बारी-बारी से सरकार बदलने की गाथा केरल में शुरू हुई। 1990 के दशक से, हमने राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में बारी-बारी से सरकारें बनती देखी हैं।

सत्ता का दुरुपयोग

हालांकि, ऐसे कई बड़े राजनेताओं के उदाहरण हैं, जो सत्ता का दुरुपयोग करते रहे हैं। एमजी रामचंद्रन और उनकी पार्टी एआइडीएमके ने 1977 से लेकर 1987 में अपनी मृत्यु तक लगातार तीन चुनाव जीते। जे. जयललिता और उनकी पार्टी एआइएडीएमके ने 2011, 2016 और 2021 में तमिलनाडु में लगातार तीन चुनाव जीते। नवीन पटनायक और उनकी पार्टी बीजद ने 2000 के बाद से लगातार पांच चुनाव जीते हैं।

सबसे शानदार- और चुनौतीपूर्ण- उदाहरण भाजपा का है, जिसने 1998 से गुजरात में लगातार छह चुनाव जीते हैं (2002 से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में, उनके मुख्यमंत्री रहते हुए या प्रमुख नेता के रूप में)।

ऐसा लगता है कि कुछ स्थितियों में और कुछ नेताओं के अधीन, सत्ता एक कमजोरी के बजाय ताकत बन गई है। इस घटना पर राजनीतिक पर्यवेक्षकों, सामाजिक मनोवैज्ञानिकों और चुनाव विज्ञानियों को सावधानीपूर्वक विश्लेषण करने की आवश्यकता है।

प्रथम दृष्टया मेरे अवलोकन निम्नलिखित हैं:

  1. जो पार्टियां सरकार में रहीं, उन्होंने पांच वर्षों के दौरान एक विशाल चुनावी असलहा-पेटी तैयार की। के. कामराज, एस. निजलिंगप्पा, के. ब्रह्मानंद रेड्डी, ईएमएस नंबूदरीपाद, हितेंद्र देसाई, वाईबी चाह्वाण, एमएल सुखाड़िया या ज्योति बसु (अन्य लोगों सहित) ने सत्ता में रहते हुए यही किया।
  2. शासक दल नौकरशाही, खासकर पुलिस बल का राजनीतिकरण करने से नहीं हिचकता। यह गुजरात और उत्तर प्रदेश में कुछ अधिक ही दिखाई देता है। हाल ही में रामपुर विधानसभा क्षेत्र में हुए उपचुनाव में मतदान फीसद लगभग बत्तीस रहा, जबकि इसी राज्य के खतौली विधानसभा क्षेत्र में यह लगभग छप्पन फीसद था। मैनपुरी लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र में, मतदान लगभग तिरपन फीसद था। समाजवादी पार्टी ने आरोप लगाया है कि रामपुर में कम मतदान के लिए मुख्य रूप से पुलिस की भूमिका जिम्मेदार है।

प्रौद्योगिकी और बाहुबल का उपयोग

  1. चतुर और दूरदर्शी राजनीतिक दलों ने अपने संगठन को मजबूत और परिष्कृत करने के लिए प्रौद्योगिकी का बड़े पैमाने पर उपयोग किया है। भाजपा, और कुछ अन्य पार्टियां, विशेष रूप से मतदान के दिन, चुनावों को अपने पक्ष में करने के लिए बड़े ही सूक्ष्म स्तर पर बूथ समितियों का गठन करने में सक्षम रही हैं। भाजपा मतदाता सूची के हर पन्ने पर मतदाताओं का प्रबंधन बहुत सूक्ष्म स्तर तक कर पाने में सफल रही है।
  2. जिन सत्तारूढ़ दलों के पास एक सुगठित पार्टी संगठन है, वे संगठन में ‘बाहुबल’ को जोड़ते हैं। चुनाव से पहले, सेवारत विधायक और कुख्यात बाहुबली आदि अन्य दलों से दलबदल कर सत्ताधारी दल में शामिल हो जाते हैं। इसमें पैसा निस्संदेह एक आकर्षण होता है, मगर पैसे से ज्यादा, आपराधिक मामलों में चल रही जांचों में दी जाने वाली ‘माफी’ इसमें सबसे बड़ी चाल साबित होती है। दलबदल के मामले में एजंसियों द्वारा की जाने वाली सभी जांचें अचानक बंद कर दी जाती हैं।
  3. पिछले कुछ वर्षों में सत्तारूढ़ दल ने धर्म को ध्रुवीकरण के एक कारक के रूप में इस्तेमाल किया है। यह कई तरह से किया जाता है, कुछ निर्लज्ज तो कुछ सूक्ष्म तरीके से। मसलन, भाजपा ने गुजरात (2012, 2017 और 2022) और उत्तर प्रदेश (2022) के चुनावों में मुसलिम समुदाय से किसी भी व्यक्ति को प्रत्याशी नहीं बनाया, जबकि गुजरात में मुसलिम कुल आबादी का 9.7 फीसद और उत्तर प्रदेश में बीस फीसद हैं। एक मुसलिम उम्मीदवार को टिकट देने से इनकार करने का मतलब दरअसल, अन्य समुदायों को एक संकेत देना होता है, जो अनिवार्य रूप से मतदाताओं का ध्रुवीकरण करता है।
  4. सत्ताधारी दल की तरफ से शासन की विफलता को खूब ऊंचा-ऊंचा बोल कर दबाने की कोशिश की जाती है, जिसे भयभीत और चापलूस मीडिया द्वारा कई गुना बढ़ा दिया जाता है। स्वतंत्र मीडिया बीते जमाने की बात हो गई है। व्यावहारिक रूप से, सभी मीडिया ‘आउटलेट्स’ (टीवी और समाचार पत्र) कारपोरेट के स्वामित्व और नियंत्रण में हैं। सोशल मीडिया अपेक्षाकृत मुक्त है, लेकिन नकली समाचार, नकली वीडियो, ट्रोल और ‘बाट्स’ से घिरा हुआ है।

विजेता पराजित हो सकते हैं।

उपरोक्त के अलावा, मुझे यकीन है कि एक बड़े समाज में अन्य कारक भी मौजूद हैं, जो प्रत्येक राज्य के इतिहास और संस्कृति की दृष्टि से अद्वितीय हैं। मेरे विचार से गुजरात और उत्तर प्रदेश में एक अजीब-सी शांति और सन्नाटा उतर आया है। क्या यह वैसा ही है, जैसा कि जान केनेडी ने अपने वक्त को ‘श्मशान की शांति और दास की चुप्पी’ के रूप में देखा था? मुझे पूरी उम्मीद है कि ऐसा नहीं है। असहमति को सत्ता द्वारा दबा और मीडिया द्वारा व्यावहारिक रूप से हटा दिया जाता है।

अगर ये रुझान भयानक चुप्पी और शांति की ओर ले जाते हैं, तो इसका मतलब यह होगा कि हम उस दौर की ओर बढ़ रहे हैं जब भारत एक चुनावी लोकतंत्र तो होगा, लेकिन संवैधानिक लोकतंत्र नहीं रहेगा।

हाल ही में संपन्न हुए चुनाव जीतने और हारने वालों, दोनों के लिए सबक हैं। सामान्य सबक यह है कि विजेता के पास एक मजबूत पार्टी संगठन, समर्पित कार्यकर्ता, एक उत्साही अभियान और सूक्ष्म प्रबंधन होता है। गुजरात में, अकेले भाजपा के पक्ष में सभी चारों कारक थे और उसने सत्ता का दुरुपयोग किया। इसके विपरीत, हिमाचल प्रदेश (कांग्रेस) और दिल्ली नगर निगम (आप) में प्रमुख चुनौती देने वाले चारों कारक उसके पक्ष में जा रहे थे, पर सत्ता घातक साबित हुई।

चाहे कोई भी राजनीतिक दल जीते या हारे, तीन चुनावों में तीन दलों की जीत बढ़ते अंधकार के बीच उजाले की दस्तक की तरह है।