कुलदीप कुमार

‘‘महात्माजी, जो कुछ उम्मीद है, बाला साहब देवरस से है। वे जो करेंगे वही आपके लिए होगा। वैसे काम चालू हो गया है। गोडसे को भगतसिंह का दर्जा देने की कोशिश चल रही है। गोडसे ने हिंदू राष्ट्र के विरोधी गांधी को मारा था। गोडसे जब भगत सिंह की तरह राष्ट्रीय हीरो हो जाएगा, तब तीस जनवरी का क्या होगा? अभी तक यह ‘गांधी निर्वाण दिवस’ है, आगे ‘गोडसे गौरव दिवस’ हो जाएगा। इस दिन कोई राजघाट नहीं जाएगा, फिर भी आपको याद जरूर किया जाएगा। जब तीस जनवरी को गोडसे की जय-जयकार होगी, तब यह तो बताना ही पड़ेगा कि उसने कौन-सा महान कर्म किया था। बताया जाएगा कि इस दिन उस वीर ने गांधी को मार डाला था। तो आप गोडसे के बहाने याद किए जाएंगे। अभी तक गोडसे को आपके बहाने याद किया जाता था। एक महान पुरुष के हाथों मरने का कितना फायदा मिलेगा आपको? लोग पूछेंगे- यह गांधी कौन था? जवाब मिलेगा- वही, जिसे गोडसे ने मारा था।’’

महान लेखक भविष्यद्रष्टा होता है, यह तो सभी कहते हैं। लेकिन अगर इसका प्रत्यक्ष उदाहरण देखना हो तो हिंदी के अप्रतिम व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई द्वारा महात्मा गांधी के नाम लिखी इस काल्पनिक चिट्ठी को पढ़ें, जिसे उन्होंने तब लिखा था जब इमरजेंसी के बाद देश में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार सत्ता में आ चुकी थी और उसमें शामिल जनसंघ ने अपना सुपरिचित खेल खेलना शुरू कर दिया था। आज वही जनसंघ अपने नए अवतार भारतीय जनता पार्टी के रूप में अकेले अपने बलबूते पर केंद्र में सरकार बना चुका है। गुजरात को सफलतापूर्वक ‘हिंदुत्व की प्रयोगशाला’ में बदलने वाले संघ के पूर्व प्रचारक नरेंद्र दामोदर मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं कि गोडसे को भगतसिंह बनाने का अभियान भी एक बार फिर जोर पकड़ने लगा है।

एक यही नहीं, कई और अभियान जोर पकड़ रहे हैं। संघ से जुड़े विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और हिंदू जागरण मंच जैसे अनेक संगठन मुसलमानों और ईसाइयों की ‘घर वापसी’ यानी उन्हें हिंदू बनाने के लिए बेचैन हैं। विहिप नेता साध्वी प्राची ने तो समाजवादी पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री आजम खां, जामा मस्जिद के इमाम बुखारी, पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ और पूर्व प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी तक को हिंदू बनने की दावत दे डाली है। बस अभी तक किसी को यह याद नहीं आया है कि भाजपा के अपने घर के अंदर भी मुख्तार अब्बास नकवी, एमजे अकबर, शाहनवाज हुसैन और नजमा हेपतुल्ला हैं। उन्हें हिंदू बनाने में इतनी ढील क्यों बरती जा रही है? या यह अभियान सिर्फ गैर-भाजपाई मुसलमानों और ईसाइयों के लिए छेड़ा जा रहा है ताकि वे डर कर भाजपा में शामिल हो जाएं?

भाजपा और उसके गृहमंत्री का कहना है कि उन्हें ‘लव जिहाद’ के बारे में कुछ पता ही नहीं है, जबकि जिस संघ परिवार की भाजपा सदस्य है, उसका मुखपत्र इस विषय पर कवर स्टोरी छापता है। चंद दिन पहले मुजफ्फरनगर दंगों की आरोपी साध्वी प्राची ‘लव जिहाद’ के खिलाफ बोलते हुए मुसलमानों के बारे में अपशब्द प्रयोग करने की सीमा तक चली जाती हैं और कहती हैं कि उन्होंने हिंदुओं से सिर्फ चार-पांच बच्चे पैदा करने को तो कहा है, चालीस-पचास पिल्ले पैदा करने को तो नहीं कहा।
उधर केंद्र सरकार में मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति पहले ही ‘रामजादों’ और ‘हरामजादों’ में फर्क करते हुए दिल्ली की जनता से ‘रामजादों’ के लिए वोट मांग चुकी हैं। भाजपा सांसद साक्षी महाराज, जिन पर न जाने किस-किस तरह के आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, हरिद्वार में बोलते हुए मोदी सरकार को धमकी दे ही चुके हैं कि अगर विकास और हिंदुत्व के एजेंडे को एक साथ न चलाया गया, तो सरकार की नैया भंवर में फंस जाएगी।

पिछले दो माह के भीतर दिल्ली में, जहां की कानून-व्यवस्था सीधे-सीधे केंद्रीय गृह मंत्रालय के हाथ में है, गिरजाघरों पर हमलों और तोड़फोड़ की पांच वारदातें हो चुकी हैं, लेकिन पुलिस ने जैसी फुर्ती उसकी निष्क्रियता के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने वाले ईसाइयों पर डंडे बरसाने में दिखाई, वैसी अपराधियों को पकड़ने में नहीं। उसने तो इन्हें चोरी की घटनाएं मान कर मामले दर्ज किए थे। जब जनमत के दबाव और दिल्ली में हो रहे चुनाव के मद्देनजर गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने निर्देश दिया, तब जाकर सख्त धाराएं लगाई गर्इं।

सबसे चिंताजनक बात यह है कि हर समय अपने ‘मन की बात’ बताने को व्याकुल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज तक इन सभी मुद्दों पर एक भी सार्वजनिक बयान नहीं दिया। कुछ समय पहले एक खबर आई थी, जिसमें कहा गया था कि पार्टी सांसदों की एक बैठक में उन्होंने ‘लक्ष्मण रेखा’ का उल्लंघन न करने की अपील की थी। लेकिन वह खबर सही थी या गलत, पता नहीं। लोग इतना जानते हैं कि हर विषय पर बोलने वाले हमारे प्रधानसेवक ने संसद ठप्प होने दी, लेकिन धर्मांतरण के मुद्दे पर मुंह नहीं खोला। अन्य मुद्दों पर भी वे अभी तक मौन हैं। क्या इससे अल्पसंख्यकों के बीच सौहार्द का संदेश जाता है? क्या उन्हें यह लग सकता है कि यह सरकार उनके प्रति चिंतित है?

कोई आश्चर्य नहीं कि मुसलिम सांप्रदायिक नेतृत्व इस स्थिति का राजनीतिक लाभ उठाने के लिए तत्काल सामने आ गया है। हो सकता है कि हिंदुत्ववादी भी यही चाहते हों, क्योंकि मुसलिम सांप्रदायिक तत्त्वों के सक्रिय होने से उन्हें और अधिक शक्ति मिलेगी और समाज को सांप्रदायिक आधार पर बांटने में आसानी होगी। मजलिस इत्तेहादुल मुसलिमीन के नेता असदुद्दीन ओवैसी ने अब मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग करते हुए अभियान छेड़ दिया है। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब मंडल आयोग की सिफारिशों को मान कर अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की, तब से सभी को ऐसा लगने लगा है जैसे सारी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का एकमात्र समाधान आरक्षण है। ओवैसी का अभियान बहुत हद तक हिंदू-मुसलिम दूरी को बढ़ाने में सहायक होगा, उसे पाटने में नहीं।

आजाद भारत में मुसलिम नेतृत्व ने हमेशा मुसलिम समुदाय को उसकी धार्मिक अस्मिता, उर्दू, अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय और शरीअत जैसे भावनात्मक मुद्दों पर ही आंदोलित करने की नीति अपनाई है। अगर उसने उस सलाह पर अमल किया होता जो पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना ने भारत के मुसलमानों को दी थी, तो शायद पिछले छह दशकों का इतिहास कुछ और ही होता। 25 जुलाई, 1947 को मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल जिन्ना से दिल्ली के औरंगजेब रोड स्थित उनके निवास स्थान पर मिला था। जिन्ना ने उसे सलाह दी थी कि भारत में रहने वाले सभी मुसलमान उसके प्रति वफादार रहें, वे अपनी अस्मिता और पहचान बनाए रखें, और अपने शैक्षिक और आर्थिक विकास के लिए सतत प्रयत्नशील रहें। इस भेंट के दौरान जिन्ना ने सबसे अधिक जोर इस बात पर दिया कि स्वतंत्र भारत में मुसलमान अपने शैक्षिक और आर्थिक विकास के लिए जी-तोड़ प्रयास करें।

लेकिन मुसलिम नेतृत्व ने कभी मुसलिम समुदाय की वास्तविक समस्याओं को नहीं उठाया और भावनात्मक मुद्दों पर ही उसका ध्यान केंद्रित रखा। अब अल्पसंख्यकों के बीच असुरक्षा की भावना बढ़ रही है और इसका राजनीतिक लाभ उठाने के लिए ओवैसी जैसे नेता मौजूद हैं। और हों भी क्यों न? मजलिस इत्तेहादुल मुसलिमीन का निजाम के हैदराबाद में जो इतिहास रहा है, वह लोगों को पता है। वह सांप्रदायिक राजनीति की उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहा है, जिसमें से उसका जन्म हुआ था।

ऐसे में अगर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा यह कहते हैं कि भारत तभी तरक्की कर सकता है और अखंड रह सकता है, जब तक वह धार्मिक या सांप्रदायिक आधारों पर न बंटे, या फिर अगर आज महात्मा गांधी होते तो उन्हें भारत में बढ़ रहे सांप्रदायिक तनाव और हिंसा को देख कर बहुत दुख होता, तो इसमें गलत क्या है और किसी भी भारतवासी को इस पर क्यों आपत्ति होनी चाहिए? वह भी तब, जब एक विदेशी राष्ट्रपति तो इन मुद्दों पर बोल रहा है और अपना प्रधानमंत्री एकदम चुप्पी साधे हुए है?

 

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