छबिल कुमार मेहरे
रमेश दवे स्थितप्रज्ञ आलोचक हैं। वादों-विवादों, खेमेबाजी, नारेबाजी और विचारधारागत पूर्वग्रहों, पुरस्कार-सम्मानों की आकांक्षा से हमेशा दूर रहते आ रहे दवेजी की लेखनी पिछले चार दशक से निरंतर गतिमान रही है। सच तो यह है कि लेखन ही उनका जीवन है और जीवन ही उनका लेखन। वे जब नहीं लिख रहे होते हैं तब भी उनका लेखन उनके मानस पटल पर चलता रहता है। दवेजी कविता के रास्ते कथा साहित्य की ओर मुड़ते हैं और कथा साहित्य से होते हुए आलोचना की ओर लौटते हैं। कृष्णा सोबती के शब्दों को बदल कर कहें तो: ‘रमेश दवे अपने लिए लेखक हैं। अपने किए लेखक हैं। वे अपने चाहने से लेखक हैं। उनकी कलम मूल्यों के लिए लिखती है, मूल्यों के दावेदारों के लिए नहीं।’
‘समकालीन अफ्रीकी साहित्य’, ‘शरद जोशी’, ‘कृष्ण बलदेव वैद: गल्प का विकल्प’, ‘राजी सेठ: संवेदना का कथा दर्शन’, ‘आलोचना-समय और साहित्य’, ‘आलोचना अंत का आरंभ’ से होते हुए जब हम उनकी नवीन कृति आलोचना की उत्तर परंपरा तक पहुंचते हैं तब यह स्पष्ट हो जाता है कि उनकी आलोचना हमेशा एक नई जमीन तलाश करती रही है और उसमें पाठक कथा साहित्य की तरह आद्यंत बिना किसी बौद्धिक बोझ के हलके मन से विचरण करता है और परिणामस्वरूप समकालीन साहित्य की एक सुंदर प्रामाणिक तस्वीर उसके मन में उभर जाती है। महत्त्वपूर्ण बात यह कि वे अपनी आलोचना में किसी प्रकार के सिद्धांत निरूपण का दावा नहीं करते।
‘आलोचना की उत्तर परंपरा’ उनकी पूर्ववर्ती आलोचनात्मक कृतियों से इस अर्थ में भिन्न और उल्लेखनीय है कि ‘यह पुस्तक आलोचना के उन विषयों को प्रस्तुत करने का प्रयास है, जो हिंदी सर्जकों, पाठकों और आलोचकों के लिए संभवतया किसी विदेशी भाषा की जटिलता के कारण अध्ययन-अध्यापन और शोध के मार्ग में बाधक रहे हों।’ और उन विषयों को यहां बड़े सहज भाव से उनके प्रतिपादक लेखकों के साथ प्रस्तुत किया गया है। पाश्चात्य साहित्य-सर्जक को जिस सहजता-प्रांजलता से प्रस्तुत किया गया है, वही इस कृति की विशिष्टता है।
पुस्तक में बीस विशिष्ट लेख सम्मिलित हैं। आलोचना के इस अराजक और अविश्वसनीय समय में दवेजी ‘प्रस्ताविकी’ में ही यह महत्त्वपूर्ण सवाल उठाते हैं कि ‘‘आलोचक अपनी तर्कबुद्धि का उपयोग कैसे करेगा, निरपेक्ष और तटस्थ कैसे होगा, सच कहने या किसी रचना के कमजोर पक्ष को उघाड़ने का साहस कैसे करेगा?’’ ‘उत्तर परंपरा’ को स्पष्ट करते हुए दवेजी लिखते हैं कि हिंदी आलोचना का यह समय उत्तर-समयों से घिरा है, लेकिन हमें तो अपने ही उत्तर-समय की रचना अपनी परंपरा की निरंतरता से करनी है। यह निरंतरता ही हमारी उत्तर परंपरा है।
रामचंद्र शुक्ल को पूर्व परंपरा का प्रथम पुरुष मानते हुए दवेजी ने उत्तर परंपरा में तीन प्रकार के आलोचनात्मक हस्तक्षेप को स्वीकार किया है: कलावादी आलोचना, मार्क्सवादी आलोचना और भाषाई आलोचना। दवेजी के अनुसार ‘परंपरा’ एक प्रकार की ऐसी निरंतरता होती है, जिसे खोजने की जरूरत नहीं होती, बल्कि दिखाई देती है, सुनाई पड़ती है और संभव हो तो उसे पढ़ा भी जा सकता है। ‘पश्चिमी आलोचना का पूर्वज ‘अरस्तू’ में दवेजी ने ‘मूल की प्रतिकृति’ की मौलिक व्याख्या करते हुए अरस्तू के संदर्भ में यह महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष देते हैं कि ‘अरस्तू का समय अतीत नहीं, अरस्तू का समय उसका वर्तमान नहीं, वह सदा भविष्य का चिंतक है और इसलिए वह निरस्त नहीं होता, बल्कि हर समय अपने समय से आगे के लिए प्रासंगिक और संदर्भवान होता है।
यहां दवेजी समकालीन आलोचना की दुर्दशा पर सार्थक टिप्पणी करते हैं: ‘हिंदी का वर्तमान आलोचना-कर्म भी आज विशृंखलित-सा लगता है और जिस प्रगाढ़ निबंधात्मकता को रामचंद्र शुक्ल ने अपना आलोचना-कर्म बना कर हिंदी के समूचे सृजन को खंगाला था, वैसा विमर्श, वैसा विश्लेषण या वैसा जटिल प्रयास अब लगभग सुविधात्मक आलोचना लिखने वालों ने त्याग दिया है।’ वैसे भी आज जो लोग आपसे आलोचना लिखने को कहते हैं, वे वास्तव में आलोचना नहीं, प्रशंसा चाहते हैं। यह भी सच है कि (निर्मल वर्मा के शब्दों में कहें तो) आज जिसके पास शब्द हैं, उसके पास सच नहीं और जिनके पास आज भीषण, असहनीय अनुभवों का सच है, शब्दों पर उनका कोई अधिकार नहीं।
हालांकि उत्तर-परंपरा के इस प्रायोजित समय में नामवर सिंह, कृष्ण बलदेव वैद, कृष्णा सोबती, अज्ञेय, मुक्तिबोध, रमेशचंद्र शाह, निर्मल वर्मा, अशोक वाजपेयी आदि के आलोचनात्मक हस्तक्षेप को सार्थक मानते हुए इनका जगह-जगह उल्लेख करते हैं।
आगे के लेखों में प्रतीकवाद, स्टीफन मलार्मे, पाल वेलेरी, इटेलो केल्विनो के बारे में जो संदर्भवान प्रामाणिक जानकारी दवेजी प्रस्तुत करते हैं, वह इस पुस्तक की उपलब्धि है और हिंदी पाठकों के लिए दुर्लभ सामग्री, क्योंकि अन्यत्र कहीं ये सहज ही उपलब्ध नहीं। आगे दवेजी ने पश्चिमी आलोचना की नई जमीन पर चर्चित सात नई आलोचना प्रणालियों की चर्चा भी बड़े सहज भाव से की है। ये सात आश्चर्य हैं: अफ्रीकी-अमेरिकी आलोचना, आद्य आलोचना या आलोचना का आदि-रूप और कार्ल युंग, बाख्तिन और संवादात्मक आलोचना, विमर्श-विश्लेषण और साहित्यिक आलोचना, चिकानो/ चिकाना/ लेटिनो आलोचना, इकोक्रिटिसिज्म यानी पारिस्थितिक आलोचना और समलैंगिक या सनकीपन का आलोचना सिद्धांत। कहने की जरूरत नहीं कि इन आश्चर्यों के प्रति भारतीय मानस आज भी उदासीन है।
आगे के सात लेखों में ‘उत्तर आधुनिकता’ को केंद्र में रख कर दवेजी ने साहित्य, समय और रंगकर्म/ मंच की संतुलित व्याख्या की है और उनकी व्याख्या की प्रक्रिया इतनी सहज है कि पाठक ‘उत्तर समय के बौद्धिक विमर्श’ से सहज ही तादात्म्य स्थापित कर लेता है। आगे के लेखों में अफ्रीकी कविता और अफ्रीकी रंगमंच की विस्तृत चर्चा कर दवेजी ने पुस्तक की महत्ता और बढ़ा दी है। और अंत में ‘हम वैसा साहित्य क्यों नहीं रच पाते?’ के बहाने उन्होंने हिंदी में महान सृजन की संभावना की ओर इशारा किया है।
अगर आलोचना (चाहे वे सैद्धांतिक हों या व्यावहारिक) पूर्ववर्ती आलोचना को अतिक्रमित ही करती है, तो ‘आलोचना की उत्तर परंपरा’ देशकाल के सीमांतों और स्थानीयता की परिधि पार करने वाली आलोचना का उत्तर संस्करण है और इसी में इस कृति की सार्थकता और महत्ता निहित है। कुल मिला कर यह कृति ‘अपने समय और साहित्य दोनों की सतत नवीन होती चुनौतीपूर्ण धाराओं में अंदरूनी तौर पर बहने की छटपटाहट’ का ही सृजनात्मक परिणाम है।
यह पुस्तक हिंदी साहित्य का अध्ययन करने वाले शोधार्थियों और आलोचकों के लिए विश्व साहित्य के परिप्रेक्ष्य में संदर्भ सामग्री के रूप में उपयोग में लाई जा सकती है।
आलोचना की उत्तर परंपरा: रमेश दवे; सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, दरियागंज, नई दिल्ली; 500 रुपए।
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta