क्षमा शर्मा

चुनाव के दिनों में जितने व्यस्त राजनीतिक पार्टियों के नेता-कार्यकर्ता होते हैं, उससे कम अखबार या टीवी वाले नहीं होते। हर वक्त पाठकों, श्रोताओं, दर्शकों के लिए क्या नया हो सकता है, इसे सोचने-दिखाने में उनकी सांस फूली रहती है। किसने किस बड़े नेता का इंटरव्यू पहले दिखा दिया, हम क्यों नहीं कर पाए, अफसर की डांट खाने और नौकरी जाने का खतरा हमेशा बना रहता है।

हर रोज की बहसों, रैलियों में नेताओं या उनके दलों के प्रवक्ताओं में से कोई खिलखिलाता है, किसी का मुंह लटक जाता है। कोई बहस में क्षणिक जीत की खुशी के साथ, चेहरे की गुलाबी रंगत लिए इतराता है और हर हाल में बहुमत और जीत का दावा करता है। तो पीले पड़े, मुंह लटके वाले धूल झाड़ कर उठ खड़े होते हैं। गाली खाकर, आलोचना सुन कर हंसना, मुस्कराना कोई इनसे सीखे।

इन दिनों चुनाव में यह बात नहीं होती कि किसने भ्रष्टाचार नहीं किया। किसने बड़े बोल नहीं बोले। कौन अपने वादों पर खरा उतरा। नहीं उतरा। कौन पापी नहीं है।

प्रतियोगिता तो इस बात पर होती है कि तेरे मुकाबले मैंने कम पाप किए हैं, मेरी पार्टी में तेरी पार्टी के मुकाबले कम दागी हैं, मैंने कम खाया है, अगर खाया है भी तो अपने सामने वाले से कम खाया और कभी पकड़ा नहीं गया। चोर वह जो पकड़ा जाए। इसलिए जनता मुझे ही वोट देगी। हमारी ही सरकार बनेगी। एक बार सरकार बन गई तो समझो पांच साल की चांदी। फिर पांच साल में मुद्दे भी तो वही नहीं रहेंगे, जो आज हैं। आजकल फेसबुक, ट्विटर, वाट्सएप की पल-पल बदलती दुनिया में कोई पिछले घंटे की बात को याद नहीं रखता, तो पांच साल की कौन कहे। जनता की भूल जाने की आदत दलों के लिए वरदान की तरह है।

जो कल तक दुश्मन थे, दूसरे को हर हाल में तहस-नहस करने की कसमें खाते थे, वही अचानक दोस्त हो जाते हैं। ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे गाते हुए हर मंच पर दिखाई देते हैं।

सच तो यह है कि मीडिया-उछाल के इस समय में चुनाव एक ऐसी सुपरहिट फिल्म है, जो कभी फ्लॉप नहीं होती। जिस तरह फिल्मों में खर्च और मुनाफे का हिसाब लगा कर रातोंरात उन्हें सौ, दो सौ और ‘पीके’ फिल्म के बाद तो तीन सौ करोड़ रुपए कमाने के लक्ष्य वाली फिल्मों में शामिल किया जाता है, उसी तरह अगर चुनाव का हिसाब लगाया जाए तो चुनाव की यह फिल्म तो अरबों के बाड़े में शामिल हो सकती है। इसे देखने के लिए अभिनेता-अभिनेत्रियां हर दिन, हर रात आ-आकर आपकी चौखट पर सिर नवाते हैं। न जाने कितने सलमान खान, शाहरुख, अक्षय, रणवीर कपूर, रणवीर सिंह, दीपिका पादुकोण, प्रियंका चोपड़ा, आलिया भट््ट, श्रद्धा कपूर चौखट-चौखट सिर नवाते हैं। महीनों चलने वाली इस लंबी फिल्म को देखने के लिए न टिकट खरीदनी पड़ती है, न थिएटर तक जाना पड़ता है, न फिल्म पसंद न आने पर फालतू पैसे खर्च करने और समय खराब होने का दुख होता है।

अभी एक छोटी-सी खबर आई थी कि चुनाव की लोकप्रियता हाल ही में खत्म हुए बिग बॉस से ज्यादा है। फिल्मों की तरह ही नेताओं के हर दृश्य में, हर सभा में परदे पर दिखाई देते नायक के एक-दो चापलूस की तरह सैकड़ों चापलूस हाथ जोड़े, नारे लगाते, पांव छूते दिखाई देते हैं। अमरीश पुरी, मदन पुरी, सोनू सूद जैसे बहुत से खलनायक इर्द-गिर्द खड़े रहते हैं। उनके हाथों में झंडियां, बैनर, अंगुलियों से बने विजय के निशान होते हैं। फिल्मों में जो बंदूकें खलनायकों के हाथ में दिखाई देती हैं, उनसे इनकी जेबों अंटी रहती हैं। हर शाम की दावतें, पैसे और नेता के आसपास चलने की ताकत और आसपास वालों पर रोब झाड़ने की सुविधा अलग से मिलती है। जैसे ही वे नेता चुनाव हारते हैं, ये पाला बदल कर दूसरे की शरण में चले जाते हैं।

सारे नेता जनता, यानी कि मतदाता के सामने ऐसे हाथ जोड़ते हैं, इस तरह शीश नवाते हैं कि विनम्रता भी शरमा जाती है। किसी गरीब के बच्चे को गोद में लेना, सड़क पर खड़े किसी केले वाले से केला लेकर खाना, सड़क चलते से चाय लेकर पीना, किसी गरीब के अंधेरे सीलन भरे घर में खाना खाना ऐसी पटकथा नजर आती है, जिसे शायद आज तक बड़ा से बड़ा पटकथा लेखक भी नहीं लिख पाया।

नतीजा आने तक वे जनता को सबसे बड़ी ताकत और फैसला करने वाली मानते हैं। पता है कि बस कुछ ही दिनों की बात है, बिल्कुल फिल्म वालों की तरह जहां उनकी फिल्म को हिट कराने के लिए वे दर्शकों को भगवान का दर्जा देते हैं। हालांकि इसी जनता से बचने के लिए वे बीसियों मार्शल अपने साथ रखते हैं। जैसे कि नेता नेता बनते ही अपनी सुरक्षा के लिए जेड श्रेणी का सुरक्षा घेरा मांगते हैं। जैसे कि आजकल नेताओं के लिए जेड श्रेणी का सुरक्षा घेरा प्रतिष्ठा का एक बड़ा प्रतीक बनता गया है।

जैसे फिल्मों में सीन के आखिर में पुलिस आती है वैसे ही सुपरकॉप किरण बेदी चुनावी राजनीति में कूदीं। फिल्मों में तो अपराधी पकड़े जाते हैं और अगली फिल्म देखने तक दर्शकों के लिए सत्य की विजय हो जाती है, उसी तरह राजनीति में देखिए कि मैडम सुपरकॉप क्या करती हैं। हालांकि एक दूसरी पार्टी भी एक अवकाश प्राप्त सुपरकॉप कंचन चौधरी को ले आई।

हिंदी फिल्में बिना नाच-गाने और आइटम सांग के पूरी नहीं होतीं। कभी-कभी कोई फटा-टूटा, धूल और बिखरे बालों वाला शायर भी दिखाई दे जाता है। मगर ये युग कॉरपोरेट, बड़ी ब्रांड और एक कविता के लिए लाखों वसूलने वाले कवि शायरों का है। वे अपनी कविताओं, शायरी से मतदाता को लुभाने की कोशिश करते हैं।

एक समय दिल्ली में होने वाले जागरणों में फिल्मी गानों की पैरोडियां देवी के भजनों के नाम पर अर्पित की जाती थीं। इस बार ऐसी पैरोडियां चुनाव प्रचार के नाम पर रिक्शों, आॅटो, चुनावी सभाओं में खूब सुनाई दीं। इनके लिखने वालों का नाम वैसे ही पता नहीं जैसे ताजमहल बनाने वालों का नहीं पता है। इन्होंने भी दलों के लिए अपनी प्रसिद्धि की कुरबानी दे दी है।
चुनाव के बाद सड़कों पर जैसा सन्नाटा छा जाता है, टीवी चैनलों की बहसें उजड़ जाती हैं, सब उद्घोषक अपनी घोषणाओं को सही ठहरा कर अपने चैनल के सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करते हैं। पत्रकार थकान उतारते हैं और सोचते हैं कि जिस नेता की हार की भविष्यवाणी की थी वह तो जीत गया। अब क्या करें कि वह उस बात को भूल जाए और अपने आसपास जगह दे दे।

फिल्म के रिलीज होने से पहले उसकी तारीफ में ढेरों समीक्षाएं कराई जाती हैं, प्रोमो दिए जाते हैं, अभिनेता-अभिनेत्रियों के इंटरव्यू छपते हैं। उसी तरह राजनीतिक दल अब अपने-अपने सर्वेक्षण करा कर, नेताओं-प्रवक्ताओं के साक्षात्कार दिला कर अपनी-अपनी जीत का दावा करते हैं। लेकिन आजकल मतदाता बहुत होशियार हो गया है। वह हर किसी की सभा में जाता है, पूछने पर उसी दल को वोट देने की बात करता है, जिसके लोगों से मुखातिब होता है। मगर करता वही है, जो उसने किसी को नहीं बताया होता। वह फिल्म ही क्या कि रिलीज से पहले उसका अंत बता दिया जाए।

 

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