अध्यापक बच्चों के शिल्पकार होते हैं। इसके लिए भावी अध्यापक निर्धारित संस्थाओं में प्रशिक्षित किए जाते हैं। वहां वे शिक्षक-प्रशिक्षकों के वक्तव्य सुनते, बहुत सारी पुस्तकें पढ़ते और प्रयोग करते हैं। फिर, देश के भविष्य की पीढ़ी को संवारने के काम में लग जाते हैं। यही अध्यापक उनको गढ़ता है, जो भविष्य में विभिन्न पदों पर रह कर अपना उत्तरदायित्व निभाते हैं। सभी जानते हैं कि इसी प्रक्रिया से सरकारी दफ्तरों के बाबू, भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी, देश के विभिन्न स्तरों पर चयनित जनप्रतिनिधि तैयार होते हैं।
नैतिक मूल्यों पर चर्चा में भाग लेने वालों का उत्साह घटा
न जाने कितने भाषण मूल्यों की शिक्षा, नैतिकता, सदाचरण, ईमानदारी, सत्य के महत्त्व आदि को लेकर दिए गए होंगे, दिए ही जाते रहते हैं। गांधी के अमर वाक्य ‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है’ जैसे विषयों पर अनेक भाषण दिए जा चुके हैं, पुस्तकें लिखी गई हैं। पर ऐसे विषयों पर बातें करने वालों का भी समय के साथ उत्साह कम होता देखा जाता है, क्योंकि अब अध्यापक और विद्यार्थी इसे केवल औपचारिकता के लिए सुनते तो हैं, लेकिन वे यह भी जानते हैं कि व्यवस्था और उसे चलाने वाले नैतिकता, मानवीय मूल्य, और गांधी तथा गांधीवादी आचरण से बहुत दूर जा चुके हैं। अपवाद तो अवश्य हैं, लेकिन जो भेड़चाल से अलग होता है, उसका हश्र तय करने वाले सदा सचेत रहते हैं।
देश के करोड़ों युवाओं नें गांधी का यह ‘जंतर’ पढ़ा होगा, जो एनसीईआरटी की सभी पाठ्य पुस्तकों का अनिवार्य पृष्ठ रहता है कि- जो भी कार्य करो; या प्रकल्प प्रारंभ करो, सदा ध्यान रखना कि इससे ‘पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति’ के जीवन में क्या सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा! देश में इस समय शायद ही भारतीय प्रशासनिक सेवा- आइएएस का कोई अधिकारी होगा, जिसने यह वाक्य न पढ़ा हो! फिर, गांधी के मूल्य कहां और कैसे विलुप्त होते जा रहे हैं, और स्कूलों से, विश्वविद्यालयों से जो कुछ सामान्यजन तक पहुंचता है, वह कष्टकर क्यों होता है?
पांच-छह दशक पहले तक गांधीवादी मूल्यों पर होती थी चर्चा
आज से पांच-छह दशक पहले तक इस पर और गांधीवादी मूल्यों पर, अनेक अवसरों पर, स्कूलों, विश्वविद्यालयों तथा संवादों में पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की गहन चर्चा होती थी। आज वह गहराई औपचारिकता मात्र में खो गई है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक और शिक्षाविद दौलत सिंह कोठारी साठ-सत्तर के दशक में भारत के विकास के लिए चार शब्दों का सूत्र देते थे: साइंस, टेक्नोलाजी, प्रोडक्शन (उत्पादन), और गांधी- एसटीपीजी! डा कोठारी के इस सूत्र में से चौथा- जी यानी (गांधी) कहीं खो गया है। विकास और प्रगति की किसी भी अवधारणा का आधार वही हो सकता था।
जीवन जीने के ढंग और उसके विवेचन का जो उदाहरण गांधी ने सभी के समक्ष रखा था, जिसे करोड़ों लोगों ने अपनाया था, वह प्रक्रिया तक पश्चिम का अंधानुकरण करने में कहीं खो गई। लोकतंत्र सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी बन कर रह गया- अपवाद छोड़कर- और सत्ता में पहुंचकर मनमानी करने की पूर्ण स्वच्छंदता को मानक बनाने में जन-प्रतिनिधियों ने कोई देरी नहीं की। इसमें सत्ता-व्यवस्था के शिखर पर बैठे लोगों ने जमकर भागीदारी की। जब किसी भी क्षेत्र में कोई नई नीति घोषित की जाती है, जनता में सराही जाती है, मगर यह भी तुरंत याद कर लिया जाता है कि क्रियान्वयन तो वही व्यवस्था करेगी, जो एक ऐसी कार्य-संस्कृति की अभ्यस्त हो गई, जिसमें स्वार्थ ही सर्वोपरि स्थान पर आकर जम चुका है।
अगर शीर्ष स्थानों पर पहुंचे कुछ जन-प्रतिनिधि भी वास्तव में जनसेवक नहीं रहे हैं, उनकी रुचियां कहीं और हैं, तो अधिकारियों और अपराधियों पर उसका प्रभाव अवश्यंभावी था! उससे ही आज हर नागरिक दिन-प्रतिदिन जूझ रहा है। बिना किसी अपवाद के यह कहा जा सकता है कि हर क्षेत्र की नीति सामान्य जन के हित की ही चर्चा करती है, उसी के प्रति समर्पित बताई जाती है। मगर क्रियान्वयन के स्तर पर सेवा-भाव और जन-कल्याण के प्रति समर्पण कहां तिरोहित हो जाता है, इसकी चिंता कौन करे!
परिवर्तन तो होगा ही, और मानव-मात्र को सदा सकारात्मक परिवर्तन के मार्ग की ही खोज करते रहना चाहिए। अगर कर्मठता, प्रतिबद्धता तथा जन-सामान्य के प्रति समर्पण का भाव स्कूलों में जगाया जा सकता, तो जनता से प्राप्त सरकारी धन का घोर दुरुपयोग करने के पहले लोग कम से कम हिचकते तो अवश्य। 1960 में सरकारी स्कूल, चयनित प्रतिनिधि, राज्य और केंद्र के लोक सेवा आयोग, न्यायाधीश को जो साख, स्वीकार्यता और सम्मान प्राप्त था, आज उसका कितना अंश शेष है? यश और प्रतिष्ठा के बदले में उनको जो मिला, कितना संतोषप्रद है, और क्या वह आगे जीवन में सुख दे सकेगा? हमारी संस्कृति का सूत्र तो यह था कि सुपात्र बनकर धन अवश्य कमाना चाहिए, लेकिन धन से सुख तभी मिलेगा जब बीच में एक अन्य महत्त्वपूर्ण कड़ी का निर्वाह किया गया होगा: सदाचरण!
इसको सभी मत और पंथ स्वीकार करते हैं, भारत में इस ‘धर्म’ यानी सद-आचरण कहते हैं, और यह सर्वव्यापी है। दुर्भाग्य से इस अत्यंत सारगर्भित शब्द को वर्ग-विशेष से जोड़ दिया जाता है। सदाचरण मानवीय धरोहर है, मनुष्य के पृथ्वी पर बनाए रहने की प्राथमिक आवश्यकता है। वह सदाचरण ही है, जो मनुष्य, अन्य सभी जीवधारियों, पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, नदियों-पहाड़ों, समुद्रों-हिमखंडों यानी प्रकृति के हर अवयव से समन्वय के साथ जीने की कला सिखाता है। जब तक मूल्य-आधारित व्यक्तिगत आचरण स्वयं द्वारा स्वीकृत और अंतर्निहित नहीं होगा, राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी नीति या निर्णय की पूर्ण सफलता की आशा करना बेमानी होगा।