बर्बरीक महाभारत का एक अनूठा किरदार है, जो वर्तमान काल में आम लोगों की स्थिति का शायद प्रतीक बन गया है। बर्बरीक घटोत्कच और मौवती (उसे अहिलावती और नागकन्या भी कहा जाता था) के पुत्र थे। घटोत्कच भीम और हिडिंबा की संतान थे। भीम और हिंडिंबा का विवाह तब हुआ था, जब पांडव वन में विचरण कर रहे थे, जहां भीम को दैत्यराज हिडिंब की पुत्री हिंडिबी मिली थी। हिंडिबी को हिडिंबा भी कहा जाता है और उनके नाम पर हिमाचल प्रदेश में कुल्लू के पास एक प्रसिद्ध मंदिर भी है।
घटोत्कच और मौवती के तीन पुत्र थे- बर्बरीक, अंजनापरवन, मेघावर्णा। तीनों महाबली थे, पर बर्बरीक उनमें सबसे शक्तिशाली था। वह शिव और इंद्र का अटूट भक्त था और श्रीकृष्ण का प्रिय था। कृष्ण के स्नेह की वजह से बचपन में उसे खाटू श्याम कह कर पुकारा जाता था। वास्तव में बर्बरीक को आज भी राजस्थान में खाटू श्याम के नाम से पूजा जाता है और गुजरात में वह बलियादव के नाम से स्थापित है।
शिव के प्रति संकल्प के फलस्वरूप उन्हें वरदान में तीन बाण मिले थे। उनमें से एक बाण सारे शत्रुओं को चिह्नित कर सकता था। दूसरा, उन सारे चिह्नित शत्रुओं का वध कर सकता था और तीसरा संपूर्ण सृष्टि का विनाश कर सकता था। बर्बरीक में अथाह शारीरिक बल भी था। मल्लयुद्ध में उसने अपने दादा भीम, जिनमें सौ हाथियों की शक्ति थी, को हरा कर पांडवों को चकित कर दिया था।
घटोत्कच पांडव वंश की ज्येष्ठ संतान थे और उनके पास भी असीम शक्ति थी। जब महाभारत युद्ध की तैयारी शुरू हुई, तो भीम ने अपने पुत्र को पांडवों की तरफ से लड़ने के लिए कुरुक्षेत्र बुलवा लिया था।
पिता के जाने के बाद, महावीर अजेय बर्बरीक ने भी युद्ध में भाग लेने की मंशा अपनी मां के सामने रखी। भारतवर्ष के हर कोने से अद्भुद योद्धा जमा हो रहे थे और ऐसे ऐतिहासिक युद्ध में बर्बरीक भी अपना बल आजमाना चाहता था। मां ने पुत्र को महासंग्राम में शामिल होने की स्वीकृति तो दे दी, पर उससे वचन लिया कि वह कमजोर पक्ष का साथ देगा।
श्रीकृष्ण ने जब सुना कि बर्बरीक ने कुरुक्षेत्र की ओर प्रस्थान कर दिया है, तो वह चिंतित हो उठे थे। पांडवों की जीत विधि का विधान थी, पर अगर बर्बरीक अपने वचन के अनुसार कमजोर पक्ष यानी कौरवों के साथ खड़ा हो गया, तो युद्ध में एक नया मोड़ आ जाएगा। उन्होंने बर्बरीक को युद्ध में शामिल होने से रोकने के लिए एक अजीब-सी युक्ति निकली।
जब बर्बरीक कुरुक्षेत्र के निकट पहुंचा तो कृष्ण ब्राह्मण का भेष धर कर उसके सामने प्रकट हुए। उन्होंने बर्बरीक से कहा कि उन्हें युद्ध क्षेत्र में पूजा के लिए एक वीर की बलि चाहिए। घटोत्कच पुत्र दानवीर भी था। वह ब्राह्मण की याचना को टाल नहीं सकता था। उसने कृष्ण को पहचान भी लिया था।
बर्बरीक ने कहा कि वह बलि वेदी पर चढ़ने के लिए तैयार है, पर वह महाभारत का युद्ध भी देखना चाहता है। उसने वरदान मांगा कि मृत्यु के बाद उसकी आंखें जीवित रहें, जिससे वह युद्ध का चश्मदीद हो सके। कृष्ण ने उसे वरदान दे दिया और उसके सिर को काट कर एक पहाड़ी पर स्थापित कर दिया, जहां से कुरुक्षेत्र का पूरा मैदान दिखता था।
बर्बरीक का बलिदान महाभारत के महाकाल की एक अद्भुद घटना है। वे कृष्ण के प्रिय थे, पर प्रियजन ने ही छल से उनका वध कर दिया था। वध का कारण सिर्फ युद्ध में जीत हासिल करना था। यह दीगर बात है कि कृष्ण की दृष्टि में महाभारत धर्म और अधर्म का निर्णायक युद्ध था, जिसमें बर्बरीक जैसे योद्धाओं की बलि छोटी बात थी।
वर्तमान में हम और आप बर्बरीक की तरह हो गए हैं। ‘महा’ भारत की परिकल्पना में जन अपना योगदान देने को उत्सुक है। वह कमजोर पक्ष के साथ खड़े होने का हामी है। उसके पास तीन निर्णायक बाण- मत प्रदर्शन, मत दान और जन संघर्ष है। लोकतंत्र का कुरुक्षेत्र उसका विशिष्ट धर्मक्षेत्र है, पर उसको अपना धर्म निभाने से छला जा रहा है।
जनबल की बलि लेने के लिए धर्म और अधर्म के संघर्ष की दुहाई दी जा रही है। लोकतंत्र के वरदान को अभिशाप के रूप में परिवर्तित करने का प्रयास दिन पर दिन जोर पकड़ रहा है। बर्बरीक की तरह हम सब देख तो सकते हैं- निष्प्राण दर्शक की तरह- पर कर कुछ नहीं सकते, क्योंकि शरीर को छिन्न-भिन्न कर के कहीं दूर दफनाने की तैयारी हो चुकी है।
वास्तव में जन-क्रिया और जन-मन के कटे हुए सिर को तलहटी में हो रहे भारत-रण से हटा कर दूर पहाड़ी पर रख दिया गया है। बर्बरीक के सामने भीषण संग्राम के दृश्य पर दृश्य उभर रहे हैं। एक तरफ आम जन की सेना लाखों की संख्या में कट रही है, तो दूसरी ओर अजेय योद्धा अपनों के खून से सने खड़े हैं। बर्बरीक की बलि के साथ असंख्य साधारण सिपाही भी इसीलिए बलि चढ़ चुके हैं, क्योंकि दो राजपक्ष जमीन पर अपना एकाधिकार बनाने के लिए आतुर हैं।
संग्राम राजनीतिक और भौतिक संपत्ति पर वर्चस्व बनाने का है- निज स्वार्थ और महत्त्वाकांक्षा प्राप्ति का है। अर्जुन, भीम और युधिष्ठिर आज भी हैं। दुर्योधन और दुशासन, भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण भी हैं। कृष्ण की तरह युक्ति निकालने वाले भी प्रस्तुत हैं। छल-नायक और ज्यादा चालाक हो गए हैं। जन रूपी बर्बरीक को मृत्यु उपरांत दृष्टि का वरदान देने के बाद वे उसकी आंख पर पट्टी बांधने में सफल भी हो गए हैं। ‘महा’ भारत का रण अनुचित बल, छल और कपट से घिर गया है। यह एक ऐसा चक्रव्यूह बन गया है, जिसमें युवा भारत अभिमन्यु की तरह घुप्प अंधेरे में कैद होता जा रहा है।
हम बर्बरीक तो बन गए हैं और हमारा कटा हुआ सिर पहाड़ी पर टंग जरूर गया है, पर महाभारत के अंत में बर्बरीक की जरूरत कृष्ण को भी पड़ी थी। कौरवों की पराजय के बाद प्रश्न उठा था कि महासंग्राम का वास्तविक नायक कौन था। विवाद होने पर कृष्ण ने सुझाया था कि चूंकि बर्बरीक दूर से, तटस्थ रूप से युद्ध को देख रहा था, इसीलिए वास्तविक नायक का फैसला केवल वही कर सकता है। बर्बरीक ने कृष्ण को नायक बताया था।
वर्तमान के बर्बरीक को भी एक दिन अपना फैसला सुनना होगा, क्योंकि युक्ति-प्रतियुक्ति, नीति-अनीति, धर्म-अधर्म के पेच लड़ाने के बाद नायक और खलनायक में भेद तो वह जन-शीश करेगा, जिसको काट कर एक पक्ष ने अपनी जीत निश्चित की है। उसको मालूम नहीं है कि जन-बर्बरीक का बल उसकी दृष्टि में है, जिसमें जीत हार की तरह उभर सकती थी और सारे आडंबर को पलक झपकते ही तहस-नहस कर सकती है।