इधर बहस फिर से शुरू हो गई है, जबकि उधर सरकारी पक्ष के प्रमुख वक्ता ने वापस लौटने की तैयारी शुरू कर दी है। क्या अर्थव्यवस्था ने करवट बदली है? क्या हम दो अंकों की वृद्धि दर की राह पर हैं? 2021-22 की दूसरी तिमाही (जुलाई से सितंबर) के लिए सीएसओ के अनुमान सरकार के लिए कुछ खुशियां लेकर आए हैं। इस साल की दूसरी तिमाही में 8.4 प्रतिशत की जीडीपी विकास दर का मजाक नहीं उड़ाया जा सकता, भले यह पिछले वर्ष की दूसरी तिमाही में -7.4 प्रतिशत के निम्न स्तर पर थी। यहां तक कि यह क्रमिक रूप से 2021-22 की पहली तिमाही में 20.1 प्रतिशत से कम रही हो।

जिन अंकों की वजह से सरकार के चेहरे पर मुस्कान आती है, उन्हें ‘उच्च आवृत्ति संकेतक’ कहा जाता है। जैसे कर संग्रह, यूपीआई वाल्यूम, ई-वे बिल (वाल्यूम), रेलवे माल ढुलाई, बिजली की खपत, आदि। जबकि वास्तव में ये संख्याएं होती हैं, लोग नहीं होते। और निश्चित रूप से ये अनौपचारिक क्षेत्र पर निर्भर लोग तो कतई नहीं होते, जिसका हमारे पास कोई आंकड़ा नहीं है। या फिर वे लोग, जो आर्थिक पिरामिड में नीचे हैं।

समय से पहले जश्न
यह एक गंभीर चिंतन का विषय है कि जिस वक्त वित्त मंत्रालय के अधिकारी खुशी मना रहे थे, अन्य मंत्री और सत्ताधारी पार्टी के सांसद चुप थे, तब आम लोग वास्तव में जश्न नहीं मना रहे थे! सीएसओ के अनुमानों से प्रेरित सुर्खियां एक या दो दिनों में गायब हो गईं और पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस, टमाटर, प्याज की कीमतें और बाजार की पटरियों पर ग्राहकों की कमी ने फिर से बहस के लिए जगह बनानी शुरू कर दी।

सीएसओ के वही अनुमान इस तथ्य की ओर भी इशारा करते हैं कि लोग पर्याप्त खरीद और पर्याप्त उपभोग नहीं कर रहे थे। निजी खपत को वृद्धि के चार इंजनों में सबसे प्रमुख इंजन माना जाता है। यह सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 55 प्रतिशत है। चलिए, पूर्व-महामारी के वर्षों (2018-19 और 2019-20), महामारी प्रभावित वर्ष (2020-21) और तथाकथित पुनर्प्राप्ति यानी रिकवरी वर्ष (2021-22) में निजी खपत के आंकड़ों पर विचार कर लेते हैं:

 पहली तिमाही दूसरी तिमाही
 (करोड़ रुपए में)

2018-19 19,07,366 19,29,859
2019-20 20,24,421 20,19,783
2020-21 14,94,524 17,93,863
2021-22 17,83,611 19,48,346
चालू वित्त वर्ष की पहली और दूसरी तिमाही में निजी खपत अब भी 2019-20 में दर्ज निजी खपत से कम है। इससे भी बुरी बात यह है कि छमाही की कुल खपत 2018-19 की छमाही की कुल खपत से कम है। इसके अलावा, 2021-22 की छमाही के लिए कुल सकल घरेलू उत्पाद 68,11,471 करोड़ रुपए है, जबकि 2019-20 में 71,28,238 करोड़ रुपए था। इससे पहले कि हम उत्पादन के पूर्व-महामारी स्तर तक पहुंचें, अब भी कुछ चीजें हासिल करना बाकी है।

खर्च में किफायत
तथाकथित रिकवरी वर्ष में अब भी लोग पूर्व-महामारी के वर्षों की तुलना में कम खपत क्यों कर रहे हैं? ऐसे कई कारण हो सकते हैं, जो अधिकांश आबादी पर लागू होते हैं:

  • लोग प्रति व्यक्ति आय के मामले में गरीब हैं;
  • लोगों की आय कम है;
  • लोगों की नौकरी चली गई है;
  • लोगों ने अपना कारोबार बंद कर दिया है;
  • लोगों की खर्च करने योग्य आय कम है;
  • लोग ऊंची कीमतों से डरे हुए हैं;
  • लोग ज्यादा बचत कर रहे हैं।

मेरे विचार में, शायद उपरोक्त सभी बिंदु सही जवाब हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि कई लोगों की आय कम है, कई लोगों की नौकरी चली गई है, कई की उच्च करों (ईंधन कर, जीएसटीदरों) के कारण खर्च करने योग्य आय कम है और कई व्यवसाय बंद हो गए हैं। यह भी संभावना है कि कई लोग कोरोना वायरस से संक्रमित होने के डर से अधिक बचत कर रहे हैं।

मैंने कई परिवारों से बातचीत की और उसमें पाया कि उनके मन में भय है कि क्या होगा अगर वे खुद या उनके परिवार में कोई व्यक्ति विषाणु से संक्रमित हो जाए? यह एक वास्तविक डर है, क्योंकि हर दिन प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, भारत की वयस्क आबादी के केवल 50.8 प्रतिशत लोगों को टीके की दोनों खुराकें मिली हैं, 85.1 प्रतिशत ने अपना पहला टीका लगवाया है, और लगभग पंद्रह करोड़ वयस्कों को अभी बिल्कुल टीका नहीं लग पाया है। बच्चों का टीकाकरण अभी शुरू नहीं हुआ है।

चमक-दमक वाली, शानदार शादियां, छुट्टियां मनाने वालों की वजह से भरे-भरे चल रहे हवाई जहाज, बाहर खाने जाने वालों की भीड़ और ब्लैक फ्राइडे की खरीदारी की चकाचौंध सिर्फ बड़े शहरों और दूसरी श्रेणी के शहरों तक ही सीमित हैं। गांवों का मिजाज उदास है। उनमें डर है या फिर चिंता व्याप्त है।

गलत नुस्खा
सरकार, अपने प्रमुख आर्थिक सलाहकार की अगुआई में, आपूर्ति पक्ष के उपायों और अर्थव्यवस्था को बदलने की उनकी क्षमता की विरुदावली गाती रहती है। आपूर्ति तभी प्रासंगिक होती है, जब मिलान या मांग अधिक हो। अगर मांग सुस्त है, तो निर्माता और वितरक उत्पादन में कटौती करने के लिए बाध्य होंगे। इस मामले में वाहन उद्योग, खासकर दुपहिया वाहन उद्योग, की क्या स्थिति है, यह आपसे छिपा नहीं है।

अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने का जो सही नुस्खा, या जो सही तरीका होना चाहिए, जिससे खासकर आधी आबादी के निचले हिस्से में मांग को बढ़ावा मिलता, मोदी सरकार ने या तो उसका उपहास उड़ाया या फिर उसे खारिज कर दिया। मैंने र्इंधन और कुछ अन्य वस्तुओं पर करों में कटौती के लिए लगातार तर्क दिया; जो अत्यंत गरीब हैं, उनको नगद हस्तांतरण करने और बंद हो गए सूक्ष्म और लघु उद्यमों को फिर से शुरू करने और उन्हें श्रमिकों को फिर से काम पर रखने में सक्षम बनाने के लिए वित्तीय सहायता देने की सिफारिश की थी। मगर वे दलीलें बहरे कानों में नहीं पड़ीं।

इसी का नतीजा है कि हमारे देश की आबादी का शीर्ष एक प्रतिशत बहुत अमीर हो गया है, शीर्ष दस प्रतिशत अमीर हो गया है और नीचे का पचास प्रतिशत और गरीब होता गया है। अगर सरकार सीएसओ के आंकड़ों को बिना गहराई से देखे-परखे, खुद को चकाचौंध में आविष्ट रखे हुई है, तो इसका मतलब यही है कि सरकार न केवल बहरी है, बल्कि उसे बिल्कुल कुछ सुनाई नहीं देता है।