जबसे ओमीक्रान कहर बन कर फैलने लगा है, मेरे कानों में एक पुराने गाने के शब्द गूंजने लगे हैं। शब्द हैं : ये तो वही जगह है गुजरे थे हम जहां से। ऐसा लगने लगा है जैसे समय पीछे को चलने लगा है और वापस लौट कर आ गई हूं मैं मार्च 2020 में, जब पहली बार महाराष्ट्र के इस समुद्र तटीय गांव में मैंने उस पहली पूर्णबंदी में पनाह ली थी। वापस वहीं आ गई हूं, इसलिए कि मुंबई में ऐसे फैल रहा है ओमीक्रान कि हर दूसरे दिन किसी दोस्त का फोन आता है यह खबर सुनाने कि उसके पूरे परिवार को हो गया है।
सो, जब कोविन ऐप से मुझे संदेश आया पिछले हफ्ते कि मेरी बारी आ गई है ‘बूस्टर’ लगवाने की, तो मैं कुछ घंटों के लिए मुंबई गई, सीधे अस्पताल पहुंची, टीका लगवाया और वापस इस गांव में लौट आई। यहां अभी तक ओमीक्रान ने दस्तक नहीं दी है और न ही आसपास वाले गांवों से कोविड के इस नए रूप में यह महामारी पहुंची है।
हां, यह जरूर है कि लोग काफी डरे हुए हैं और परेशान भी। इस गांव की अर्थव्यवस्था, तकरीबन नब्बे फीसद, पर्यटन पर निर्भर है। जब 2020 में कोविड आया था, पहली पूर्णबंदी अपने साथ लेकर, तो कई छोटे कारोबार बंद हो गए थे महीनों तक। बहुत बुरे दिन देखे थे उन लोगों ने, जिनकी दिहाड़ी तब संभव होती है जब पर्यटक आते हैं।
फिर जब कोविड थोड़ा-बहुत काबू में आया, तो पर्यटक पहले से कहीं ज्यादा आने लगे थे। फिर आया डेल्टा का दौर, कठिनाइयां साथ लेकर। जब वह भयानक दौर टला तो पर्यटकों की संख्या इतनी बढ़ गई कि गांव का हर दूसरा घर अब छोटा होटल बन गया है और कई गांववालों ने अपने घरों में छोटा रेस्तरां खोल रखा है। अब उनको डर है कि उनका निवेश बेकार जाएगा अगर ओमीक्रान का यह दौर जल्दी समाप्त नहीं होता है।
इस बार बीमारी से खौफ कम है और आर्थिक नुकसान से ज्यादा। ऐसा लगता है जैसे लोगों ने अब तय कर लिया है कि यह महामारी अब हमारे बीच रहने वाली है, सो इसके साथ जिंदा रहने की आदत डालनी पड़ेगी। समस्याएं इस बार अलग हैं। गांव में स्कूल बहुत महीनों के लिए बंद रहा था और हाल में ही खुला है। फिर से इसको बंद करने की नौबत आती है, तो कई बच्चे पढ़ना-लिखना भूल सकते हैं, क्योंकि सबके पास स्मार्ट फोन नहीं हैं।
कोविड के आने के बाद कई लोगों की नौकरियां चली गई हैं और बहुत सारे छोटे कारोबार हमेशा के लिए बंद हो गए हैं। पहाड़ जैसी ऊंची दिखती हैं ये आर्थिक समस्याएं। इनके सामने ओमीक्रान की समस्या इतनी बड़ी नहीं लगती है। खासकर इसलिए कि अभी तक मुंबई के अस्पताल और कोविड केंद्र इतने भरे हुए नहीं हैं, जितने डेल्टा के दौर में थे।
यह भी सच है कि हमारे शासकों ने बहुत कुछ सीखा है पिछले दो वर्षों में। सबसे बड़ी सीख यह रही कि जब इस तरह की वैश्विक समस्या आती है तो दुनिया के हर देश के साथ काम करना अनिवार्य हो जाता है। आत्मनिर्भता का नारा जो प्रधानमंत्री को इतना प्यारा है, वह काम नहीं आता है। माना कि टीकों का निर्माण भारत में होता है, व्यापक तौर पर लेकिन यह भी याद रखना चाहिए कि इनका ईजाद हमारे वैज्ञानिकों ने नहीं, विकसित देशों के वैज्ञानिकों ने किया था।
कोविशील्ड का असली नाम है एस्ट्राजेनेका, जिसको तैयार किया था आक्सफर्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने। भारत में करीब नब्बे फीसद टीके कोविशील्ड के लगे हैं। जिन टीकों को पूरी तरह भारतीय कहा जा सकता है, उनका निर्माण व्यापक स्तर पर नहीं हो पाया है अभी तक, सो आत्मनिर्भरता का सपना देख कर अगर चलते रहते हम, तो कोविड को शायद काबू में न कर पाते।
दूसरी महत्त्वपूर्ण सीख यह है कि जब किसी महामारी से लड़ने का समय होता है, तो नीम-हकीमों और साधु-बाबाओं पर विश्वास करना बेवकूफी है। न ही हमको विश्वास करना चाहिए ऐसे तमाशों पर, जो हमने 2020 की शुरुआत में किए थे। थालियां बजाने, दीये जलाने जैसी चीजों को मोदी ने सही ठहराया है, यह कह कर कि ऐसा करने से आम लोगों के दिल में उत्साह पैदा हुआ था, उनके हौंसले बढ़े थे। शायद भूल गए हैं प्रधानमंत्री कि अर्ध-शिक्षित लोगों को संदेश यही गया था कि ऐसी चीजों से वास्तव में कोविड भाग जाएगा।
याद कीजिए उन लोगों को, जिन्होंने गोबर में नहाते हुए अपने विडियो डाले थे सोशल मीडिया पर, यह साबित करने के लिए कि कोविड का असली इलाज यही है। इस तरह की बातें करने की हिम्मत उनको आई थी यह देख कर कि बड़े-बड़े केंद्रीय मंत्री अपनी फोटो खिंचवा रहे थे ऐसे बाबाओं के साथ, जो वैज्ञानिक नहीं, ढोंगी थे।
इस लेख को शुरू किया था मैंने यह कह कर कि ऐसा लग रहा है मुझे कि मैं ऐसी जगह पहुंच गई हूं जहां से पहले भी गुजर चुकी हूं, लेकिन 2020 के उन पहले महीनों में और 2022 के इन पहले महीनों में अंतर जरूर है। अब देशवासी जान गए हैं कि यह बीमारी एक ऐसा दुश्मन है, जिसके पास कई किस्म के छिपे हुए हथियार हैं और इसको हराने के लिए हमारे पास एक ही हथियार है और वह है विज्ञान तथा वैज्ञानिकों पर पूरा विश्वास रखना।
ऐसा करने के लिए अगर हमको सहायता लेनी पड़ती रहेगी विदेशी वैज्ञानिकों से, तो इसमें शर्मिंदा होने की कोई बात नहीं है। दुनिया के सबसे विकसित देशों का इन दिनों वही हाल है, जो हमारा है। यह ऐसा युद्ध है, जिसको अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लड़ना होगा।