राजेंद्र उपाध्याय

यह वर्ष कविता के लिए कई दृष्टियों से शुभ रहा। वर्ष के शुरू में ही साहित्य अकादेमी की ओर से दो विश्व कविता समारोह हुए। वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला और मुक्तिबोध की पचासवीं पुण्यतिथि और उनकी कालजयी कविता ‘अंधेरे में’ की भी पचासवीं वर्षगांठ मनाई गई। हमारे जाने किसी कवि की पचासवीं पुण्यतिथि और उसकी कविता की भी पचासवीं वर्षगांठ पहली बार हिंदी के उज्ज्वल इतिहास में मनाई गई। कवि-केंद्रित आयोजन होते रहे हैं, लेकिन कालजयी कविता तो ‘असाध्य वीणा’, ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘झांसी की रानी’ भी थीं!

खैर, इस बहाने हिंदी में मुक्तिबोध नए ढंग से याद किए गए। उनकी अप्रकाशित, अधूरी कविताओं का संग्रह आया। उनका काव्यांश ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे’ जैसे नारे की शक्ल में गूंजने लगा। वरिष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले ने मुक्तिबोध पर लिखी अपनी पुरानी कविताओं का फिर प्रकाशन किया, मोहन सगोरिया ने लंबी कविता मुक्तिबोध के जीवन पर लिख दी। मुक्तिबोध के समकालीन कवि मलय (1920) इस पकी उम्र में भी ‘असंभव की आंच’ सुलगाए हुए हैं।
हिंदी में इस वक्त कुछ ‘महत्त्वपूर्ण’ कवि हैं, जिनके पास इफरात में ‘मामूली’ कविताएं हैं। ‘मामूली’ कवि भी बहुत हैं, उनके झोले भरे हैं और किसी-किसी में से ‘महत्त्वपूर्ण’ कविता झांक रही है। ऐसे भी कवि हैं, जो थोड़े महत्त्वपूर्ण बनने की कोशिश में आखिरकार फिसल कर फिर मामूली की खोह में गिर जाते हैं।

हिंदी कविता हमेशा हाशिये पर रही है, मगर उसने हाशिये पर कर दिए गए लोगों को आवाज दी है। समकालीन कविता का उत्स भले ‘अंधेरे में’ को मानने वाले लोग बहुत हैं, मगर आज अधिकतर युवा कवि जिस मुहावरे में कविता लिख रहे हैं वह केदारनाथ सिंह के संग्रह ‘जमीन पक रही है’ से प्रभावित माना जा सकता है। ‘सृष्टि पर पहरा’ के साथ ‘जमीन पक रही है’ का पुनर्प्रकाशन भी इस साल की एक प्रमुख घटना है। दोनों संग्रहों की पहली कविता ‘सूर्य’ है। केदारजी ने सिद्ध किया है कि उनकी कविता का सूर्य और ताप अब भी चमक रहा है। केदारजी की कविता की ‘सिग्नेचर ट्यून’ वही है, जो ‘जमीन पक रही है’ की थी।

इस वर्ष की एक खास उपलब्धि उपेक्षित, लुप्त होते जा रहे समुदायों, कारीगरों और हुनरमंदों को केंद्रीयता प्रदान करना है। केदारनाथ सिंह बैल की बीमारी ठीक करने वाले ‘हरिभाई’ को खोज लाते हैं, जो ‘आदमी और पशु के बीच के अंतिम लचकहवा पुल थे’। वैसे ही युवा कवि संतोष कुमार चतुर्वेदी सांप पकड़ने वाले ‘मोछू नेटुआ’ को पकड़ लाते हैं। ‘मोछू नेटुआ’ जैसे चरित्र हमारे कथित आधुनिक भारत और भारतीय कविता से लगभग विलुप्त हो गए हैं: ‘बड़ी तेजी से खत्म होते जा रहे हैं सांप/ अब तो नहीं रहे वे सांप/ न ही रहे वे सांप धरवे।’ ‘मोछू नेटुआ’ कहता है कि बड़े दर्द के साथ ‘पुराने जमाने का अछूत मैं/ इस जमाने का अपराधी हो गया हूं’। आधुनिकता के अंतर्गत एक पूरी की पूरी जाति अपराधी करार दी गई है।

‘अपनों में नहीं रह पाने का गीत’ में प्रभात बताते हैं कि किसान मजदूरी कर रहे हैं: ‘खेत मजूर बन कर पूड़े दे रहे हैं/ पटेल के खेत में/ मजूरी में मिले नवान्न के पूड़े घर ला रहे हैं/ धरती खा गई उन्हें कि निगल गया आसमान/ कहां अलोप हो गए वे किसान।’ प्रभात ‘गू-मूत उठाने वाली’ स्त्रियों को केंद्र में लाते हैं: ‘वे कुहनी तक हाथ देकर बाहर करती हैं काला मलबा/ ताकि नगर का एक जगह रुक गया गू-मूत/ आगे खिसक सके/ उनके सीने और फेफड़ों को बेकार करके यह काला मलबा/ एक रात मांग लेता है असमय उनसे उसकी जिंदगियां/ मर जाती हैं/ पैंतीस से चालीस की उम्र में/ एक ही जाति की असंख्य स्त्रियां।’ ऐसे ही वर्षों पहले त्रिलोचन ने ‘नगईमहरा’ और धूमिल ने ‘मोचीराम’ जैसी कविताएं लिखी थीं।

श्रीप्रकाश शुक्ल ‘ओरहन’ में भूले-बिसरे क्रांतिकारी गंगू मेहतर की कुर्बानी याद करते हैं। ऐसे अनाम चरित्रों को केंद्रीयता प्रदान करने वाली कविताएं हिंदी में वर्षों बाद आई हैं। ‘मीरखां का सजरा’ में श्रीरंग भी खटबिनवा को याद करते हैं: ‘अब कोई नहीं रहा/ उसके हुनर का कद्रदान/ बिल्कुल बेकार हो गया है वह/ नए समाज के लिए अर्थहीन अप्रासंगिक/ वह बीन सकता है ऐसी खाट कि/ एक राई नीचे न गिरे/ इतनी मुलायम कि/ बिना दरी या चादर या लोई के/ लेटते ही आ जाए गहरी नींद/ कि मिट जाए सारी थकान/ कि दिखने लगें मीठे सपने।’ श्रीरंग नए समाज के लिए अर्थहीन अप्रासंगिक लोगों, ठंडी नदी में सिक्के बीनने वाले, काली-काली पीठ वाले, केंचुओं की तरह डूबते-उतराते लोगों को भी याद करते हैं।

इधर के छोटे शहरों से आए कवियों में श्रीरंग और प्रभात ने हिंदी कविता को देशज शब्दों और मुहावरों से समृद्ध किया है। यह गुण हो सकता है, इन लोगों ने केदारनाथ सिंह की कविता से सीखा हो, लेकिन तत्समबहुल शब्दावली में या बिल्कुल बोलचाल की एकरस भाषा में लिखी जा रही कविता के खिलाफ यह एक प्रतिरोध तो है ही। वसूलें, आरेदावन, घुमरी, छकड़ी, थैली, लोई, बाखड़, चाम, पाटोर, खाती, अरअराट, लूगड़ी, सिरजना, कामड़ियों, पूंछड़े़, घूमसे, लफरो, बड़ीता, कोकरे, ताबड़े, डांगरा, आकु कटैडी, रंध, ढेकड़ी, धाज, बीड़े, डांग, गटार, टेरते, चुड़िहार, रप का बॉय, अंवारी बगत, अड़सूटा, जोहड़, खड़ियादी, छान, रैवारी, खेजड़े, रोहिड़ा, धोरों, चरी, खील-खील, तिये, ठीया, बाखड़, बिछोयी, गोबर की हेल, जेवड़े के सड़ाकों, कांकरी, गैबी आदि शब्दों के मायने बताने के लिए एक नया ही शब्दकोश गढ़ना पड़ेगा।

प्रभात की धरोहर कविता किसान जीवन का महाकाव्य है। ‘धरोहर’ में प्रेमचंद के बाद आज का होरी अपनी समूची इंसानियत और दुर्दशा के साथ मौजूद है। वेदप्रकाश भी किसान की आत्मकथा लिखते हैं। रतीनाथ योगेश्वर के पास इस चमकते भारत में अज्ञातवास में पहचान लिए जाने से बचते हुए छंटनी-मजूर है, ‘जो भूल नहीं पाता पत्नी की उस पाजेब को, जो कल बेच आया था/ सुनार की दुकान में/ कुल जमा साढ़े तीन सौ में/ और लाया था पांच किलो आटा/ पांच लीटर मिट््टी का तेल/ स्टोव की पिन/ एक किलो अरहर की दाल/ आधा किलो कडुआ तेल/ माचिस की दो डिब्बी/ एक पाव नमक/ और बीड़ी का एक बंडल/ बीड़ी का कागज/ फुटपाथ पर पीछे मुड़ कर देखने पर नोट की तरह दिखता।’

स्वप्निल श्रीवास्तव को भी हलवाहे नहीं दिखते: ‘हलवाहे दिखते नहीं/ मैंने सोचा- वे बैलों के आसपास होंगे/ लेकिन बैल कहां हैं।’ उनके यहां महानगर की भीड़ भरे चौराहे के पास अंधा गायक हाथ में खाली कटोरा लिए जीवन की क्षणभंगुरता के बारे में बता रहा है। लोकसंपदा, लोकगायकों, लोककथाओं के विलुप्त होने पर हमारा ध्यानाकर्षण इधर के कवियों ने खूब किया है।

ये कवि अनंतकाल तक चलने वाली शाश्वत प्रेम, प्रकृति, जीवन-मृत्यु की कविता लिखने के फेर में नहीं पड़ते, समकालीन जीवन में गहरे धंस कर भी, समकालीन मुहावरे से परहेज करते हैं। कोमलकांत पदावली में प्रेम कविता न लिख कर जीवन के सर्वथा निष्ठुर, रोधपूर्ण और रस-प्रसंगों को इतनी मांस-मज्जा वाली जीवंत कविता में बदल देते हैं कि वह मार्मिक काव्योक्ति में बदल जाती है। शायद पिछले कई दशकों में पहली बार हिंदी कविता महानगरीय कविता को नकली बता कर वापस अपनी मातृभूमि, गांवों-कस्बों की ओर लौटी है। एक नए, वीरान, जीवन शून्य, त्रासद गांवों की ओर वह हमें पकड़ कर ले गई है, जहां भूमंडलीकरण और पूंजीवाद पद, जूते और पैसे के बेलगाम विकास के दौर में आत्महत्या करते किसान हैं, खेत-मजूर हैं। हमारे महानगरीय कवियों को इन कविताओं से सीखना चाहिए कि किसान के जीवन का करुण संगीत भी कविता में उतनी ही शिद्दत के साथ बजाया जा सकता है। इनमें भी गहरी राजनीतिक टिप्पणी है। मानवीय दृष्टि है।

समकालीन भारत में जितनी तेजी से आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन हो रहे हैं, उसे ठीक-ठीक पकड़ पाना और कविता में निरूपित कर देना सबके बस का नहीं है। राजनीतिक आशयों से भरी हुई कविता और राजनीतिक वक्तव्य प्रधान कविता में अंतर होता है, यह कवि लोग नहीं समझ पाते।

मई में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देश ने जो उतार-चढ़ाव देखे हैं, उनकी आलोचना करने वाली कई कविताएं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लिखी गई हैं। विष्णु नागर तो अपने संग्रह ‘जीवन भी कविता हो सकता है’ में सीधे-सीधे नरेंद्र मोदी का नाम लेकर उनके अकेलेपन पर मर्मभरी टिप्पणी करते हैं। उनकी पत्नी और मां की करुण कहानी को वे केंद्र में लाते हैं: ‘मां कभी कभी फोटो खिंचाने के ही काम आती है/ उसकी एक मां जरूर है/ जो उसे आशीर्वाद देते हुए फोटो खिंचवाने के काम जब तब आती रहती है/ यों तो पूरा गुजरात अब देश है उसका/ मगर उसके घर उसका इंतजार करने वाला कोई नहीं/ उसे प्रधानमंत्री बनाने वाले तो बहुत हैं/ उसे इंसान बना सके ऐसा कोई नहीं।’

मदन कश्यप ‘दूर तक चुप्पी’ में पूरा लोकतंत्र, पूरी शासन प्रणाली, पूंजीवाद का काला चेहरा और आम आदमी का बेजा इस्तेमाल बयान करते हैं: ‘तुम सरकार बना बदल सकते हो/ मगर उसे चलाने का अधिकार वे तुम्हें कभी नहीं देने वाले हैं/ तुम्हें पता नहीं होता/ तुम्हारे द्वारा चुने जाने के पहले कोई उसे चुन चुका होता है।’ वे छोटी-छोटी कविताओं में लोकतंत्र का पूरा इतिहास, वर्तमान और भविष्य लिख देते हैं।

वे बाजारवाद के खिलाफ अपने हिस्से का प्रतिरोध करते हैं: ‘इस बाजार में बेचने की कला बिकती है/ एक हाथी बेच रहा है अपनी लीद/ एक बाघ बची हुई हड््िडयों और मांस के सड़े-गले टुकड़ों का ढेर लगाए बैठा है/ एक गदहा अपने मूत से गीली हुई मिट्टी के लिए खरीदारों को आवाज लगा रहा है।’ बाजारवाद की इस चमकीली रंगीन आभासी दुनिया के खिलाफ इतनी वीभत्स और घृणास्पद टिप्पणी किसी कवि ने अब तक नहीं की थी।

‘यह बेघर का बना देश’ (विजेंद्र) चौमुखी विकास की मार झेल रहा है। हम न आधुनिक हो पाए हैं, न ही देशज रह पाए। गांव में किसान घिसे हुए पैंट-शर्ट पहन रहे हैं, पैरों में प्लास्टिक के जूते पहन कर मोबाइल पर झूम रहे हैं। किसान ने कटोरी और चम्मच देखा नहीं है। दो जोड़ी कपड़े बरात में जाने को नहीं हैं और महंगे मोबाइल पर डार्लिंग-डार्लिंग कर रहे हैं।

हमारी कविता में क्या नहीं है- ध्वस्त हो चुके भुज के मकान, अस्पताल, शालाएं, गलियां, चार सौ बच्चों की निष्प्राण देहों पर बीस फुट मलबा, गणतंत्र दिवस, प्रभातफेरी, गुजरात 2001, ज्वालामुखी विस्फोट, सड़कों पर लाल नदी-सा बहता लावा, अल्ला हो अकबर, हर हर महादेव, मानव रक्त के उबलने की तीखी गंध, गुजरात 2002। राजेंद्र नागदेव की इस कविता में आजाद हिंदुस्तान की समूची तस्वीर आ गई है और कुछ कमी रह गई हो तो वे लिख देते हैं: ‘मेरी रातों की दिल्ली रोज लुटती है/ लुटेरे पर किसी अदालत में मुकदमा नहीं चलता/ मुकदमा चलता है, पर गवाह नहीं मिलते/ सीबीआइ जांच होती है और बदायूं की बहनों की हत्या की क्लोजर रिपोर्ट आ जाती है।’

जगन्नाथ प्रसाद दास के कविता संग्रह का नाम ही है- ‘गुजरात के बाद’। वे पूछते हैं कि क्या गुजरात के बाद कविता लिखना असंभव है। जितनी शिद्दत से हमारे कवि आजाद हिंदुस्तान के दुख, भयावह चिंताओं और खोखले वादों, धार्मिक उन्मादों, राजनीतिक व्यूह रचनाओं को अपनी कविताओं में जगह दे रहे हैं, उतनी शिद्दत से शायद कहानी और उपन्यास में नहीं हो रहा है। एक साथ इतने अच्छे कवि हमारी कुव्यवस्था के विरुद्ध दुनाली बंदूक लिए खड़े हैं। हिंदी में कवियों का एक हरावल दस्ता सक्रिय है। ऊपरी तौर पर गैर-राजनीतिक लगते हुए भी इसमें आज के मनुष्य के दैहिक, दैनिक, भौतिक ताप हैं। जीवन की तल्ख सच्चाइयां हैं।

दिनेश कुशवाह भी सदी की शुरुआत पर स्त्री के लिए शोकगीत लिखते हैं। वह कहीं मनचाहे आकार में काटी-छांटी जा रही थी। प्रभात की स्त्रियां भी सूखी खंख हैं। उनके झुर्री पड़े चेहरे बुझी राख हैं। दिन-रात खटते हुए छूंछी हुई वे स्त्रियां हिंदी कविता के उज्ज्वल बसंत में कहां से आ गई हैं!

इस बरस भी देह की भाषा में लिखने वाले कवि सक्रिय रहे। प्रेम, प्रकृति और मृत्यु जैसे विषय कविता में कभी पुराने नहीं पड़ते, प्रकाशक भी उनको लेकर नाक-भौं नहीं सिकोड़ते। आजकल युवा पीढ़ी मोबाइल और फेसबुक पर कविता भेजने में चपल हो गई है, इसलिए सब कवि अपनी कविताओं में से कुछ प्रेम कविताओं के मोती चुन कर माला पिरोने में लगे हैं। ‘मेरी चुनिंदा कविताएं और ‘मेरी प्रेम कविताएं’ से बाजार अंटा पड़ा है। इसमें अशोक वाजपेयी शीर्ष पर हैं। वे सार्वकालिक प्रेम कवि हैं। वे ‘खुल गया है द्वार एक’ और ‘अपना बसंत’ पहचानते हैं। बद्रीनारायण की ‘चुनिंदा प्रेम कविताएं’ आ गर्इं। दूधनाथ सिंह का ‘तुम्हारे लिए’ प्रेम कविता संग्रह है।

वरिष्ठ कवि नंदकिशोर आचार्य के दो संग्रह इस बरस आए- ‘मृत्यु शर्मिंदा है’ और ‘मुरझाने को खिलाते हुए’। आचार्य की कविताओं में प्रेम, प्रकृति और सृष्टि के दार्शनिक आयाम हैं। छोटी-छोटी कविताओं में बड़ी बातें कहना आचार्य की विशेषता है: ‘कितना ही व्यापे/ धीरे-धीरे उसमें ही/ जाती है खो खुशबू/ अपने से उलझती/ खोज में उसकी/ सर पटकती भटकती/ रहती हवा।’ या फिर ‘मृत्यु को जीना लेकिन/ जीवन का मृत्यु होना है/ या मृत्यु का ही/ हो जाना है जीवन?’

ऋतुराज का ‘फेरे’, कुमार वशिष्ठ का ‘देह की भाषा’, दिवंगत कुबेरदत्त का ‘शुचिते’ और वेदप्रकाश का ‘एक सुंदर लड़की चाहती है’ इस वर्ष के महत्त्वपूर्ण संग्रह हैं। ओम भारती ने भी प्रेम को इतनी बार कहा है, फिर भी थके नहीं।

विजेंद्र के ‘बेघर का बना देश’ में प्रकृति अपने टटके बिंबों के साथ सक्रिय है। विजय अग्रवाल कविता में ‘फैली हरियाली की तरह’ कह रहे हैं, तो हेमंत कुकरेती ‘धूप के बीज’ ढूंढ़ लाए हैं। जयकृष्ण राय तुषार ‘सदी को सुन रहा हूं मैं’, केशव तिवारी ‘काहे का मैं’ और लीलाधर मंडलोई अपनी प्रतिनिधि कविताओं में प्रकृति काव्य की याद दिलाते हैं। मलय, केदारनाथ सिंह, अशोक वाजपेयी, कुंवर नारायण और नरेश सक्सेना की चुनी हुई और चुनिंदा कविताएं भी इस बरस आर्इं।

स्त्री कविता के लिए तो प्रेम जैसे अनिवार्य तत्त्व है। कवयित्रियों में इस बरस पुष्पिता अवस्थी का ‘शब्दों में रहती है वह’, अनुराधा का ‘अधूरा कोई नहीं’ और इला कुमार का ‘आज पूरे शहर पर’ संग्रह आए।

हाल ही पेशावर में हुए स्कूली बच्चों के हत्याकांड के बाद सोमदत्त की कविता ‘क्रागुएवात्स में पूरे स्कूल के साथ’ कविता प्रासंगिक बन पड़ी है। उस कविता को आज पेशावर कांड से जोड़ कर देखा जा सकता है। कुछ अच्छे अनुवाद भी इस बरस आए। ‘साठोत्तर मराठी कविताएं’ (चद्रकांत पाटील), ‘गुजरात के बाद’ (जगन्नाथ प्रसाद दास) और ‘गाब्रिएल मिस्त्राल की कविताएं’ इनमें प्रमुख हैं।

गीत-गजल-छंदोबद्ध कविता भी इस बरस छाई रही। आचार्य अरुण दिवाकरनाथ वाजपेयी की ‘अरुण सतसई’, रामकुमार कृषक का ‘आदमी के नाम पर मजहब नहीं’, मधुदेश का ‘कदम-कदम पर चौराहे’ इनमें प्रमुख हैं।

 

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta