित कृष्ण की तमाम गतिविधियों के मूल में उनके ईश्वर बनने की महत्त्वाकांक्षा थी। यह उपन्यास कृष्ण के माध्यम से बताता है कि छल, कपट, धूर्तता, अनैतिकता आदि के सहारे महान या ईश्वर बने व्यक्ति का जीवन उसके अंतिम समय में कैसा होता है?

नासिरा शर्मा अपने उपन्यास में उस दुनिया को सामने लाती हैं, जिधर हिंदी के अन्य रचनाकारों का ध्यान प्राय: नहीं जाता। उनका नया उपन्यास ‘कागज की नाव’ बिहार के उन परिवारों को केंद्र में रख कर लिखा गया है, जिनका कोई न कोई सदस्य खाड़ी देशों में काम करने गया है। यादों, भावनाओं, रिश्तों की आंतरिकता और मार्मिकता को लेखिका ने अपनी अद्भुत किस्सागोई में व्यक्त किया है।

कला की दुनिया पर ‘सेप्पुकु’ लिखने के बाद विनोद भारद्वाज ने पत्रकारिता की दुनिया पर एक पठनीय उपन्यास ‘सच्चा झूठ’ लिखा है। जानी-पहचानी घटनाओं और स्थितियों को लेखक ने एक दिलचस्प कथा का रूप दे दिया है। मनीषा कुलश्रेष्ठ ने ‘पंचकन्या’ में आधुनिक स्त्रियों की स्थितियों और संघर्ष गाथा को पांच मिथकीय स्त्री चरित्रों- अहिल्या, द्रौपदी, कुंती, तारा और मंदोदरी- की स्थितियों से कौशल पूर्वक संपृक्त कर दिया है। हालांकि कथानक में औपन्यासिक केंद्रीयता का अभाव है। ऐसा ही अभाव अल्पना मिश्र के उपन्यास ‘अन्हियारे तलछट में चमका’ में है।

कैलाश बनवासी का पहला उपन्यास आत्मकथात्मक है। छत्तीसगढ़ के साधारण कस्बे की एक साधारण लड़की के जीवन पर आधारित यह उपन्यास स्त्री संघर्ष के बुनियादी मुद्दों और जरूरतों के प्रति हमें सचेत करता है।

इन सबके अलावा ज्ञान चतुर्वेदी का ‘हम न मरब’, रामधारी सिंह दिवाकर का ‘दाखिल खारिज’, निर्मला भुराड़िया का ‘गुलाम मंडी’, शशिभूषण सिंहल का ‘युगद्रष्टा शिवाजी’, सुखदेव प्रसाद दूबे का ‘विकल्प’, विमल चंद्र पांडेय का ‘भले दिनों की बात थी’, तरुण भटनागर का ‘लौटती नहीं जो हंसी’, कविता का ‘ये दिन रात की जरूरत थे’, वंदना शुक्ल का ‘मगहर की सुबह’, जयश्री राय का ‘इकबाल’, कृष्णा अग्निहोत्री का ‘निलोफर’, हरेप्रकाश उपाध्याय का ‘बखेड़ापुर’ और अरुण कुमार असफल का ‘क्या मैं अंदर आ सकता हूं’ इस साल के अन्य महत्त्वपूर्ण उपन्यास रहे।

इस साल कहानी विधा में भी संतोषजनक स्थिति रही। इस साल आए संग्रहों में पर्याप्त विषयगत विविधता देखने को मिली। हालांकि कहानी लेखन के क्षेत्र में आई भीड़ अब छंटने लगी है। इसका सुपरिणाम यह हुआ है कि पिछले कुछ सालों से हावी मध्यवर्गीय भावबोध से अब हिंदी कहानी मुक्त हो रही है। एसआर हरनोट के कहानी संग्रह ‘लिटन ब्लाक गिर रहा है’ की कहानियों में हिमाचल प्रदेश की संस्कृति, प्रकृति, पशु-पक्षी और वहां का जन-जीवन सब कुछ समाहित हंै। ये कहानियां एक तरह से पहाड़ का सांस्कृतिक अध्ययन प्रस्तुत करती हैं। इनमें पहाड़ का सौंदर्य नहीं, बल्कि वहां का दुख-दर्द अभिव्यक्त हुआ है।

लगभग तेरह वर्ष बाद आया चित्रा मुद्गल का कहानी संग्रह ‘पेंटिंग अकेली है…’ लेखिका के संवेदनात्मक विस्तार और आम लोगों के प्रति उसके सच्चे सरोकार का साक्षी है। इस संग्रह में शामिल दसों कहानियां दस अलग-अलग पृष्ठभूमि की हैं। विचारधारा और विमर्श के शोर से बेपरवाह ये कहानियां वंचित तबकों के पक्ष में दृढ़ता से खड़ी हैं।

पंकज मित्र ने अपनी मूल कथा-भूमि और संवेदना को बरकरार रखा है। इस साल आया उनका तीसरा कहानी संग्रह ‘जिद्दी रेडियो’ इस बात का स्पष्ट प्रमाण है। इस संग्रह में शामिल दसों कहानियां भूमंडलीकरण की नई अर्थव्यवस्था के परिणामस्वरूप स्थानीय स्तर पर हो रहे परिवर्तनों की सूक्ष्म पड़ताल करती हैं। विवेक मिश्र मानवीय भावों को सूक्ष्मता से पकड़ने वाले रचनाकार हैं। उनके दूसरे संग्रह ‘पार उतरना धीरे से…’ की कहानियां यथार्थ की कलात्मक अभिव्यक्ति हैं। ये कहानियां सीधे पाठकों से संवेदनात्मक स्तर पर जुड़ती हैं। बाहरी सच के साथ एक भीतरी सच भी होता है। विवेक की कहानियां इस भीतरी सच को पकड़ने की जद्दोजहद में लिखी गई हैं।

प्रभु जोशी का ‘पितृऋण’ अपने शिल्पगत प्रयोगों के कारण ध्यान खींचता है। इस संग्रह की आठों कहानियां मूल रूप से संबंधों की कहानियां हैं। शिल्पगत प्रयोगों के कारण प्राय: कहानियां अपठनीय हो जाती हैं, पर प्रभु जोशी पठनीयता को सुरक्षित रखते हुए कहानियों में तमाम शैलीगत परिवर्तन करते हैं। कहानीकार के रूप में तरुण भटनागर और परिपक्व हुए हैं। उनके नए संग्रह ‘भूगोल के दरवाजे पर’ की कहानियां हमें हिंदी कहानी की प्रचलित दुनिया से दूर जंगल और सीमांत की दुनिया में ले जाती हैं, जहां संघर्ष कहीं अधिक जटिल है।

योगेंद्र आहूजा के पात्र अपने वैयक्तिक वैशिष्ट्य को साथ रखते हुए भी किसी परिवेश, समाज या वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। भूमंडलीकरण के बाद पैदा हुए मध्यवर्ग के सामाजिक और नैतिक यथार्थ की बारीक पड़ताल उनके नए संग्रह ‘पांच मिनट और अन्य कहानियां’ का मूल स्वर है।

इस साल आए अन्य कहानी संग्रहों में राजकुमार राकेश का ‘एडवांस स्टडी’, राकेश मिश्र का ‘लाल बहादुर का इंजन’, भालचंद्र जोशी का ‘हत्या की पावन इच्छा में’, हसन जमाल का ‘तीस बरस बाद’, राकेश तिवारी का ‘मुकुटधारी चूहा’, सोनी सिंह का ‘क्लियोपेट्रा’, हुस्न तबस्सुम निहां का ‘नर्गिस… फिर नहीं आएगी’, ज्योति चावला का ‘अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती’, शैलेंद्र सागर का ‘ब्रंच तथा अन्य कहानियां’, नीरजा माधव का ‘वाया पांडेयपुर चौराहा’, दामोदर दत्त दीक्षित का ‘गांव की चुनिंदा कहानियां’, मनोज पांडेय का ‘पानी’ और भारती गोरे का ‘उसकी भी सुनो’ उल्लेखनीय रहे।

इस साल आलोचना में भी कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें आर्इं। नंदकिशोर नवल ने ‘आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास’ पुस्तक को धूमिल तक समाप्त कर दिया था। इस साल आई उनकी नई पुस्तक ‘हिंदी कविता अभी बिल्कुल अभी’ धूमिलोत्तर कवियों पर केंद्रित है। इस पुस्तक में उन्होंने विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, आलोक धन्वा, श्याम कश्यप, ज्ञानेंद्रपति, उदय प्रकाश और अरुण कमल को रखा है। उन्होंने घोषणा की है कि इस पुस्तक के साथ ही उनके योजनाबद्ध आलोचनात्मक लेखन का कार्य समाप्त होता है।

पिछले कुछ सालों से गोपाल राय हिंदी कहानी के सुदीर्घ और व्यापक इतिहास लेखन की परियोजना में लगे हुए हैं। हिंदी कहानी का इतिहास शीर्षक से दो खंड पहले ही प्रकाशित हो चुके हैं। इस साल इसका तीसरा खंड आया। इसमें उन्होंने 1976 से 2000 तक की कहानियों और कहानीकारों का कालक्रमानुसार विवेचन किया है।

छायावाद पर संपूर्णता में विचार करने वाली आलोचना पुस्तकें हिंदी में कम हैं। विजय बहादुर सिंह की पुस्तक ‘छायावाद के कवि: प्रसाद, निराला और पंत’ में न सिर्फ इन कवियों का तुलनात्मक विवेचन किया गया है, बल्कि छायावाद की दार्शनिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के साथ ही उसके काव्य-शिल्प पर गंभीरता से विचार किया गया है। मधुरेश की पुस्तक ‘मार्क्सवादी जीवन-दृष्टि और रांगेय राघव’ संपूर्णता में रांगेय राघव के कृतित्व का मूल्यांकन करती है, बल्कि उन पर लगाए गए तमाम आरोपों का जवाब भी देती है।

‘कहानी संक्रमणशील कला’ खगेंद्र ठाकुर की कहानी आलोचना पर नई पुस्तक है। इस पुस्तक में उन्होंने बीसवीं सदी के आठवें, नौवें, दसवें दशक की कहानियों के साथ ही इक्कीसवीं सदी की प्रारंभिक कहानियों पर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ विचार किया है।

इधर भारतेंदु युग और उस समय के साहित्य पर नए सिरे से विचार करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। प्रमोद कुमार की पुस्तक ‘राष्ट्रवाद की अवधारणा और भारतेंदु युगीन साहित्य’ इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। भाषा, धर्म, और राष्ट्रीयता के संदर्भ में भारतेंदु युगीन साहित्य का आलोचनात्मक विश्लेषण यहां किया गया है। रामेश्वर राय की पुस्तक ‘कविता का परिसर: एक अंतर्यात्रा’ कविताओं की पाठ केंदित आलोचना का बेहतरीन उदाहरण है। इसमें उन्होंने ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘असाध्य वीणा’, ‘कुआनो नदी’, ‘मुक्ति प्रसंग’, ‘पटकथा’ आदि का विश्लेषण किया है। ‘सृजन का रसायन’ सृजन प्रक्रिया को लेकर लिखी गई शिवमूर्ति की महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। यह पुस्तक उनकी रचनाओं को समझने की कुंजी है।

इस साल आलोचना में कई महत्त्वपूर्ण संपादित पुस्तकें आर्इं। अभय कुमार दुबे द्वारा तीन खंडों में संपादित ‘हिंदी आधुनिकता: एक पुनर्विचार’ महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। इसमें विभिन्न विद्वानों के जाति, धर्म, जेंडर, विचारधारा, सांप्रदायिकता आदि के विभिन्न संदर्भों में हिंदी की आधुनिकता पर गंभीर लेख हैं। कृष्णदत पालीवाल द्वारा संपादित पुस्तक ‘नारी विमर्श की भारतीय परंपरा’ देशज स्त्री विमर्श को प्रस्तावित करने वाली उल्लेखनीय पुस्तक है। श्योराज सिंह बेचैन द्वारा संपादित पुस्तक ‘सामाजिक न्याय और दलित साहित्य’ में दलित साहित्य के विविध पक्षों और विधाओं का विश्लेषण है।

राजेंद्र मिश्र द्वारा संपादित ‘तिमिर में झरता समय’ एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है। इसमें मुक्तिबोध पर लिखे गए लगभग सभी महत्त्वपूर्ण लेखों का संग्रह है। उनके द्वारा संपादित दूसरी पुस्तक ‘छत्तीसगढ़ में मुक्तिबोध’ भी अत्यंत उल्लेखनीय रही। मुकेश गर्ग द्वारा दो खंडों में संपादित पुस्तक ‘साहित्य और संगीत’, में इन दोनों के आपसी रिश्तों को समझने के जितने महत्त्वपूर्ण प्रयास हुए हैं, उन सबको यहां एकत्रित किया गया है।

इस साल आई आलोचना की अन्य महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं- कृष्णदत्त पालीवाल की ‘हिंदी आलोचना: समकालीन परिदृश्य’, प्रभाकर श्रोत्रिय की ‘साहित्य के नए प्रश्न’, रमेश दवे की ‘आलोचना की उत्तर-परंपरा’, नंद चतुर्वेदी की ‘जो बचा रहा’, उद्भ्र्रांत की ‘आलोचक के भेस में’, कृष्णदत्त पालीवाल की ‘माखनलाल चतुर्वेदी रचना संचयन’, प्रकाश मनु की ‘भारतीय साहित्य के निर्माता: देवेन्द्र सत्यार्थी’ और ज्योतिष जोशी की ‘केदार रचना संचयन’।

विधा के रूप में नाटक की स्थिति में इस साल भी कोई बदलाव देखने को नहीं मिला। हिंदी में रंगमंच के अभाव के कारण रचनाकारों में नाटक लिखने का आकर्षण लगभग खत्म होता जा रहा है। इस साल प्रकाशित रत्न कुमार सांभरिया के दो नाटक ‘वीमा’ और ‘उजास’ उल्लेखनीय रहे। ‘वीमा’ जहां शारीरिक रूप से असक्त लोगों के संघर्ष पर केंद्रित है वहीं ‘उजास’ वाल्मीकि समाज की अस्मिता को लेकर लिखा गया है। रवींद्रनाथ ठाकुर की कहानी पर आधारित हृषिकेश सुलभ का नाटक ‘दालिया’ भी महत्त्वपूर्ण रहा। ब्राडवे म्युजिकल क्लासिक वेस्ट साइड स्टोरी पर आधारित नाटक का पीयूष मिश्र कृत हिंदी संस्करण भी प्रशंसनीय रहा। जयवर्धन के नाटक ‘किस्सा भोजपुर का’ और शंकर शेष के नाटक ‘पोस्टर’ भी इस साल के उल्लेखनीय नाटक रहे।

कथेतर गद्य में इस साल कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें आर्इं। तुलसीराम की आत्मकथा के दूसरे खंड ‘मणिकर्णिका’ की खूब चर्चा रही। इसमें ‘मुर्दहिया’ के आगे का जीवन है। इस आत्मकथा में लेखक के शैक्षणिक और वैचारिक यात्रा का अंकन है। उन्होंने कहीं भी राजनीतिक रूप से सही होने की परवाह नहीं की है। लेखकीय ईमानदारी इस आत्मकथा को न सिर्फ विशिष्ट बनाती है, बल्कि भारतीय समाज को समझने के लिए एक जरूरी पुस्तक भी है।

संस्मरण विधा के अंतर्गत इस साल कांतिकुमार जैन की पुस्तक ‘महागुरु मुक्तिबोध’ खासी चर्चित रही। यह संस्मरण मुक्तिबोध के नागपुर निवास (1948-58) के समय के मित्रों को केंद्र में रख कर लिखा गया है। ये दस साल मुक्तिबोध के घनघोर अभावों और संघर्षों के थे। मुक्तिबोध और उनकी मित्र-मंडली पर लिखे ये संस्मरण मुक्तिबोध के व्यक्तित्व को समझने में अत्यंत मूल्यवान हैं।

राजेंद्र राव के कथेतर गद्य का संग्रह ‘उस रहगुजर की तलाश है’ भी उल्लेखनीय रहा। कोलकाता के वेश्या जीवन पर लिखा रिपोर्ताज ‘हाटे बजारे’ इस संग्रह की उपलब्धि है। ‘स्मृतियों के मील पत्थर’ उद्भ्रांत के संस्मरणों की एक बेहतरीन पुस्तक है, जिसमें उन्होंने अमृतलाल नागर, हरिवंश राय बच्चन, अज्ञेय, यशपाल आदि की स्मृतियों को साझा किया है। बलराम की पुस्तक ‘मेरा कथा समय’ में नए-पुराने साठ कहानीकारों पर टिप्पणियां हैं। यह पुस्तक आलोचना और संस्मरण का सुंदर मिश्रण है। इस साल रमेशचंद्र शाह की डायरी की चौथी पुस्तक ‘जंगल जुही’ प्रकाशित हुई। इसका समय 2009 के बाद का है। उर्मिला शिरीष द्वारा लिखी गोविंद मिश्र की जीवनी ‘बयाबां में बहार’ भी इस साल आई। दस अध्यायों में विभाजित यह जीवनी उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को संपूर्णता में समेटती है।

इस समय हिंदी में समाजशास्त्र, मीडिया, राजनीति और समसामयिक मुद्दों पर लेखन खूब हो रहा है। इस साल हिंदी में ऐसी कई किताबें आर्इं। बद्रीनारायण की पुस्तक ‘हिंदुत्व मोहनी मंत्र’ हमारे समय के राजनीतिक परिदृश्य का गहन विश्लेषण करती है। पवन कुमार वर्मा की अंगरेजी से हिंदी में अनूदित कृति ‘चाणक्य का नया घोषणा पत्र’ में लेखक ने लोकतंत्र, सुरक्षा, भ्रष्टाचार, शासन-प्रबंध आदि के संदर्भ में अपने परिवर्तनकारी विचार व्यक्त किए हैं। ‘सीसैट: विवाद और विकल्प’ शीर्षक से आई मृणालिनी शर्मा की पुस्तक में इस पूरे मसले का बिंदुवार व्यवस्थित अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। ‘शिक्षा के सरोकार’ नाम से प्रेमपाल शर्मा की पुस्तक आई।

इस साल कई साहित्यकारों के संपादकीय लेखों के संग्रह आए। गिरिराज किशोर के ‘अकार’ में प्रकाशित संपादकीय लेखों का संग्रह ‘फिलहाल’ शीर्षक से आया। इसी तरह प्रभाकर श्रोत्रिय के संपादकीय लेखों और उसी प्रवृत्ति के कुछ अन्य लेखों का संग्रह ‘इस जनतंत्र में…’ आया। असगर वजाहत के लेखों का संग्रह ‘ताकि देश में नमक रहे’ आया। प्रेम भारद्वाज का ‘हाशिये पर हर्फ’ नाम से उनके संपादकीय लेखों का संग्रह है। इन पुस्तकों से साहित्य, समाज और राजनीति को समझने की एक नई अंतर्दृष्टि मिलती है।

 

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