पता नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शेक्सपियर को पढ़ा है या नहीं, पर उन्होंने शेक्सपियर के इस कथन को जरूर आत्मसात किया है कि ‘दोस्ती में खुशामद होती है’ (हेनरी छठवां)। प्रधानमंत्री को लगता है कि अपने मित्र राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की खुशामद करते हुए आप्रवासन और निर्वासन, वीजा, व्यापार संतुलन, शुल्क, परमाणु ऊर्जा, दक्षिण चीन सागर, ब्रिक्स, क्वाड और मुक्त व्यापार समझौता यानी एफटीए जैसे मुद्दों पर बातचीत आगे बढ़ाई जा सकती है।

राष्ट्रपति ट्रंप के पास चार वर्ष हैं, इससे अधिक नहीं। प्रधानमंत्री मोदी के पास भी चार वर्ष हैं, और माना जाता है कि वे इससे ज्यादा समय चाहते हैं। यह स्पष्ट है कि सभी मुद्दे चार आम वर्षों में हल नहीं किए जा सकते। अगली अमेरिकी सरकार- वह रिपब्लिकन हो या डेमोक्रेट- शायद ट्रंप के रास्ते पर न चलना चाहे।

इसमें भारत के लिए पहला सबक निहित है कि दो नेताओं को अपने संबंध व्यक्तिगत ‘दोस्ती’ से परे रखने चाहिए। इसके अलावा, जहां तक ट्रंप का सवाल है, उनके बारे में कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकता कि कोई दोस्त कब दुश्मन बन जाएगा और दुश्मन कब दोस्त बन जाएगा।

भारत को नुकसान हो सकता है

मोदी ने पाडकास्टर लेक्स फ्रिडमैन को दिए साक्षात्कार में ट्रंप की ‘विनम्रता’ और ‘लचीलेपन’ की प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि अपने दूसरे कार्यकाल में ट्रंप ‘पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा तैयार’ हैं और ‘उनके दिमाग में एक स्पष्ट रोडमैप है, जिसमें अच्छी तरह से परिभाषित कदम हैं, हर कदम को उन्हें उनके लक्ष्यों की ओर ले जाने के लिए डिजाइन किया गया है।’ मोदी ने कहा, ‘मुझे सचमुच विश्वास है कि उन्होंने एक मजबूत, सक्षम टीम बनाई है और मुझे लगता है कि वे लोग राष्ट्रपति ट्रंप के दृष्टिकोण को लागू करने में पूरी तरह सक्षम हैं।’

ट्रंप की इस प्रशंसा से सभी अमेरिकी सहमत नहीं होंगे। सभी सीनेटरों और प्रतिनिधियों ने नहीं सोचा होगा कि ट्रंप के चुने हुए मंत्री सक्षम या मजबूत हैं। सभी अमेरिकी इस बात से सहमत नहीं होंगे कि ट्रंप का दृष्टिकोण अमेरिका या दुनिया के लिए अच्छा है।

अगर ट्रंप ने अपने दृष्टिकोण को लागू किया, तो यह भारत के लिए अच्छी खबर नहीं है। मसलन, अगर ट्रंप अपने लक्ष्य हासिल करने में कामयाब हो गए, तो:

  • इसका अर्थ यह होगा कि अमेरिका में रह रहे अधिकतर बिना दस्तावेज वाले भारतीयों (अनुमानत: सात लाख) को भारत वापस भेज दिया जाएगा; 
  • इसका अर्थ यह होगा कि अनेक भारतीय ग्रीन कार्ड धारकों को अमेरिकी नागरिकता से वंचित कर दिया जाएगा;
  • इसका अर्थ यह होगा कि अधिकांश भारतीय-अमेरिकी नागरिक अपने परिवारों को संयुक्त राज्य अमेरिका नहीं ले जा पाएंगे;
  • इसका अर्थ यह होगा कि उच्च योग्यता प्राप्त भारतीयों को जारी किए जाने वाले एच-1बी वीजा की संख्या में भारी कमी आएगी;  
  • इसका अर्थ यह होगा कि भारत को हर्ले-डेविडसन बाइक, बार्बन विस्की, जींस और अन्य अमेरिकी वस्तुओं पर शुल्क कम करने पर मजबूर होना पड़ेगा;  
  • इसका अर्थ यह होगा कि नए, कठोर अमेरिकी शुल्क एल्यूमीनियम और इस्पात उत्पादों और शायद अन्य उत्पादों के भारतीय निर्यात के विरुद्ध एक संरक्षणवादी दीवार बन जाएंगे;
  • इसका अर्थ यह होगा कि भारत में बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन करने वाले व्यवसाय स्थापित करने के लिए अमेरिकी निजी निवेश को हतोत्साहित किया जाएगा; और
  • इसका मतलब यह होगा कि संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ समझौते के तहत एफटीए, अमेरिका की तरफ झुका होगा।

वर्तमान संकेत यह है कि ट्रंप अपनी स्थितियों या लक्ष्यों को नहीं बदलेंगे। इस बात की कतई संभावना नहीं है कि दोस्ती या खुशामद उन्हें अपने ‘मागा’ (अमेरिका को फिर महान बनाने) समर्थकों या ‘अमेरिका प्रथम’ नीति से परे देखने के लिए राजी करेगी।

भू-राजनीतिक मुद्दे

बड़े भू-राजनीतिक मुद्दों पर बात करें, तो अगर संयुक्त राज्य अमेरिका एक त्वरित और रक्तहीन अभियान चला कर पनामा नहर पर नियंत्रण कर लेता है, तो मोदी की प्रतिक्रिया क्या होगी? जब तक नहर जहाजों के लिए खुली रहेगी, भारत- या कोई भी अन्य देश- विरोध करने की स्थिति में नहीं है, मगर फिर भी इसे अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करते हुए क्षेत्र पर कब्जा करना ही कहा जाएगा। इसके बाद, अगर संयुक्त राज्य अमेरिका, ट्रंप के वादे के मुताबिक, ‘किसी न किसी तरह’ ग्रीनलैंड पर कब्जा कर लेता है, तो मोदी की प्रतिक्रिया क्या होगी? क्या भारत कह सकता है कि ग्रीनलैंड हमसे बहुत दूर है और यह हमारी चिंता का विषय नहीं है?

अगर कुछ ‘जीते हुए क्षेत्रों’ को नजरअंदाज कर दिया जाए तो भी, उस वक्त क्या होगा जब अगर रूस, यूक्रेन के और क्षेत्रों पर कब्जा कर लेगा और चीन ताइवान पर कब्जा कर लेगा? और, चीन को अक्साई चिन या अरुणाचल प्रदेश पर कब्जा करने से कौन रोकेगा? एक खूनी संघर्ष होगा, लेकिन कौन-सा देश भारत का समर्थन करेगा? आधुनिक कूटनीति व्यक्तिगत मित्रता से कहीं बढ़कर है। मोदी या भारत डेमोक्रेटिक पार्टी के साथ बने पुल को जला नहीं सकते हैं और न सारा धन ट्रंप साहब पर लगा सकते हैं। किसी भी स्थिति में, ट्रंप 19 जनवरी, 2029 के बाद पद पर नहीं रहेंगे। अगला राष्ट्रपति डेमोक्रेट हो सकता है। इस बीच भारत, ट्रंप और उनके ‘लक्ष्यों’ के साथ जुड़कर, कनाडा और यूरोपीय देशों, खासकर जर्मनी, फ्रांस, ब्रिटेन और डेनमार्क को पूरी तरह अपने से अलग-थलग कर देगा।

शुल्क संघर्ष

पिछले दस वर्षों में, मोदी संरक्षणवाद के समर्थक रहे हैं; उन्होंने इसे आत्मनिर्भरता कहा है। अपने मित्र डा अरविंद पानगड़िया सहित बुद्धिमान सलाहकारों के विरुद्ध, सरकार ने पांच सौ से अधिक वस्तुओं के आयात पर शुल्क और गैर-शुल्क मानक लागू किए। जब मोदी ने भारतीय वस्तुओं पर प्रस्तावित उच्च शुल्क का विरोध किया, तो ट्रंप ने उनकी आपत्तियों को दरकिनार कर दिया। वे 2 अप्रैल, 2025 को पूरी तरह अपने पैमाने पर शुल्क संघर्ष शुरू करने की तैयारी कर रहे हैं। दोस्ती और खुशामद के बावजूद, अगर भारत को छूट नहीं दी जाएगी, तो क्या भारत पारस्परिक शुल्क के साथ जवाबी कार्रवाई करेगा?

सिद्धांतों पर आधारित पारस्परिक जुड़ाव और समझौते, कूटनीति के केंद्र में होते हैं, खुशामद नहीं। संभव है कि फ्रेडरिक मर्ज (जर्मनी के संभावित नेता) अपने सख्त रवैये के साथ, मार्क कार्नी (कनाडा के प्रधानमंत्री) अपनी संतुलित प्रतिक्रिया के साथ, और उर्सुला वान डेर लेयेन (यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष) सत्ताईस देशों की सफल रैली के साथ, ट्रंप के अंतरराष्ट्रीय कानूनों, सहमतियों और समझौतों को रौंदने के बनैले प्रयास को रोकने में सफल होंगे।
भारत को विवेक की आवाज के साथ खड़ा होना चाहिए।