गणपत तेली

वीरेंद्र जैन ने ‘गुलामी का नाहक भय’ (1 फरवरी) लेख में बताया है कि अभी भाषिक गुलामी की स्थिति हमारे यहां आई नहीं है, हम यों ही उसका रोना रोते रहते हैं। मुख्य बात संवाद का है और संवादियों के बीच अगर आपसी सौहार्द है, तो तमाम भाषिक अवरोध दूर किए जा सकते हैं। वे यह तर्क सरकारी कार्यालयों पर भी लागू करते हैं। उनके अनुसार भाषाई गुलामी इसके बाद की बात है। भाषा के संवाद के पक्ष पर वीरेंद्र जैन ने ठीक ही बल दिया है और भाषिक विविधता वाले माहौल में अन्य भाषाओं और कार्यालयी भाषाओं से जनता के अपरिचय को ठीक ही रेखांकित किया कि उनके लिए तो वे भी विदेशी भाषाएं हैं।

यह सही है कि भाषा संवाद का प्रभावी माध्यम है, लेकिन भाषाई राजनीति और विवाद-विमर्श के मुद्दों को संवाद मात्र तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। चाहे हम देश के वर्तमान भाषिक परिदृश्य को गुलामी की भाषा में परिभाषित न कर पाएं, फिर भी भाषाई असमानता को संवादहीनता मात्र नहीं कहा जा सकता और सौहार्द के अभाव को संवाद का बाधक नहीं ठहराया जा सकता है। कई स्थितियां सौहार्दपूर्ण नहीं होतीं, लेकिन संवाद स्थापित होता है। संवाद के माध्यम के रूप में भी भाषा के कई स्तर होते हैं- संकेत से लेकर लिखित रूप तक, लेकिन भाषाई असमानता सब में नहीं देखी जा सकती। वह सार्वजनिक व्यवहार के क्षेत्रों में ही स्पष्ट दिखाई देती है।

यहां हम जिस भाषाई गुलामी, असमानता या उपेक्षा की बात कर रहे हैं, वह आज के परिदृश्य में शिक्षा और सरकारी महकमों में भारतीय भाषाओं और अंगरेजी के स्थान से संबंधित है। इन क्षेत्रों में आज भी भारतीय भाषाओं की स्थिति उपेक्षापूर्ण है। हमारी शिक्षा-व्यवस्था में संबंधित भाषाओं के अलावा अन्य अनुशासनों में ढंग से पाठ्य सामग्री तक नहीं है। विद्यार्थियों को पढ़ाई के लिए प्राय: दोयम दर्जे की किताबों पर निर्भर रहना पड़ता है। भाषाओं और उनसे जुड़े अनुशासनों को शैक्षिक परिदृश्य में उचित महत्त्व नहीं मिलता।

सरकारी अनुदानों में भी भारतीय भाषाओं के अनुशासन हाशिये पर रहते हैं। शोध परियोजनाओं के लिए विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में अधिक अनुदान मिलता है। सामाजिक विज्ञान के विषयों में भी शोध परियोजनाओं को अनुदान देने वाली बहुत-सी संस्थाएं हैं, लेकिन भाषा और साहित्य के क्षेत्र में बहुत सीमित संसाधन हैं। तकनीकी और विज्ञान के संस्थानों में साहित्य के नाम पर सिर्फ अंगरेजी पढ़ाई जाती है। इन संस्थाओं में संबंधित क्षेत्र की भाषा और उसके साहित्य का अध्ययन क्यों नहीं कराया जाता! यह महज संवाद का मसला नहीं, बल्कि अंगरेजी को अतिरिक्त महत्त्व दिए जाने का मामला है, जो निश्चित रूप से हमारे औपनिवेशिक अतीत से कुछ संबंध रखता है।

यही स्थिति सरकारी महकमों की है। सरकार के बड़े कार्यालयों के काम अगर संबंधित क्षेत्र की भाषा में नहीं हो रहे हैं तो यह महज सौहार्द का अभाव नहीं है। संबंधित व्यक्ति वह भाषा ही नहीं जानता, जिसमें उसका काम होता है। उच्च स्तर के न्यायालयों को ही लीजिए, वहां काम अंगरेजी में होता है। वादी-प्रतिवादी को अपने सारे दस्तावेज अंगरेजी में अनुवाद कर जमा करने होते हैं। वहां की सारी प्रक्रिया अंगरेजी में होती है। स्पष्ट है कि यह भाषाई असमानता और उपेक्षा है। गौरतलब है कि इस उपेक्षा और असमानता के भी कई स्तर हैं। एक तरफ भारतीय भाषाएं अंगरेजी के मुकाबले उपेक्षित हैं, तो दूसरी ओर अल्पसंख्यक भारतीय भाषाएं भी आज खतरा महसूस कर रही हैं।

वीरेंद्र जैन ने सही बताया कि अटल बिहारी वाजपेयी, राजनारायण, लालू प्रसाद यादव आदि नेताओं ने जनता तक पहुंचने के लिए जनता की भाषा को अपनाया। यही नहीं, सभी नेता अपनी बात लोगों के बीच पहुंचाने के लिए आम लोगों की भाषा और मुहावरे इस्तेमाल करते हैं। आजकल की व्यापारिक कंपनियां भी अपने उत्पादों के विज्ञापनों में आम लोगों की भाषा का प्रयोग करती हैं। लेकिन वीरेंद्र जैन की यह मान्यता कि संवाद संवादियों के बीच के संबंध की ईमानदारी पर निर्भर करता है, उपयुक्त नहीं है।

वस्तुस्थिति यह है कि हमारे जनमानस में अब ईमानदारी और राजनेताओं का नजदीक का संबंध नहीं रहा है। विज्ञापनों से भी लोग प्रभावित होते हैं, लेकिन उनमें ईमानदारी की गुंजाइश कम ही पाते हैं। इसलिए ईमानदारी को संवाद की पूर्वपरिस्थिति नहीं माना जा सकता।

भाषा के क्षेत्र में भारतीय भाषाओं की यह उपेक्षा संस्थानीकृत है। उपनिवेशवादी शासन द्वारा स्थापित शासन के ढांचे और उससे उपजी मानसिकता से आज भी हम बाहर नहीं निकले हैं। हमारी इसी कमजोरी को शासक वर्ग भुनाता है। अनुवाद से भाषा का यह जटिल मसला हल नहीं होगा। आज भी न जाने कितने महकमों में अनुवाद के जरिए काम किया जाता है, लेकिन वह अपर्याप्त है। इसलिए आम जनता को स्थानीय भाषाओं में शिक्षा, सूचना और काम की सुविधा देकर भाषा की इस खाई को पाटा जा सकता है।

 

 

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