पश्चिमी उत्तर प्रदेश की विधानसभा सीटों पर चुनाव के पहले चरण में वोट पड़ने से कुछ दिन पहले हम दो मित्रों के साथ इस क्षेत्र के सियासी माहौल का जायजा लेने निकल पड़े थे। हम तीनों आजकल सक्रिय पत्रकारिता नहीं करते हैं, इसलिए हम भूतपूर्व पत्रकार कहे जा सकते हैं- एक मित्र तो अपने को अभूतपूर्व पत्रकार कह कर खूब हंसते हैं। भूतपूर्व हो या अभूतपूर्व, टोह लेने का भूत हमारे सिर पर अब भी सवार है।
खैर, तड़के सुबह हम दिल्ली से सहारनपुर के लिए निकले थे। मोदीनगर से कुछ आगे नाश्ता करने के लिए हम एक भीड़ वाले ढाबे पर रुक गए। हमें करीब एक घंटा वहां काटना था, क्योंकि एक और मित्र इस ढाबे पर पास के शहर से आने वाले थे। वे इस इलाके की राजनीति को लंबे अरसे से देख रहे हैं और हम लोग उनके ज्ञान का लाभ उठाना चाहते थे।
चुनावी गहमागहमी भोर होते ही शुरू हो चुकी थी। हम लोग ढाबे वाले की गुलख के ठीक सामने जा के बैठ गए। उसने राम-राम किया और तुरंत अपना एक लड़का हमारी सेवा में लगा दिया। ‘दिल्ली से आ रहे है?’ ढाबे वाले ने पूछा। ‘हां।’ ‘चुनाव देखने के लिए?’ ‘नहीं, नहीं।’ एक मित्र ने उसको भटकाया, ‘कुछ काम है सहारनपुर में।’ ढाबे वाला मुस्कराया। मित्र की चालाकी वह समझ गया था, पर बोला कुछ नहीं। वह समोसे बनाने वाले को कड़ाही में ज्यादा तेल डालने के लिए डांटने लगा।
जब उसने दिल भर कर कारिंदे को डपट लिया, तो मित्र ने धीरे से बात शुरू की- ‘क्या चल रहा है यहां?’ ‘सब ठीक है साहब’, उसने अपना काउंटर साफ करते हुए जवाब दिया। ‘मेरा मतलब था, किसका जोर है इधर?’ ढाबे वाले ने हाथ रोक कर मित्र की ओर देखा और फिर बोला, ‘हम इन सब चक्करों में नहीं हैं साहब। कोई आए-जाए हमको क्या?’ ‘फिर भी …’ उन्होंने उसको घेरने की कोशिश की। ढाबे वाले ने उन पर एक भरपूर नजर डाली और बोला, ‘अपने भतीजे से बात करवा देते हैं। वह ज्यादा जानता है।’ उसने आवाज लगाई और भतीजा हाजिर हो गया।
‘साहब’, उसने शुरू किया, ‘यहां शोर तो चौधरी साहब और समाजवादी का बहुत है, भारतीय जनता पार्टी के वोट काटेंगे भी, पर अंत में लोग भगवा पर ही जाएंगे। आप भी तो मंगलवार को हनुमानजी को हाथ जोड़ कर घर से निकले हैं!’ मित्र झेंप गए। उनका हाथ सहसा टीके की तरह बढ़ा, पर उन्होंने अपने को रोक लिया।
भतीजे ने फिर चुनावी शतरंज में भाजपा के ‘मास्टरस्ट्रोक’ के बारे में तफसील से तफ्सरा किया- ‘भाजपा की दो-चार सीटें कम हो सकती हैं, पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की एक सौ अठारह सीटों पर उसकी पकड़ बनी रहेगी। उसने विशेष रूप से बताया कि जाटों और मुसलमानों को छोड़ कर बाकी सब हिंदू पार्टी को ही वोट देंगे। हम अस्सी फीसद हैं… चौधरी कितना गैर जाट हिंदू तोड़ लेगा? साठ से सत्तर प्रतिशत सीटें भाजपा को मिलेंगी। आप लिख लो।’
हमने कुछ विपरीत मत व्यक्त किया, पर वह अपनी बात पर टिका रहा। ‘आप घूम के देख लो… अलग से लोगों के बातचीत करो। सब वही कहेंगे जो हम कह रहे हैं। आप भी हिंदू हो। आप भी घूम-फिर के वहीं वोट दोगे।’ हमारे मित्र उसका विश्लेषण जितना ध्यान से सुन रहे थे, उतना ही वे हिंदू गर्व के प्रति मुखर होता जा रहा था।
जब भतीजे ने अपना प्रवचन दे लिया, तो ढाबे वाले ने उसे बहाने से हमारे पास से हटा लिया। आपके मन को पढ़ कर लड़के ने बात की है, हमने मित्र की चुटकी ली। वे सकपका गए। गोभी का परांठा खाते हुए हम भतीजे के विश्लेषण पर बहस करने लगे।
थोड़ी देर में हमारा ध्यान उस पर फिर गया। अब वह तीन-चार खद्दर धारियों से बात कर रहा था। ‘बहनजी का वोट कहीं नहीं गया है। एकदम ‘सालिड’ है। जाटव नहीं खिसकेगा… एक मुश्त हाथी को ठोंकेगा। दस सीट तो कहीं नहीं गई… भगवा का रंग उतर चुका है। जात पर वोट पड़ेगा।’
हमने मुस्करा कर अपने मित्र को देखा। वे तपाक से बोले, ‘ठीक कह रहा है, पर जाटव का बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ है… कहीं न कहीं हिंदू ‘कंसोलिडेशन’ हो सकता है। मायावती कुछ सीटें निकाल लेंगी, पर भाजपा की बुरी हार नहीं होगी।’ चौथे मित्र को आने में अब भी आधा घंटा बाकी था। हमने चाय मंगवा ली और हाथी की दुम से लटक गए। तभी ढाबे पर हलचल मच गई।
एक प्रतिष्ठित टेलीविजन चैनल की टीम नाश्ता करने आ गई थी। चैनल के उद्घोषक साहब जाना-पहचाना चेहरा थे। चाचा-भतीजा उनकी आव-भगत में दौड़ पड़े थे। ‘क्या चल रहा है?’ उन्होंने आते ही ढाबे वाले से बड़े इसरार से पूछा। चाचा ने भतीजे को आगे कर दिया। एंकर साहब अपनी टीम से बोले, ‘अरे, सब अपना-अपना नाश्ते का आर्डर दे दो और फिर हम यहां दो-चार ‘बाईट रिकार्ड’ कर लेते हैं।’ कैमरा कुछ मिनटों में चालू हो गया। ‘क्या चल रहा है?’
उन्होंने फिर फरमाया। भतीजा एक सुर में शुरू हो गया- ‘जयंत चौधरी-अखिलेश के गठबंधन ने भाजपा की हवा निकाल दी है। कार्यकर्ता रो रहे हैं। यह हिंदू मुसलिम बहुत ज्यादा हो गया है। सब दुखी हैं। भाजपा को तिरपन में से पांच-दस सीट मिल जाएं तो हनुमान जी को सवा रुपए का प्रसाद चढ़ाए। इस क्षेत्र में सभी किसान हैं… हम ढाबा जरूर चलाते हैं, पर पीछे खेती-बाड़ी भी है। भाजपा किसान-विरोधी है, अबकी बार उसका सूपड़ा साफ है।…’
एंकर साहब मुस्करा रहे थे। एक बाइट लेने के बाद कैमरा बंद करवा दिया। ‘ठीक बाइट दी लड़के ने, मेरा भी यही आकलन है।’ उन्होंने अपने विशिष्ट अंदाज में फरमाया और आलू के परांठे पर पूरी टिक्की मक्खन मल दी।
टीवी टीम जल्दी ही विदा हो गई। उन्हें कई जगह जाना था। हमारे मित्र भी आ गए थे। चलते-चलते हमने भतीजे के कंधे पर हाथ रखा, ‘अच्छा बोलते हो, प्यारे।’ वह खिसिया गया- ‘साहब, ग्राहक देख कर बात करनी होती है। हमें अपनी दुकानदारी भी तो चलानी है। जब सच्ची-झूठी बात कह कर बड़े-बड़े लोग अपनी दुकान सालों से चाला रहे हैं, तो मैं क्यों नहीं चला सकता? साहब, हम भी राजनीति कर लेते हैं।’